माँ की नसीहत
माँ की नसीहत
माँ तुमने जैसा कहा था मैंने वही किया
अपने नए घर को अपना
बनाने की पूरी कोशिश की पर
जीवन के अंतिम पड़ाव में आकर
कुछ ऐसा लग रहा है जैसे सब कुछ
शून्य हो गया है
कुछ अपना नहीं है
मुझे आज भी पराया ही माना जाता है
सबको लगता है जैसे मैं उनका
कुछ छीन लूंगी
मैंने अपना तन मन
धन सबपर न्योछावर कर दिया पर
मेरी सभी कुरबानियों को
कर्तव्य का नाम दे दिया गया
मेरी इच्छाओं की
की अवहेलना की गई
हर कदम पर मुझे जताया गया कि
तुम तो पराए घर
से आई हो तुम हमारी शुभचिंतक
कैसे हो सकती हो
विडम्बना है कि
मायका अपना न रहा
और ससुराल
अपना नहीं हो पाया
माँ ऐसा
क्यों होता है?
तुम्हारी नसीहत भी
कुछ काम न आई?