"मैं और तुम"
"मैं और तुम"
यह सिर्फ एक कहानी नहीं, हर उस कागज की कहानी है, जिस पर जिंदगी को लिखकर कई दफा मिटाया जाता है, और ख्वाबों को तराश कर उन ख्वाबों को जलाया जाता है, कहने को तो ये जिंदगी एक कोरा कागज है, पर ना जाने कितनी ही बार कुछ लोगों ने अपनी किस्मत की लकीरें इस कागज पर बनाई और एक वक्त के बाद मिटा दी!
मैं किसी को भी गलत नहीं ठहराना चाहता शायद इसे ही तकदीर कहते है!
यूं तो पेशे से मैं एक लेखक हूं, जो अपने किस्से कहानियों से कोरे कागजों को रंगता है, मगर मेरी तकदीर के कागज़ को किसी और ने ही रंगा है अपनी मोहब्बत की स्याही से, अब इसे दोस्ती कहो या एक तरफा मोहब्बत!
आखिर कौन थी वो?
चलो आज सब बताता हूं!
ये बात उस वक्त की है, जब वो मेरी जिंदगी में आई थी, वो एक सुनहरी शाम की तरहा थी, वो होता नहीं है जब सूरज डूबने के बाद आसमान एक हल्की सुनहरी रौशनी की चादर में लिपट जाता है, बिलकुल वैसी ही थी वो, थोड़ी नादान थोड़ी पागल सी!
साक्षी, हाँ साक्षी नाम था उसका, सिर्फ रिश्ते ही नहीं, किस्मत भी जुड़ गई थी हमारी,
आखिर हम कैसे मिले और क्यों मिलकर भी ना मिल सके, आज ये सारी बातें बता कर मैं अपने दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं!
ये कहानी सिर्फ मेरी नहीं साक्षी और उसकी मोहब्बत की कहानी भी है!
"मैं और तुम" इस कहानी में मैं होकर भी में मैं नहीं! ईश्वर की बनाई इस दुनिया में जो होता है अच्छा ही होता है! एक वक्त मिला मगर उस वक़्त में हम मिलकर भी ना मिले!
8 जनवरी 2018
आखिर ये दिन मैं कैसे भूल सकता हूं, जब पहली बार मेरी उससे मुलाकात हुई!
मैं अपने गांव प्रतापगढ़ से दिल्ली के लिए रवाना हुआ, दिल्ली, दिलवालों का शहर, शायद कुछ अपनापन सा है इस शहर में, हर किसी को अपना बना लेता है, और जो कोई एक बार इस शहर का हो गया तो यह शहर सिर्फ उसका हो जाता है!
मैं सुबह की पहली ट्रेन से दिल्ली के लिए रवाना हो गया,
‘प्रतापगढ़ प्लेटफार्म’
सुबह के करीबन 04:00 बज रहे थे, हर तरफ सिर्फ कोहरा नजर आ रहा था, ठंडी हवा मेरे गालों को कुछ इस तरह छू रही थी जैसे कोई अपने मेहबूब को छूता है, बस तभी मेरा फोन बजा और ठिठुरते हुए कांपते हाथों से मैंने अपना फोन अपनी जेब से निकाला ही था, की एक लड़की भागते हुए आई और मुझसे टकरा गई, और मेरा फ़ोन ज़मीन पर गिर गया!
हाय रे मेरी किस्मत, पता भी नहीं चला, कि आखिर मुझे फोन कर कौन रहा था, मैंने गुस्से में उसकी तरफ देखा और सिर्फ इतना बोला ही था कि 'देख कर नहीं चला जाता' और तभी वो धीमी सी आवाज में बोली ' मुझे माफ करना जल्दबाजी में, मैं आपसे टकरा गई, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था, मगर अब जाने अनजाने में गलतियां हो जाती है'
उसकी बातें सुनकर मेरे चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ गई, और मैंने उससे मुस्कुराते हुए पूछा आखिर आपको इतनी जल्दी है कहां की, मगर वो बिना जवाब दिए आगे चली गई!
और तभी मेरी ट्रेन प्लेटफॉर्म पर आ गई, और कहीं ट्रेन ना छूट जाए यह सोचकर मैं ट्रेन में चढ़ गया और अपनी सीट ढूंढने लगा, टिकिट मेरे फ़ोन में थी, जैसे ही फ़ोन निकलने के लिए मैंने जेब में हाथ डाला तो मुझे याद आया कि जल्दबाजी में, मैं अपना फोन प्लेटफार्म पर पड़ा छोड़ आया!
तभी मुझे ख्याल आया, खैर, सही ही कह रही थी वो, की जाने अनजाने में गलतियां हो ही जाती है!
मैं ट्रेन से उतरा और अपना फोन ज़मीन पर ढूंढ़ने लगा, तभी वो लड़की आकर मुझसे बोली 'शायद तुम अपना फोन भूल गए थे, ये लो और ध्यान रखा करो अपनी चीजों का, कितने लापरवाह हो तुम'
मैंने अपने मन में सोचा, 'हद है यार, एक तो खुद ने मेरा फोन गिराया और माफ़ी मांगने की जगह मुझे ताने दे रही है, कमाल की लड़की है'!
वो मेरा फोन मेरे हाथ में थमा कर ट्रेन में चढ़ गई और मैं भी, और मैं अपनी सीट पर जाकर बैठा, ट्रेन भी चल पड़ी, मैंने चैन की सांस ली ही थी, की मेरे सामने वाली सीट पर वही लड़की आकर बैठ गई, काफी देर तक मैंने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया, मगर कुछ वक़्त बाद मैंने उससे पूछ ही लिया!
सुनो!
उस वक्त तो ट्रेन भी नहीं आई थी, तो फिर तुम इतनी जल्दबाजी में कहां भाग रही थी? और हाँ तुमने मुझे सॉरी नहीं बोला अभी तक!
मेरी बात सुनकर उसने जवाब दिया!
वो क्या है ना मुझे लगा की कही ट्रेन ना छूट जाए इसलिए मुझे थोड़ी जल्दबाजी थी, मगर इसमें मेरी कोई गलती नहीं है, तुम्हें देखना चाहिए था ना सामने, अब अगर तुम ही आंखें बंद करके खड़े रहोगे तो इसमें मेरी क्या गलती, खैर जो होता है अच्छे के लिए होता है, तो अब तुम मुंह फुलाकर मत बैठो, बड़ा लंबा सफर है, थोड़ा प्यार से बात कर लो यार, तुम्हारा सफर भी आसान हो जाएगा और मेरा सफर भी कट जाएगा!
मैं मुस्कुराया और धीमी सी आवाज में कहा, चलो ठीक है! और मैंने लम्बी सांस ली और उससे पूछा, वैसे तुम्हारे इस सफर की मंजिल कहां है?
मैंने तो सिर्फ एक सवाल ही किया था और उसने मुझे अपना पूरा परिचय ही दे दिया!
मेरा नाम साक्षी है!
मुझे मेरे नाम का मतलब तो नहीं पता, मगर नाम तो नाम होता है, और मेरे इस सफर की मंजिल है, दिलवालों का शहर, दिल्ली, बचपन से वही के “आर्य महिला आश्रम" में पली-बढ़ी, और वहां के बच्चों के लिए कुछ बहेतर करना चाहती थी, जिससे उनका भविष्य उज्वल हो पाता, फिलहाल मगर अभी जिंदगी में एक ख्वाब पूरा करना है, कुछ दिन पहले मैं यहाँ एक दोस्त की तलाश में आई थी अब वो तलाश पूरी हुई तो वपस अपने शहर जा रही हु!
तुम बताओ कुछ अपने बारे में?
तुम बचपन से ही कम बोलते हो या सिर्फ मेरे सामने शरीफ बन रहे हो?
मैं पहली बार किसी लड़की से इतनी बात कर रहा था, हां मतलब वो बात कर रही थी, मैं सुन रहा था! मैंने उसकी बातों का जवाब देते हुए कहा!
ऐसा नहीं है, दरअसल मैं कम ही बोलता हूं क्योंकि मेरे इतने दोस्त नहीं है, मैं सिर्फ अपने काम से मतलब रखता हूं, यहाँ प्रतापगढ़ में मेरी नानी रहती है, जब मैं करीबन 10 साल का था तब एक कार एक्सीडेंट में मेरे माता-पिता का देहांत हो गया, तो मेरी नानी मुझे दिल्ली से प्रतापगढ़ ले आई और उन्होंने ही मुझे पाला, फिलहाल मैं दिल्ली में ही रह रहा हूं, काम के सिलसिले में! मगर अक्सर अपनी नानी से मिलने प्रतापगढ़ आ जाया करता हूं!
बस इसी तरह एक दूसरे से बातें करते-करते हम दिल्ली पहोच गए, पता ही नहीं चला कि समय कब निकल गया, इतना लंबा सफर इतनी जल्दी खत्म हो गया, खैर अब अलविदा कहने का मन तो नहीं था, पर दोनों को ही अपनी-अपनी मंजिल पर जाना था,
उसने जाते जाते सिर्फ इतना कहा 'ध्यान रखना अपना और अपने फ़ोन का मिस्टर' और मुस्कुराकर वो अपने रास्ते चल दी और मैं अपने!
'कुछ समय बाद'
बहोत लंबा सफर था, मगर यादगार, हम्म्म.... साक्षी, हां साक्षी, बड़ा प्यारा नाम है,
कुछ लोग राहों में यूं ही टकरा जाते हैं, मगर याद रहते हैं, खैर फिर से वही जिंदगी शुरु, काम और आराम!
‘वर्तमान'
मैं उस वक्त अपने घर पहुंचा ही था, मगर ना जाने क्यों मेरे दिमाग में एक ही नाम घूम रहा था और वो नाम था, साक्षी, आज पहली बार किसी के साथ इतने कम वक्त में इतना अपनापन सा महसूस हो रहा था, उस वक्त मन में सिर्फ एक ही ख्याल था, पता नहीं दोबारा हमारा मिलना होगा या नहीं!
‘भूतकाल'
सिर्फ नाम ही तो पता है, अब इस पूरे शहर में सिर्फ नाम से कहां ढूंढू उसे, हम्म.... शायद उसने बताया था जहां वो रहती है, क्या नाम था उस जगह का, याद क्यों नहीं आ रहा, हां कोई अनाथालय था, क्या नाम था उस अनाथालय का..... हम्म.... “आर्य महिला आश्रम"!
खैर अभी तो मैं आराम करता हूं, हां कल सुबह जाता हूं उससे मिलने!
‘वर्तमान'
उस पल को और उस एहसास को, मैं कभी भूल नहीं सकता, वो होता नहीं है, जब कोई आपके सामने हो तो उसकी मौजूदगी में आपको सुकून मिलता है और जब वह इंसान आपसे दूर चला जाता है तो आप सिर्फ उसी के बारे में सोचते हैं, ऐसा ही कुछ हो रहा था मेरे साथ उस वक्त मुझे भी मालूम नहीं था, मगर मैंने सब कुछ वक्त पर छोड़ दिया, कई बार वक्त को वक्त देना चाहिए ताकि वह हमें हालात समझा सके, और उस वक्त मुझे यही सही लगा, मगर थोड़ी बेचैनी सी हो रही थी, तो मैंने सोचा अगली सुबह में साक्षी से मिलने जाता हूं, और फिर मैं अपनी अधूरी कहानी यानी जो कहानी में लिख रहा था प्रतापगढ़ जाने से पहले उस कहानी पर दोबारा से काम शुरू किया,
कहानी का नाम था "अधूरा एहसास"
लगभग कहानी पूरी हो ही गई थी, की कहानी का आखरी हिस्सा मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कहानी को कैसे खत्म करूं, क्योंकि वो कहानी कुछ ऐसी थी, जिसको कभी पूरा किया जा ही नहीं सकता, वो हमेशा अधूरी ही रहती, और मैं बैठकर सोच ही रहा था कि कुछ अल्फाज मेरे दिमाग में आए वह अल्फाज कुछ ऐसे थे,
" कि तेरे दिए जख्मों से ज्यादा मुझे याद तेरा प्यार आता है, अब तो तेरे ना होने के एहसास में भी मुझे तेरे होने का एहसास हो जाता है , हाँ शब्दों को स्याही से पिरोह दिया है मैंने, और तेरे दूर जाने में भी मुझे एक सवाल नज़र आता है, कि तेरे दिए ज़ख्मो से ज्यादा मुझे याद तेरा प्यार आता है, और तेरे सवालों में मुझे मेरा सफर नजर आता है"
बस यही थे वो अल्फाज़, और इन कुछ अल्फाज़ो को लिखकर मैंने उस कहानी को वहीं छोड़ दिया, शायद इस कहानी को फिलहाल इन अल्फाज़ो तक ही रखा जाए, हो सकता है कि अभी कहानी बाकी हो, उनका यह सफर अभी खत्म ही ना हुआ हो!
फिर मैंने अपने ऑफिस में फोन लगाया, और यह कहानी पब्लिश होने के लिए भेज दी!
पब्लिशर ने मुझसे 1 महीने का समय मांगा और कहा की एक महीने बाद मेरी ये किताब सिर्फ कागजों पर नहीं लोगों के ज़हन में होगी!
उस वक्त ऐसा लग रहा था कि समय कितनी जल्दी बीत रहा है, रात के 11:30 बज रहे थे, बहोत जोरों से भूख लग रही थी, और बनाने के लिए घर में कुछ था नहीं, तो मैंने होटल से खाना मंगवाया, और खाने का इंतजार करते करते मेरी आंख लग गई!
‘अगली सुबह'
9 जनवरी' 2018' मंगलवार
हर मंगलवार की सुबह की शुरुआत मैं सबसे पहले मंदिर जाकर करता हूं, सुबह के करीबन 5:00 बजे मेरी आंख खुली दीवार पर लगी खड़ी पर मेरी नजर गई और कुछ मिनट तक मैं उस घड़ी को एक टक देखता रहा, बिस्तर से उठा नहा कर तैयार हुआ और घर के पास वाले मंदिर में चला गया, बचपन से ही मेरी आदत रही, कि मुझे धार्मिक चीजों से बहुत आकर्षण होता है, कुछ वक्त मंदिर में बिताया और वहां से सीधा ऑफिस के लिए निकल गया, आधे रास्ते पहुंचा ही था कि मुझे साक्षी का ख्याल आया!
क्या मैं उसे याद होऊंगा या भूल गई होगी?
मैंने अपनी जेब से फोन निकाला और गूगल मैप ओपन करा और चल दिया “आर्य महिला आश्रम" साक्षी से मिलने!
जैसे ही मैं आश्रम पहुंचा और वहां साक्षी के बारे में पूछा तो सभी बच्चे और महिलाएं मुझे ऐसे देखने लगी जैसे उन्होंने कोई भूत देख लिया हो, और एक लड़की चलकर मेरे करीब आई और बोली!
आप साक्षी को कैसे जानते हैं?
मैंने भी धीमी की आवाज में जवाब दिया, दरअसल कल जब मैं प्रतापगढ़ से दिल्ली आ रहा था तो मेरी मुलाकात ट्रेन में साक्षी से हुई थी!
मेरी बातें सुनकर वहां पर जैसे सन्नाटा सा छा गया, और सन्नाटे को चीरते हुए एक आवाज आई उस लड़की की, और वो मुझसे बोली,
ये हो ही नहीं सकता कि तुम साक्षी से मिले हो क्योंकि.......
इतना बोलते ही वह चुप हो गई,
और मैंने उससे पूछा, क्योंकि क्या? बताओ मुझे क्या हुआ?
वो लड़की घबराकर बोली,
क्योंकि...... साक्षी को मरे हुए 6 महीने हो गए तो यह संभव ही नहीं है कि तुम उससे मिले हो, या तो तुम झ
ूठ बोल रहे हो या फिर तुम किसी और साक्षी की बात कर रहे हो!
ये बात सुनकर कुछ समय के लिए तो मानो मैं किसी सोच में डूब गया, और फिर मैंने बोला,
मैं कोई मजाक नहीं कर रहा, साक्षी उसने मुझे अपना यही नाम बताया था, और उसने मुझसे कहा था की वह “आर्य महिला आश्रम" मैं बचपन से पली-बढ़ी है, और वो मुझसे बहुत जल्दी घुल मिल गई थी,
घुंघराले से बाल सुनहरी आंखें सर पर एक चोट का निशान!
तभी वो लड़की झिजकते हुए बोली, हां जो तुम कह रहे हो साक्षी के बारे में वो सब सही है, मगर ये हो ही नहीं सकता कि तुम साक्षी से मिले हो!
मैं बिना कुछ कहे चुपचाप आश्रम से बाहर आया और अपने घर के लिए निकल गया, पूरे रास्ते बहोत सारे सवाल मेरे मन को झींझोड़ रहे थे,
आखिर कौन है साक्षी?
क्या कल वाकई में मैं उससे मिला भी था या ये सिर्फ मेरा कोई वहम है?
मगर उसके बारे में सारी बातें जो मुझे पता है, वो सब सही निकली, सिर्फ उसके होने के!
उफ्फ्फ.... मैंने एक लम्बी सांस ली और सोचने लगा, कही मैंने कोई ख्वाब तो नहीं देखा?
नहीं! ख्वाब तो नहीं था!
मैं अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालके बीते दिन की सारी बाते याद करने लगा!
‘मैं सोचते हुए'
मैं प्लेटफार्म पर खड़ा ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था, मेरा फ़ोन बजा, जैसे ही फोन उठाने के लिए मैंने फोन जेब से निकला तो हवा की तरहा वो आई और मुझसे टकरा कर चली गई,
मेरी ट्रेन आई, मैं ट्रेन में चढ़ा, और फ़ोन प्लेटफार्म पर ही भूल गया, जैसे ही मैं फ़ोन ढूंढ़ने के लिए ट्रेन से उतरा तो वो लड़की वापस आई और मुझे मेरा फ़ोन देते हुए ताने मारे, जैसे सारी गलती मेरी ही थी, मैं वापस ट्रेन में चढ़ा और मेरे सामने वाली सीट पर वो आकर बैठ गई, और इतनी जल्दी मुझसे घुल मिल गई!
मेरा सीट नंबर था, D-11, और वो मेरे सामने बैठी थी मतलब उसका सीट नंबर, D-12…
यह सब सोचते हुए मैं बस स्टेण्ड पर पहोचा और घर जाने की बजाये, नई दिल्ली प्लेटफार्म के लिए बस में चढ़ गया, और सोचने लगा की अगर प्लेटफार्म जाकर मैं कल की टिकिट लिस्ट निकलवाऊ तो शायद मुझे पता चल जाये की वो सीट किसके नाम से रिजर्व थी!
मैंने अपने ऑफिस फ़ोन करकर बोल दिया की आज मैं ऑफिस नहीं आपाऊंगा मेरी तब्येत खराब है, तो जो भी मीटिंग है वो किसी और दिन कर ले!
‘मैं प्लेटफार्म पंहुचा'
और प्लेटफार्म के पूछताछ केंद्र पर जाकर ( 8'जनवरी )की रिजर्वेशन लिस्ट निकलवाई, और उस लिस्ट में चैक करने के बाद मुझे पता चला की वो सीट साक्षी मेहता के नाम से रिजर्व थी! मतलब मैं सही था!
मैंने इंचार्ज से निवेदन करके साक्षी का फोन नंबर निकलवाया जिस नंबर से टिकिट बुक हुई थी, और उस नंबर पर फोन किया!
फ़ोन पर बात करते हुए,
हेलो.... सामने से एक आदमी की आवाज़ आई, मैंने पूछा क्या आप साक्षी के घर से बात कर रहे है?
उस आदमी ने उदास सी आवाज़ में कहा, जी! आप कौन?
मैंने बोला में साक्षी का दोस्त बोल रहा हु, हम कल प्रतापगढ़ प्लेटफार्म से साथ ही दिल्ली आये थे! क्या मेरी साक्षी से बात हो सकती है?
उसने ग़ुस्से में मुझसे कहा तुम पागल हो, तुम्हे पता भी है तुम बोल क्या रहे हो, तुम उससे मिले जो अब इस दुनिया में है ही नहीं!
मेरी पत्नी थी साक्षी, मेरी जिंदगी थी वो, उसे मरे 6 महीने हो चुके है, और तुम बोल रहे हो कि वो कल तुमसे मिली, तुम्हे शर्म नहीं आती, ऐसा मज़ाक करते हुए!
और बस इतना कहकर उसने फ़ोन रख दिया, और मुझे खड़ा कर दिया बहोत से सवालों के घेरे मैं, मेरे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था आखिर ये सब चल क्या रहा है, क्या हो रहा है मेरे साथ और क्यूँ ?
मैं प्लेटफार्म से निकला और पास ही एक पार्क मैं जाकर बैठ गया, कई सवाल चल रहे थे मेरे मन में, एक दिन में मानो मेरी जिंदगी ही बदल गई, कोई मेरी बातो का विश्वास नहीं कर रहा, यहां तक कि मुझे खुद भी अपनी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था अब!
तभी ठंडी सी हवा मेरे शरीर को छू कर गई, और मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा, और धीमी सी आवाज़ में मेरा नाम लेते हुए कहा,
कैसे हो मानव?
जैसे ही मैं खड़ा होकर पीछे घुमा, तो साक्षी मेरे सामने खड़ी थी, मुझे अपनी आँखो पर विश्वास नहीं हो रहा था,
कही मैं कोई सपना तो नहीं देख रहा? मैंने खुदसे सवाल किया!
मैंने झिजकते हुए पूछा,
आखिर तुम हो कौन? तुम हो भी या नहीं? और तुम्हे मेरा नाम कैसे पता? मैंने तो कल तुम्हे अपना नाम भी नहीं बताया था!
उसने मुस्कुराते हुए मुझे जवाब दिया!
आखिर तुम मुझे ढूंढ़ने आश्रम पहोच गए, तुमने मेरा विश्वास नहीं तोड़ा, मुझे भरोसा था की तुम मुझे ढूंढोगे जरूर, और शायद तुम्हे सच पता चल गया की तुम किसे ढूंढ रहे थे बस तुम यक़ीन नहीं करना चाहते!
अब भी बिलकुल नहीं बदले तुम, जैसे पहले थे अब भी वैसे ही हो, बचपन की तरहा अब भी लोगो से दूर भागते हो, मगर मुझसे दूर नहीं हुए, अब भी एक डोर है हमारे रिश्ते की जो तुम्हे मेरी और खींच कर ले आती है!
मैं साक्षी की बाते सुनकर उलझनों में उलझता जा रहा था, गहरी सांस लेते हुए मैंने कहा,
मैं तो तुम्हे जनता भी नहीं तुम मेरे बारे में कैसे जानती हो और मेरा बचपन......
आखिर तुम्हे कैसे पता मेरे बचपन के बारे में?
मेरे सवालों को सुनकर साक्षी मुस्कुराई और मेरा हाथ पकड़ कर बोली,
तुम्हें याद है, बचपन में तुम्हारी एक दोस्त हुआ करती थी, जब वो पहली बार स्कूल में आई, थोड़ी घबराई हुई थोड़ी सहमी सी, सब कुछ नया था उसके लिए किसी को भी नहीं जानती थी वो, तुमने ऐसे ही उसका हाथ थामा और शर्माते हुए उससे पूछा, क्या तुम मेरी दोस्त बनोगी?
और उसने मुस्कुराकर जवाब दिया था, हाँ!
समीक्षा नाम था ना उसका!
तुमने उससे वादा किया था ना कि तुम कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ोगे और हर मुश्किल में उसके साथ खड़े रहोंगे, कुछ साल बीते तुम दोनों ने एक अच्छा वक़्त साथ बिताया मगर तुम्हारे माता पिता के देहांत के बाद तुम अपनी नानी के साथ प्रतापगढ़ चले गए, और शायद उस दोस्त को भूल गए, दरअसल समीक्षा को आश्रम में सब साक्षी कहकर बुलाते थे!
‘वर्तमान'
जब साक्षी ने मुझे ये बात बताई तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, वो वही लड़की थी जो मेरी पहली और आखरी दोस्त थी, मगर एक बेचैनी थी जो सभी लोग उसके बारे में कह रहे थे, उस बात को लेकर,
दरअसल बचपन से ही मैं समीक्षा से बहोत प्यार करता था, पर कभी उसे कह नहीं पाया, और फिर कुछ हालात ऐसे हुए कि हम बिछड़ गए और फिर वक्त ने हमें मिलवाया भी तो ऐसे!
‘भूतकाल'
मैंने गहरी सांस ली, और झिजकते हुए पूछा,
मैं तुम्हें ढूंढने के लिए आज जब आश्रम गया तो सभी लोग तुम्हारे बारे में कुछ और ही बता रहे थे, और जब मैंने तुम्हारा नंबर निकाल कर तुम्हें फोन किया तो फोन किसी आदमी ने उठाया और वो तुम्हे अपनी पत्नी बता रहा था, और तुम्हे मरे हुए 6 महीने हो गए, आखिर ये सब चल क्या रहा है? सब लोग मुझसे झूठ क्यों कह रहे हैं?
समीक्षा ने नम आँखो से मुझे जवाब दिया,
सब लोग जो भी कह रहे हैं वो सच है, सच कहूं तो मुझे भी नहीं पता कि ये हो क्या रहा है, 6 महीने पहले तक जब मैं जिंदा थी....
मैंने उसकी बात काटते हुए कहा,
जिंदा थी मतलब..... मैंने एक गहरी सांस ली और बोला, वो सभी लोग तुम्हारे बारे में बोल रहे हैं वो सच कैसे हो सकता है, तुम मेरे सामने हो मैं तुम्हे देख सकता हु छू सकता हु, आखिर तुम कहना क्या चाहती हो?
मेरे सवालों को सुनकर समीक्षा ने जवाब दिया,
मैं जब से समीर से मिली और हमारी शादी हुई मेरी सिर्फ एक ख्वाहिश थी, कि हमारी मोहब्बत की कहानी सबको पता चले, शायद इसी ख्वाइश की वजह से मेरी रूह तो है मगर जिस्म नहीं,
6 महीने पहले तक मेरी जिंदगी में सब खुशियां थी, जिसे मैं सबसे ज्यादा चाहती थी वो मेरे साथ था, पर अचानक सब तभा हो गया!
मुझे अब भी याद है वो आख़री पल जब मैं अपने घर कि छत पर रात मैं समीर के ऑफिस से घर आने का इंतज़ार कर रही थी और आसमान मैं चाँद को देख रही थी, सोच रही थी कि काश लोगो को हमारी मोहब्बत के किस्से पता चले लोग हमारी मोहब्बत कि कहानी पढ़े और उनका भरोसा कभी ना टूट प्यार से रिश्तो से!
मैंने समीर को फ़ोन करने के लिए अपना फ़ोन उठाया और तभी एक न्यूज़ पढ़ी, 2017 कि बेस्ट सेलिंग बुक, "रिश्ता एक ज़िम्मेदारी" तभी मैंने फ़ोन मैं वो किताब चैक करी तो पता चला कि उस किताब को किसी मानव श्रीवास्तव ने लिखा है, तब मुझे तुम्हारा ख्याल आया, कही वो मानव तुम ही तो नहीं, और जब मैंने तुम्हारी बायोग्राफी पढ़ी तो मुझे पता चला कि आखिर वो तुम ही हो, एक उम्मीद आगई थी मुझमे, जब मुझे तुम्हारे बारे में पता चला तो, और बहोत ख़ुशी थी कि तुम इतने कामियाब हो गए, मगर तभी अचकनाक मुझे पीछे से किसी ने धक्का मारा........
और मेरी आंखों के आगे धुंदलापन सा छा गया, जब मेरी आंख खुली तो मैंने देखा कि लोग भीड़ लगाकर खड़े हुए थे और उसी भीड़ में समीर भी था, और मैं उठकर समीर के पास गई, उसको छूने की कोशिश की मगर मैं उसे छू ही नहीं पाई, ना वो मेरी आवाज सुन पा रहा था और ना मुझे देख पा रहा था, सिर्फ मेरा नाम लेकर रोए जा रहा था, और मैंने जैसे ही सामने देखा तो सामने मेरी लाश पड़ी हुई थी, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था ये करिश्मा था या कोई श्राप, मैं ज़ोरो से चीखी मगर ना किसी को सुनाई दिया ना ही मैं किसी को दिखाई दी, तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि अब मै...........मैं नहीं रही!
बस तब से मैं कभी यहां कभी वहां ऐसे ही हवा कि तरहा भटकती रही, अपनों को तड़पते देखा रोते देखा मगर कर कुछ भी नहीं पाई, फिर मुझे तुम्हारा ख्याल आया और मैं प्रतापगढ़ गई, मगर कई महीने निकल गए मगर मुझे तुम वहां पर नहीं मिले, पर कल तुम मुझे दिखे, जानबूझकर तुम्हारे पास से गुजरी और तुम से टकराई, और जो कल हुआ वो सब देख कर मैं बहोत हैरान थी मैं तुम्हें दिख रही थी तुम्हें छु सकती हु, इसलिए पूरे सफर में तुमसे बातें करती हुई आई और तुमसे बाते करके मुझे बहोत सुकून मिला, आखिर कोई था जो मुझे देख सकता है जिससे मैं अपनी परेशानी संझा कर सकती हूं!
तुम तो दोस्त हो ना मेरे, क्या मेरा वो आखरी ख्वाब पूरा करोगे? जो मैंने देखा था, शायद उस ख्वाब की वजह से ही, मैं मर कर भी जिंदा हूं!
‘वर्तमान'
समीक्षा की बातें सुनकर मेरी आंखें भर आई, आंखों से आंसू बहे जा रहे थे, मैं चाह कर भी खुद को रोक नहीं पा रहा था रोने से, आखिर कैसे रोकता इन आसुओं को बहने से, वो मेरी दोस्त थी, सबसे पहली और आखरी, वो मेरी मोहब्बत थी जिस मोहब्बत का इजहार में कभी कर नहीं पाया, दुख इस बात का नहीं था कि वो मेरी नहीं हो पाई, बल्कि रोना तो इसलिए आ रहा था, की वो मेरे पास होकर भी नहीं थी,
‘भूतकाल'
मैंने रोते हुए उसे गले लगाया, और सिसकते हुए बोला,
तुम्हारा ख्वाब मेरा ख्वाब है, तुम्हारी हर ख्वाहिश मैं पूरी करूंगा!
वर्तमान,
उस वक्त लोग मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैं कोई पागल हूं, क्युकी समीक्षा को सिर्फ में ही देख सकता था, शायद इसी लिए वो मुझे देखकर पागल समझ रहे थे, मगर मुझे लोगों से कोई फर्क नहीं पड़ा, क्योंकि मैं अपनी समीक्षा के साथ था!
‘वर्तमान'
" अक्सर लोगों को लगता है कि मोहब्बत एक तमाशा है, जो लोग आते हैं और करके चले जाते हैं, अगर मोहब्बत के सही मायने पूछने है तो मुझसे पूछो और उससे पूछो जो अपनी मोहब्बत के खातिर मर कर भी जिंदा थी "
'चंद अल्फाज़ मेरे दिमाग़ में आते है'
"की क्या खूब लिखा लिखने वाले ने, मेरे दिल पे तेरा नाम लिखा, तुझको इश्क़ का नाम लिखा और मुझको तड़प बेहिसाब लिखा"