मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ-1
मैं इश्क़ लिखना भी चाहूँ-1


पुरानी यादें इंसान की ज़िंदगी का बड़ा ही खूबसूरत पहलू होती हैं। जब भी याद आती हैं ज़हन में अपनी खुशबू छोड़ जाती हैं। हम भी जब जी चाहे तब इन यादों के समंदर में डूब कर अपनी आँखें भिगो लेते हैं, कभी ग़म के आँसुओं से तो कभी खुशी के।
अब देखिये ना पिछले एक घंटे से मेरी बेबे और बापू ना जाने कौन से ज़माने की बातों में खोये हैं। बापू की लस्सी का गिलास उनका इंतज़ार कर रहा है पर बेबे पीने का मौका दे तब ना। देखूं तो चल क्या रहा है...
“इतनी शैतानी करता था कि पूछिए मत।” बेबे बापू से कह रही थी।
मैं सारा मसला समझ गया था। आगे सुनने की कोई ज़रूरत नहीं थी। मेरी ही तारीफ़ जो हो रही थी। कभी कभी तो लगता है कि ये शैतानी और शरारत जैसे अल्फ़ाज़ बने ही मेरे लिये हैं।
“कहता था कि बबूके बो रहा हूँ बबूके।” बापू ने बेबे से कहा और कहते कहते हँस पड़े।
अब आप सोच रहे होंगे कि ये बबूके क्या बला है? ज़्यादा मत सोचिये मैं ही बताये देता हूँ। किस्सा कुछ यूँ है कि उस वक़्त मेरी उम्र रही होगी करीब 3 या 4 साल। बापू नया बाग लगवा रहे थे। उनके साथ उनके कोई दोस्त थे जो शायद बाग देखने आये होंगे और मैं था वहीं बैठा लकड़ी के एक खिलौने से खेल रहा था। कुछ देर बाद बाग देखने के लिये वो लोग टहलने निकले तो मैं भी उनके साथ हो लिया। उनकी बातों से मुझे ये समझ आया कि जिस चीज़ की ज़रूरत हो उसका पेड़ लगाया जा सकता है। और वही चीज़ फिर ज्यादा मात्रा में उस पेड़ से मिल सकती है। बस फिर क्या था, जिस चीज़ की मुझे ज़रूरत थी वो मैंने भी बोनी शुरू कर दी।
“अरे भाई किशन, देख तो इसे... ये क्या कर रहा है?” मुझे गड्डा खोदते देख बापू के दोस्त ने पूछा।
“मैं बबूके (बंदूके) बो रहा हूँ।” इससे पहले कि बापू कुछ कह पाते मैंने खुद ही उनकी बात का जवाब दे दिया। और हाथ में लिया हुआ तिनका उस गड्डे में रख कर दबा दिया।
कई बार बेबे और बापू इस किस्से को याद कर कर के हंसते थे। जैसे आज हँस रहे थे। तब शायद नहीं जानते थे कि ये उनके बेटे की शरारत नहीं भविष्य की क्रांति का संकेत है। और फिर क्यों ना हो? मैं पूछता हूँ कि क्यों ना हो?
मुझे विरासत में यही तो मिला था। मेरी रगों में भी तो उसी परिवार का खून था जो पिछली 2 पीढ़ियों से बहादुरी की मिसाल बना हुआ था। अब मैं बंदूके ना बोऊं तो क्या करूँ? बताइये ज़रा...
कई बार मैंने बेबे को परेशान होते देखा, रोते देखा। कहती थी कि मैंने अजीत को खोया, स्वर्ण को खोया तुझे नहीं खोना चाहती।
समझा देता था मैं उसे। पर समझाने से क्या होता है? चाहने से क्या होता है? आप नियति के खेल को तो नहीं बदल सकते ना...
ऐसा नहीं था कि मैं जानता नहीं था कि मैं जो कर रहा हूँ या जो करने जा रहा हूँ उसका अंजाम क्या होगा। जानता था, सब अच्छे से जानता था। बचपन से यही तो देख रहा था, यही तो सीख रहा था।
मेरे दादाजी सरदार अर्जुन सिंह, पहले सिक्ख थे जो आर्य समाज की क्रांति में शामिल हो गये थे। जाने माने हकीम थे गरीबों का मुफ़्त इलाज करते थे, बड़े बड़े जलसों में भाषण देते थे, छुआछूत और ऊँच नीच जैसी बुराइयों को दूर करने के लिये लोगों के बीच जा जा कर उन्हें समझाते थे। देश भक्ति तो इस कदर कूट कूट कर भरी थी कि स्वतंत्रता संग्राम में अपने तीनों बेटे झोंक दिये थे।
मेरे दादाजी के तीनों बेटे किशन सिंह (मेरे बापू), अजीत सिंह और स्वर्ण सिंह। तीनों एक से बढ़कर एक बहादुर देशभर और...
“अरे भगत, तू यहाँ बैठा है और हम तुझे कहाँ कहाँ ढूंढ आये।”
रुकिये, ज़रा इन दो शैतानों से निपट लूं फिर आपसे बात करता हूँ।