मांगी हुई साड़ी
मांगी हुई साड़ी
बचपन में मां को जब कहीं जाना होता था तब मां बड़ी परेशान हो जाया करती थी, मैं कुछ कुछ समझने लगी थी कि मां की परेशानी साड़ी को लेकर होती थी। पिता एक छोटे किसान थे, परिवार की जरूरतें ही पूरी नहीं हो पाती थी तो साड़ी और पिता जी के कपड़े फिजूलखर्ची में ही आते थे।
मां कहीं न कहीं से जुगाड़ जोड़ती थी। कभी मौसी, कभी पड़ोसन आदि से इंतजाम हो ही जाता था। गांव देहात में तब सामाजिक ताना बाना मजबूती से गुंथा हुआ था।
मैं मां को ऐसे देखती तो सोचती मां अपने लिए क्यों इतनी कंजूसी करती हैं?मौसी की आर्थिक स्थिति भी तो हमारे जैसे ही है, वह तो खूब शौक से रहती हैं। किंतु एक बात तो प्रत्यक्ष ही थी कि मौसी को अपने शौक के आगे अपने बच्चों की पढ़ाई लिखाई की भी परवाह नहीं थी।
लेकिन मैं मां कि तरह अपनी हर इच्छा का गला नहीं घोटूंगी। मैं तो पढ़ लिख कर खूब अमीर बनूंगी, और जीवन मजे से बिताउंगी।
मां पिता जी की तंगी मेरा इरादा कब फौलाद बनाती गई पता ही न चला। और एक दिन मैंने सपनों की दुनिया में कदम रखा। मेरे सपने पूरे हुए और मां पापा का त्याग सफल हो गया, और मेरी नियुक्ति बैंक में एक अधिकारी के रूप में हुई।
किंतु आज एक अधिकारी होने के साथ-साथ एक गृहस्थन और मां भी हूँ। और मेरा सपना शान से जीने का! उसका क्या ?
मुझे दर्पण में अपने आप में मां का अक्स नजर आता है। मां और मेरा चेहरा गडमड सा होता दिखता है। मां की तरह मैं भी कहीं न कहीं खुद ही त्याग करती हूँ। मां साड़ी
ये सब देख कर वो उसकी तरफ बढ़ता है लेकिन कोई नहीं दिखता है। साड़ी के लिए जुगाड़ करती थी। मेरे जुगाड़ कुछ भिन्न अवश्य है किंतु आत्मा वही है।
