गुजर-बसर
गुजर-बसर


रोडवेज बसें यात्रा के दौरान बीच- बीच में कहीं ना कहीं रुकती ही रहती हैं । जैसे ही बस रुकती है,कभी पानी वाला कभी चना मूंगफली वाला बस में चढ़ने की जुगत लगा लेते हैं । एक,युवावय लड़का बस में चढ़ा, उसने कहा, भाइयों, बहिनों!समय कम है, दो मिनट में अपनी बात कहता हूँ । ये चार किताब का सेट है,घर लेकर जाइए, बच्चों को पढ़ाइए,एक में गिनती और बीस तक पहाड़े ,दूसरी में जानवरों की जानकारी, तीसरी में फलों के नाम और चौथी में सामान्य ज्ञान है । बाजार में आप लेने जाएंगे तो सौ रुपए खर्च करने पड़ेंगे । यहाँ आपको मिल रही हैं दस रुपए मात्र में। दस रुपए, दस रुपए, दस रुपए ।
किसी भाई या बहिन को लेनी हो तो हाथ उठाये।
इतने में दूसरा लड़का आ गया, जब उसने देखा कि वहाँ पहले से ही कोई मौजूद है ,तो वह सीट पर बैठ गया । जब पहले ने उसे देखा तो बहुत नाराज हुआ और कहने लगा, "बुरा मत मानना, जब तुझे पता है कि ये बस मेरी है तो तुझे दूसरी बस में बेचना चाहिए था, हमने पहले ही तय कर रखा है कि जिसमें मैं करूँगा उसमें तू नहीं करेगा और जिसमें तू करेगा उसमें मैं नहीं करूँगा ।
दूसरे के समर्थन में अन्य यात्री कहने लगे, "क्यों बिगड़ रहा है तू पहले कर ले,वह बैठा है बाद में कर लेगा। वैसे भी तेरा आयटम दूसरा है और उसका दूसरा ।
दूसरे ने कहा, "तुमने कर लिया कि अभी बाकी है ।"
पहले ने कहा, "अभी एक आयटम और है, और उसने कहना शुरू कर दिया, "भाइयों- बहिनो ! इस चेन को देखिए, पानी में ,पसीने में, कैसे भी पहनो।
छःमहीने की गारंटी । खो जाए तो गम नहीं, सोने से कम नहीं । कीमत मात्र, दस रुपए, दस रुपए ! दस रुपए ! भाइयो बनवाई का भी चार्ज नहीं, चीज लाजवाब । किसी को लेना हो तो हाथ उठाए।"
"हाँ भाई! अब तू करले।"
दूसरा उठा और कहने लगा, "भाइयों, बहिनो,गैस है ,अफरा है,खट्टी डकार आती है, पेट में मरोड़ है, खाना हजम नहीं होता, रात को नींद नहीं आती, बैचेनी रहती है,हर मर्ज की रामवाण दवा । हाथरस वालों की ये गोलियाँ जिस भाई को चखनी हों चख सकता है ।चखने का कोई पैसा नहीं । कोई चूरन हाथरस वालों जैसा नहीं । दस रुपए की एक डिब्बी , बीस रुपए की तीन । हर डिब्बी में सौ गोलियाँ । बाजार में यही गोलियाँ सौ डेढ़ सौ रुपए से कम में नहीं मिलेंगी। फ्री सेवा, केवल पैकिंग का पैसा देना है जनाब, बदले में तसल्ली और सुकून ।"
"कीमत दस रुपए, दस रुपए, दस रुपए !"
पहले वाला लड़का अभी भी खड़ा था ,"बोला, बेच ली तूने, अब समझ ले। तू मेरी बस में नहीं चढेगा और मैं तेरी में नहीं ।"
"समझ गया भाईसाहब ! मुझे नहीं पता था कि तुम इसमें हो ,मैं नहीं चढ़ता,जब ऊपर आ गया तभी मुझे पता चला । बस चल रही है, उतर लो यहाँ ।"
मैं सोच रही थी, जिस देश में इतने घौटाले होते हैं वहाँ दस रुपए मात्र कमाने के लिए कितनी मारामारी है ।आम आदमी का जीवन चला पाना कितना दूभर है ।
तभी एक भाई -बहन बस में आ गये। भाई गा रहा था, ढफली बजा रहा था । बच्ची कलाबाजी कर रही थी । गोल आकृति के पहिए से वह अन्दर बाहर, आजू- बाजू होती हुई फर्श पर कला का प्रदर्शन करने लगी। बड़ी ही मासूम और भोली भाली थी वह। उसके चेहरे को आकर्षक बनाने के लिए जगह -जगह लाल रंग लगा था । करतब दिखाने के बाद वह यात्रियों से पैसे इकठ्ठे करती और, आगे बढ़ जाती ।
उसका यह आचरण बुद्धिजीवियों में चर्चा का विषय बन गया । जैसे कि हम इन्हें पैसे देकर भिखारी बना रहे हैं, समाज के दामन पर बदनुमा दाग हैं ऐसे लोग ।
बहुत सोचने पर मैंने स्वयं को उनके स्थान पर सोचा । मान लिया जाए कि मेरे पास पैसे नहीं हैं, घर नहीं है, काम धंधा भी नहीं है । तब ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँगी ? ना जाने कितने ऐसे लोग हैं जो सब कुछ होते हुए भी अपने कारनामों से देश के दामन पर दाग लगा रहे हैं, तब हमारा विवेक शून्य क्यों हो जाता है ?मात्र एक दो रुपए देने के बदले कहीं हम अपनी नाकामी और हताशा को तसल्ली तो नहीं देते हैं ? अगर ये लोग भी पढ़े लिखे होते तो देश की नब्ज से बाकिफ होते,कोई सम्मान जनक कार्य कर रहे होते उसके साथ - साथ कोई एन जी ओ बना लेते। सरकारी ग्रांट मिलती। अखबार के पन्नों पर नाम छपता। काटते चाँदी और सम्मान जनक सूची में इनका भी नाम होता और लोग इनके साथ जुड़ने में गौरव का अनुभव करते ।