माँ
माँ
खुशी के तीने बेटे राम, मोहन और श्याम थे। खुशी अपने ही घर में खुश नहीं थी। पति के गुजर जाने के पश्चात खुशी के जीवन में खुशी गायब़ सी हो गई थी। बेटे एवं बहुओं के नित्य-दिन के कलह से खुशी को अत्यंत पीड़ा होती थी। माँ को खाना खिलाना तीनों बेटों के लिए जैसे बोझ सा था। एक माँ ने तीन बेटों का भरणपोषण स्वयं किया था परंतु एक माँ का भरणपोषण तीन कुपुत्र बेटों से नहीं हो रहा था।
बहुओं से मिले असहनीय शब्दों से खुशी की आँखें द्रवित हो जाती थी। पति की मौजूदगी में तो इतनी तकलीफ न थी परंतु ....पति के मरणोपरांत खुशी की अहमियत बेटों और बहुओं के सामने कुछ न थी।
माँ ने कुछ पैसे पति की मौजूदगी के समय में जमा किये थे। संपत्ति का बँटवारा हो चुका था। भाइयों के बीच समझौता हुआ कि माँ एक -एक महीने बारी- बारी से सभी के यहाँ रहेगी। फिर भी बेटे और बहु खरी- कोटि माँ को सुनाते।
बेटों एवं बहुओं की नजर माँ के द्वारा तिनके तिनके कर संजोए उस धन पर थी। माँ एक दिन बहुओं को बात करती सुनी की.... ये बुढ़ी मरती भी नहीं मर जाए तो...पीछा छूट जाए इससे बस।
यह सुन माँ को बहुत दुःख हुआ,आँखें नम थी,मन से बातें करती हुई बोल रही थी। प्रिय क्यूँ न ले गए मुझे भी तुम अपने संग ?
क्या यही सुनने के लिए छोड़ गए मुझे इस पुत्रमोह के वन में ?
माँ उसी रात जमा किये हुए धन को बराबर -बराबर हिस्से कर तीन पोटलियों में बाँध कर घर के आँगन में रख, कहीं दूर चली गयी।
बहुत दूर, जहाँ जाने के बाद आज तक कोई वापस नहीं आया।