सर्जरी
सर्जरी


आपरेशन छोटा हो या बड़ा,जाना तो आपरेशन थियेटर में ही होगा। वहांँ का माहौल ही इतनी डरावना लगता है कि व्यक्ति अपनी बीमारी भूल जाए। मुझे भी वहाँ जाना पड़ा अपने कान को सिलवाने,जिससे कि कानों में कुण्डल पहन सकूँ। आपरेशन थियेटर में जब जाना हुआ तो मन सहमा हुआ था। यद्यपि यहाँ मैं अकेली नहीं थी। एक बड़ा रूम था और बीच में पर्दा था,,पर्दे के इस ओर कुछ मरीज अपने -अपने पलंग पर बैठे थे और दूसरी तरफ डॉक्टर्स कुर्सियों पर गुफ्तगू में तल्लीन थे। पर्दे से लगा हुआ एक पलंग था जिस पर मुझे लिटाया गया था। आस-पास दुखियाते,कराहते मरीज और विशेष कपड़े पहने डॉक्टर्स और सहयोगी। देखकर ऐसा लग रहा था मानो अब तो मेरी खैर नहीं। ट्रे में रखीं सुइयां,कैंची,ब्लेड, चाकू, चिमटियाँ। जैसे चहकने लगी हो,,,ओहो,,,!अब आयी मुर्गी !
ट्रे में रखी कैंची मेरे ख्यालों की दुनिया में अपने दोनों पैर फैला कर मेरे सामने खड़ी थी। कहने लगी ,, देखिए! देखिए! मेरी खूबसूरत काया,कभी देखी है ऐसी स्लिम सुंदरी? मेरे पैरों को देखो! जब खड़ी होती हूँ तो लगता है जैसे वैले करने जा रही हूँ। कभी महसूस किया है मेरे बारे में मीरा जी ? मैंने ख्यालों में ही जबाव दिया, नहीं तो....
तभी डॉक्टर अंशिका बोलीं,,,
" घबराइए नहीं,,यह तो बहुत छोटा सा काम है है,,कान की बट होती ही कितनी बड़ी है। एक इंच भी तो नहीं। हम तो पूरा का पूरा पेट खोल कर सिल देते हैं।"
हे भगवान!, मैंने सहमते हुए कहा "पूरा का पूरा पेट!"
मेरी नजर ट्रे में रखी सुई और धागे पर थी। ऐसी प्रतीत हो रही थी कि जैसे कोई नन्हीं बालिका धागे को लिए नृत्य करने लगी है,,जैसे कि धागे के सहारे वह पूरा आसमान नाप लेना चाहती है। वह ऊपर और ऊपर उठती जाती है और उसके साथ में धागा इतराता और लहराता हुआ पतंग के मांझे की तरह ऊपर उड़ता चला जा रहा है। जैसे ही नजर ब्लेड पर गयी तो रूह भी कांप उठी।
"पुरानी घटना याद आ गयी। जब खुला हुआ ब्लेड वाशवेसिन पर रखे साबुन से चिपक गया था किसी छुपे रुस्तम की तरह। जैसे ही मैंने हाथ धोने के लिए साबुन हाथ पर लगाया,ब्लेड मेरी उंगली काट चुका था और खून का फब्बारे से पूरि फर्श को लाल हो गया था। कुछ समझ नहीं आया कि ये क्या हुआ। तौबा कर ली मैंने उसी दिन ब्लेड से...। या अल्लाह रहम कर ,रहम कर निकला,स्वत:ही मुखारबिंद से।"
डाक्टर अंशिका धीरे से बोलीं,,"लेट जाइए इस टेबिल पर और आँखें बंद कर लीजिए। अब आपको एक इंजेक्शन लगेगा, जिससे पता चलेगा कि आपकी सेंसिटिविटी का स्तर क्या है। इस समय हम आपके कान पर ये दवा लगा रहे हैं। अब हम लोकल एनेस्थीसिया दे रहे हैं। इस चादर से मुंह ढंक कर सोते रहिए। कुछ भी पता नहीं चलेगा।"
मैंने भी 'जी',,, कहकर अपनी आँखें बन्द कर लीं और चादर को ओढ़ लिया। घर गृहस्थी की चिल्ल-पों से अलग इतनी तीमारदारी और एक प्यारी सी डॉक्टर के हाथों स्वयं को छोड़ दिया मैंने। चैन के ये क्षण असीम शांति दायक थे। आनन्द की यात्रा होने लगी मेरी। डॉक्टर अपना काम कर रहीं थीं और सहायिकाएं अपना। पास में ही कुर्सी पर बैठे अन्य डॉक्टर आपस में बातचीत करने में व्यस्त थे। एक डाक्टर बोले ,,कि भाई कल एक गोष्ठी में गये थे। बड़ा आनन्द आया। एक टूटी- फूटी कविता हम भी सुना आये। आप सुनना चाहें तो आप भी सुनिए।" "इरशाद,, इरशाद" की आवाज वातावरण में गूंजने लगी।
"जब दुख के बादल आते हैं तब श्याम नजर बस आते हैं।"
वाहहह वाहहहह मैंने धीरे से कहा,,,
"बड़ी सराहना मिली भाई,,,, मरीजों की दुनिया से अलग जाकर थोड़ा विषय परिवर्तन हो जाता है इसी बहाने और अपने मन की बात कहने के लिए एक सार्वजनिक मंच भी मिल जाता है।"
"वहांँ एक मैडम बड़ा अच्छा संचालन कर रही थीं।उनका नाम था नैनी,,,हाँ नैनी आस्तां,,,"मैंने भी चादर के अंदर से ही कहा।
"नैनी बहुत अच्छा संचालन करती हैं। आजकल कोई भी मंच संचालन उनके बिना नहीं होता यहाँ।"
डॉक्टर 'बाली' ने ध्यान से उस टेबल को देखा जिस पर मैं लेटी हुई थी, मुझसे पूछा।
"आप जानती हैं मैडम नैनी को ?"
मैंने बड़े उत्साह से कहा,,
"बहुत अच्छी तरह से डॉक्टर साहब।"
"आप भी काव्य पाठ करती हैं क्या?"
"..थोड़ा,थोड़ा" ,,मैंने चादर के अंदर से ही कहा।
"तो सुनाइए न एक कविता",, डॉ बाली बोले। अन्य उपस्थित जन भी कह उठे। "इरशाद,,इरशाद,,,,"
अपने कवि ह्रदय ने तुरंत मौके का लाभ उठाते हुए सुना दी ये कविता,,,,
,
"मैं तेरे पथ की अनुगामी,तुम साथ नहीं चल पाते हो। मैं जब भी पुकारूँ नाम तेरा तुम नजर कहीं न आते हो। मैं तेरे पथ की अनुगामी"...
सामने बैठे कराह रहे मरीज ने कहा,,,," आह,,,हे भगवान! तुम नजर कहीं न आते हो,क्यों दुख बन्धन काट न पाते हो।"
अब तो एक अन्य मरीज का कवि ह्रदय भी स्पंदित होने लगा। उसने अपनी दर्द भरी आवाज में कहा,,,"
दिन रात भजूँ तेरा नाम प्रभु,पर तेरे दर का पता नहीं। लो आज सुनो प्रभु मेरा दुख जो मैंने अब तक कहा नहीं।"
डाक्टर जो कि मेरा कान सिल रहीं थीं। आनन्द विभोर हो गाने लगीं,,,,
"ऐसी आनन्द हिलोरों का क्यों मौका हमको मिला नहीं।फिर मत कहना ऐ मीरा जी क्यूँ कान तुम्हारा सिला नहीं।।"
"निर्दोष हाथ ये रक्त सने,है हमसे प्रभु को गिला नहीं।"
"जाने कब तक ये देखेंगे हम रक्त सलिल सा बहता।लाख चाह लें हम, तुम,सब ,पर रुकता ये सिलसिला नहीं।।
फिर मत कहना मीरा जी,"
डाक्टर अंशिका के मुख से इतना सुंदर गीत सुन हाल में उपस्थित सभी मरीज" वाहहह वाहहहह डाक्टर साहब,,,वाहहह क्या आवाज है,,,क्या गीत है,,,"
डॉक्टर बाली, कविताएं सुनकर बड़े खुश हो गये और उन्होंने भी बहती गंगा में हाथ धोते हुए चार कविताएं सुनाईं।
"हम प्रेम प्रीत के बंजारे
हमको है नफ़रत रास नहीं
क्या मोल है उनके वादों का
जिनको खुद पर विश्वास नहीं"
अब आपरेशन थियेटर में तालियां बज रहीं थीं और सभी मरीज आह,की जगह वाह वाह कर रहे थे।
कवि गोष्ठी चालू है,,अपनी रचनाएं सुनाते जाइए,,,