मैं कौन हूँ...?
मैं कौन हूँ...?
ये रचना या इससे जुड़ीं बातें सिर्फ मेरी सोच है.... इसका किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं हैं। कृपया सहयोग करे।
बहुत कुछ बदला है, हमारे आस पास, हमारे समाज में। लेकिन आज मैं कुछ ऐसी बात सोच रहा हूँ और आप सबसे साझा कर रहा हूँ, जिसके बारे में शायद कोई मेरे खिलाफ भी हो जाए। या मेरा विरोध भी करे। सबसे पहले मेरा नाम, मेरी पहचान आप सबको बता रहा हूँ।
मैं अतुल.... मध्यम वर्ग में रहने वाला, शांत स्वभाव का, ठीक ठाक कमाने वाला ,साधारण सा दिखने वाला इंसान हूँ।
मेरे पिताजी एक किसान थे। कुछ सालों पहले उनका देहांत हो गया था। मैं पहले अपने पिता जी के साथ गाँव में ही रहता था, उनके स्वर्गवास के बाद शहर आ गया अपनी माँ के साथ।
मुझे खेती बाड़ी में कोई रुचि नहीं थी, मैं पढ़ाई में ज्यादा वक़्त देता था।
गाँव में भी मैं कभी कभी ही पिताजी की मदद कर दिया करता था। इसलिए उनके देहांत के बाद मैं शहर में आ गया। अपनी आगे की पढ़ाई करने।
पढा़ई के साथ साथ पार्ट टाइम काम भी करता था जिससे घर खर्च चल सके ओर मेरी पढ़ाई भी।
वक़्त ऐसे ही बितता गया। मैंने अपना ग्रेजुएशन पूरा किया और एक अच्छी कम्पनी में मेरी जॉब भी लग गई।
गाँव की जमीन और खेत बेचकर इतना पैसा तो था ही जिससे हम एक छोटा सा घर ले सकें।
घर था, नौकरी थी, माँ थी।
जिंदगी से कोई गिला शिकवा नहीं था।
लेकिन कुछ समय बाद एक ऐसी सोच, एक ऐसी बात मेरे जहन में बैठ गई थी जिसका कोई जवाब मुझे मिल नहीं रहा था।
खैर वो बात आपको खुद पता चल जाएगी ओर शायद आपको भी सोचने पर मजबूर कर देगी।
वक़्त अपनी रफ्तार से चल रहा था।
शादी की उम्र हो गई थी, हर माँ की तरह मेरी माँ को भी चिंता होने लगी। माँ ने गाँव में ही अपने किसी रिश्तेदार से कहकर मेरे लिए ढेर सारी लड़कियों की फोटो और जन्म कुंडलियाँ मंगवा ली थी।
आखिरकार मां को एक लड़की पसंद आई, कुंडली भी बहुत अच्छी मिल गई थी तो माँ ने तुरंत हमारा रिश्ता पक्का करवा दिया।
माँ ठहरी गाँव की, शहर में रहने के बाद भी उनके तौर तरीके, रीति रिवाज आज भी गाँव जैसे ही थें। शहर की आबोहवा उनपर बिल्कुल भी नहीं चढ़ी थी।
साधारण सा पहनावा
साधारण सा खाना
जितनी जरूरत हो उतना ही वार्तालाप।
मैं भी अपनी माँ जैसा ही था। माँ की हां को मैंने भी बिना कोई सवाल किए हां कह दिया।
चट मँगनी पट ब्याह.....
पन्द्रह दिनों में सगाई की रस्में हुई और शादी भी हो गई।
अब घर में दो से हम तीन सदस्य हो गए थे।
एक कमरा ओर एक हाल वाला हमारा छोटा सा घर अब सच में बहुत छोटा लगने लगा।
किचन भी छोटा ही था। इस बात पर आए दिन श्रीमती जी से बहस हो जाती थी।
लगभग हर रोज़ सुनना पड़ता था.... पूरा पूरा दिन ऑफिस में जाते हो, करते क्या हो, इतने सालों में किया क्या है, हमारा भविष्य क्या, हमारे होने वाले बच्चों का क्या भविष्य होगा इस घर में, एक कमरे में कब तक गुजारा करेंगे, नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते हो............ और भी ना जाने क्या क्या।
कभी कभी तो मैं भी सोच में पड़ जाता था की क्या किया जाए। इतने सालों तक इसी नौकरी से घर अच्छे से चल रहा था। माँ ने इतनी बचत भी की थी कि मेरी शादी भी अच्छे से हो गई, सब रिश्तेदार भी खुश होकर गए, सबको शादी के तोहफे, खाना, आना-जाना, इसी नौकरी के बचत किये हुए पैसों से ही तो मुमकिन हो पाया फिर अब अचानक एक सदस्य के आ जाने से इतनी उधल पुथल क्यों हो गई है।
शादी के दूसरे दिन से ही घर की सारी जिम्मेदारी तो श्रीमती जी को सौंप दी थी माँ ने तो क्यों उनको इतनी परेशानी हो रहीं हैं।
धीरे धीरे घर में क्लेश बढ़ने लगा। अब हर बात पर ताने दिए जाने लगे। एक बार तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया की इतनी सिमित रकम कमाने वाले इंसान को शादी करनी ही नहीं चाहिए थी।
अब माँ और श्रीमती जी के बीच भी आए दिन झगड़े होने लगे।
घर में घुसते ही माँ अपना पक्ष बताती। कमरे में घुसते ही श्रीमती जी अपना।
कई बार तो श्रीमती जी ने घर छोड़कर जाने की बात भी कह दी।
मैं किसका पक्ष लेता.... माँ का लूं तो श्रीमती नाराज हो जाती....
श्रीमती का लूं तो माँ नाराज हो जाए।
कुछ नहीं बोल पाता था मैं... क्योंकि मेरी जिंदगी में दोनों ही अपना अहम स्थान रखतीं थी।
माँ: जिसने मुझे इस लायक बनाया, पिताजी के बाद भी और उनके होते हुए भी हर पल मेरा साया बनकर साथ दिया।
श्रीमती: जो अपना घर, अपना परिवार, अपना नाम, अपनी पहचान सब कुछ छोड़ कर सिर्फ मेरे लिए, मेरे साथ आई।
मैं दोनों के ही साथ अन्याय नहीं कर सकता था।
लेकिन दिन ब दिन श्रीमती जी के ताने बढ़ते चले गए।
बहुत बार उनको प्यार से समझाने की कोशिश की पर सब बेकार।
बहुत बार माँ को भी समझाया पर कुछ दिनों में फिर से सब वही।
एक बार झगड़े झगड़े में श्रीमती जी ने इतना भी बता दिया की वो जानबूझकर परिवार आगे नहीं बढ़ा रहीं.... वो गोलियां लेतीं है जिससे बच्चा ना ठहरे। इस बारे में मुझे और माँ को भी कुछ नहीं पता था।
हम तो ये ही समझ रहे थे कि कुदरती नहीं हो रहा है।
लेकिन ये बात सुनकर मैं अपना आपा खो बैठा।
उस दिन पहली बार मेरी आवाज इतनी तेज़ निकलीं..... मैंने खुद भी कभी नहीं सुनी थी कि मैं इतना जोर से बोल भी सकता हूँ।
उस दिन पहली बार मैंने श्रीमती जी को कहा था-क्या कमी दी है मैंने तुम्हें आज तक, हर रविवार मूवी देखना, बाहर खाना खाना, हर महिने एक जोड़ी कपड़ा तो लेती ही हो, खुद का घर, पच्चीस हजार तनख्वाह हर महीने तुम्हारे हाथ में, कभी खुद के लिए भी एक रुपया नहीं मांगा तुमसे, हर तीन-चार महीने में आठ दस दिन मायके में जाना उन सबके लिए गिफ्ट ले जाना, तुम्हारा पड़ोसियों के साथ घूमने जाना, हर तरह की आज़ादी तुम्हें दी है। अपनी तरफ़ से सौ प्रतिशत दिया है तुम्हें। कोई कमी कोई रोक टोक नहीं की है कभी। फिर भी इतना बड़ा फैसला तुम अकेले कैसे कर सकतीं हो। जब आज तक तुम्हें और माँ को कोई कमी नहीं दी है तो क्या अपने बच्चों को कोई कमी दूंगा ????
मैं नहीं चाहता था कुछ भी इन लड़ाई झगड़ो में कभी भी कुछ भी बोलना, ना कभी मैं कुछ किसी को भी गिनाना चाहता था। मैं जो भी कर रहा था अपने परिवार के लिए। अपनो के लिए कर रहा था। किसी पर कोई अहसान नहीं कर रहा था।
सिर्फ इसलिए की वो सब खुश रहें। मैं सिर्फ उनकी खुशी चाहता था। लेकिन आज जब श्रीमती जी के मुंह से ये बात सुनी की वो इसलिए परिवार नहीं बढ़ा रहीं हैं क्योंकि उनको लगता है की मैं उस काबिल नहीं हूँ , मैं उनकी परवरिश नहीं कर पाऊंगा, मैं उनका खर्चा उठाने में सक्षम नहीं हूँ। ये बात मेरे दिल को चीर गई थी। इसलिए आज वो सब कह दिया जो मुझे कभी नहीं कहना चाहिए था। हर बार प्यार से समझाता रहा लेकिन मेरी चुप्पी और मेरे प्यार को मेरी कमजोरी समझा गया। ।
मैं घर से बाहर चला गया। बहुत देर तक अकेला बैठा सोचता रहा क्या कमी दे दी थी मैंने, कहाँ कमी रह गई थी मेरे प्यार और समर्पण में। क्या सच में मैं इतना असमर्थ हूँ की अपने बच्चों की परवरिश नहीं कर सकता। ???क्या सच में मेरी जिंदगी ....मेरी श्रीमती ....मेरे बारे में ऐसा सोचती है। ???
माना हमारा समाज, हमारा देश पुरुष प्रधान रहा है, लेकिन क्या कभी किसी ने हम पुरुषों से पुछकर देखा है। कभी हमारे बारे में जानकर देखा है।
हम हमारी पूरी जिंदगी किन हालातों में गुजारते है, कभी किसी ने जाना है।
घर बनाते हैं क्यों ताकि हम कुछ पल सुकून से रह सकें, लेकिन क्या ऐसा होता है?
कभी कभी तो अपने ही घर में हम मेहमानों की तरह रहते हैं.... आया... खाया.. और चला गया...।
हम अगर अपना डिप्रेशन कम करने के लिए बाहर जाए तो कोई बुरी आदत लगाएं तो हमें शराबी, बेवड़ा की उपाधि दी जाती है... क्या कभी किसी ने वजह जानने की कोशिश की????
बीवी की चुपचाप सुनते रहे तो जोरू का गुलाम.... ना सुनें तो माँ का लाडला....
हाथ उठाए तो मर्द होने का अहम ... ना उठाए तो नामर्द.....
आखिर ऐसी सोच कब तक और क्यों .....??
हम अक्सर सुनते हैं माँ ये करतीं हैं अपने बच्चों के लिए, वो करतीं हैं...
लेकिन क्या कभी किसी ने पिता को अहमियत दी है!!!!
मिलती हैं ....लेकिन मां जितनी .....कभी नहीं।
सिर्फ पैसा कमाने की मशीन बन गए हैं हम क्यों .... क्या हमारे भीतर प्यार, अहसास, दर्द, तकलीफ नहीं होती???
बीवी को आजादी दो तो माँ की सुनो....
ना दो तो बीवी की सुनो....
हम दोनों तरफ कैसे संभाल कर चलते हैं कभी किसी ने ये जानने की कोशिश की!!!!
अगर एक औरत अपना शत प्रतिशत देतीं हैं तो क्या हम कोई कमी देते हैं????
अरे कभी कभी तो हम अपने ही घर में जाने से डरते हैं.....!
क्यों ..... ये कभी किसी ने जानने की कोशिश की...!!!??
मैं ये नहीं कह रहा की औरत हर बार गलत होती या पुरुष हर बार सही होता है........ मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ की...बात सिर्फ़ समझ की है.... हम तुम्हें समझें.... तुम हमें समझो....।
हमें दो हिस्सों में मत बांटो....।
बस हमारी मजबूरी, हमारी परेशानी को समझो।
हम जानते हैं एक औरत बहुत कुछ करतीं हैं अपने बच्चों के लिए.... लेकिन एक पुरुष के किए को भी अनदेखा मत करो। !!!
औरत हो या मर्द दोनों को साथ में रहकर...एक दूसरे को समझकर...एक दूसरे को समान रखकर ही जिंदगी को आसान और सही तरीके से जीया जा सकता है।
एक दूसरे का सम्मान करों......।