मान गये उस्ताद
मान गये उस्ताद
पीछले हफ्तेसे दोनों मिया-बिवी के बीच घरके सामनेवाली खुली जगह को ले कर बहस छिडी। रजत कहता है, "आंगन बडा करना है।” रजनी कहती है, "नहीं उसे वहाँ पेड लगाने है।" बस इसी बातको लेकर दोनों में अनबनसी हो गई थी। दोनों अपनी–अपनी बात पर अडे थे और अपनी ही बात दोनों को सही लगती थी। दोनों इसी उलझन में थे कि कैसे अपनी बात मनवाई जाये।
रजत हॉल में बैठे अखबार पढ रहा था, अचानक फोन की घंटी बजी। रजत ने फोन उठाया पता चला कि रजत की दीदी का फोन था। बात हो जानेपर मन ही मन वो खुश था पर मौजुदा हालातों से वो और भी परेशान हो गया। पता चला कि दीदी अपने परिवार के साथ दीवाली की छुट्टीयाँ मनाने आ रही है। अब रजत सोच में पड गया कि रजनी को कैसे बताया जाय?
अंदर रजनी कीचन में खाना बना रही थी। उसके फोन की घंटी बजी उसने उठाया तो पता चला कि उसके भैया और भाभी दीवाली में भाईदूज के लिये उनसे मिलने आ रहे है। वो सोचने लगी कि दीवाली तो अगले हफ्ते है और ये जनाब मुँह बनाये बैठे हैं। अब इनको कैसे समझाये? सोचते–सोचते खाना तो बन गया।
उसने डाईनिंग टेबलपर खाना लगाने के बाद खुद ही सब भूलकर खाना खाने रजत को कीचन से बुलाती है। रजत आ भी जाता है। खाना प्लेट में परोसने के बाद दोनों खाना खाने शुरु करते हैं। रजत बात छेडता है, "सुनो, एक बात कहनी थी।"
रजनी कहती है, "कहो क्या बात है?"
रजतने कहा, "दीवाली पर दीदी अपने परिवार के साथ आ रही।"
रजनीने कहा, "मुझेभी कुछ कहना था।"
रजतने कहा, "कहो क्या बात है?”
तब उसने भी बता दिया, "दीवाली पर उसके भैया-भाभी भाईदूज के लिये आ रहे है।" सुनकर दोनों हैरान हो गये पर दोनों खुश थे।
अगले दिन से दोनों अपने आपसी विवाद को भूलकर दीवाली तथा आनेवाले मेहमानों के स्वागत की तैयारियो में जुट गये।
पहले रजत की दीदी का परिवार आया। जिन्हें लेने रजत स्टेशन गया। इन दोनों ने उनका बहुत खुशीसे स्वागत किया। उनकी खुब आवभगत की। उनकी सारी सुख सुविधाओं का भी खुब ध्यान रखा। उसके बाद रजनी के भैया-भाभी भी आये। रजत उनको भी लेने स्टेशन गया। उनका भी दोनों ने बहुत खुशी से स्वागत किया। इनकी भी खुब आवभगत हुई और इनकी भी सारी खुशियों का ध्यान रखा गया।
आये हुए नये परिवारों का ध्यान भी आंगन के सामने के खुली जगहपर गया। शाम की चाय के लिये सब आंगन में इकठ्ठा हुए। बातों बातों में दीदी की जुबांसे अचानक ये बात निकलही गई, "अरे वाह! तुम्हारे घर के सामने कितनी खुली जगह है, तुम लोग इस्तमाल क्यों नहीं करते?"
“दीदी, मैं सोचता हुँ कि आंगन को बढाया जाय पर रजनी का कहना है कि पेड लगाये जाये,” रजतने कहा।
तब जीजा ने सामने बैठी रजनीसे कहा, "इसमें गलत क्या है रजनी?”
तब रजनीने कहा, “गलत ही है, क्योंकि ये जमीन हमारी नहीं है सरकार की है। अगर हम इसे आंगन बढाने के लिये लेते हैं तो कभी न कभी तो सरकार का ध्यान रास्ता बनाते समय इस तरफ जायेगा ही। तब सरकार वापस वो जमीन तो छीन ही लेगी। तब ऐसी जमीन का आंगन में लेने से क्या फायदा? वैसे भी हमारा आंगन तो काफी बडा है। खामखां लालच करने से क्या फायदा? इससे बेहतर तो यह होगा कि उस जगह पर छोटे-छोटे पौधे लगाते हैं वही कुछ सालों बाद बडे पेडो में तब्दील हो जायेंगे। तो राह चलते राहगिरों को छाँव भी मिलेगी और प्रदुषण भी नहीं होगा क्योंकि दिनभर बहुत सारा प्राणवायु हम सबके साथ पंछियों को भी मिलेगा और उनका बसेरा भी होगा। पेड अगर आम के लगे तो आम भी हमें तो मिलेंगे और वो पंछी भी फल खा कर अपना गुजारा कर लेंगे। सरकार भी हरेभरे पेडों को देखकर खुश होगी और पर्यावरण सुरक्षा को देखते हुए पेड तो नहीं काटेगी। जमीन तो छिन सकती पर पेड नहीं काट सकती। इसलिये मैं चाहती हुँ कि फलों को पेड लगाये पर ये जनाब तो मानने के लिये तैयार ही नहीं।” इस बात को सुनकर रजनी के भैय्या-भाभी खुश होकर तालियाँ बजाकर रजनी का समर्थन करते हैं।
पर रजत नाराज हो जाता है। इसे देख कर रजनी का भाई, रजत को समझाने के लिये अपने दोस्त का एक जबरदस्त किस्सा सुनाता है जिसमें उसके दोस्त को लेने के देने पड जाते हैं, जिसे सुनकर रजत के होश ठिकाने आते हैं और वो अपनी जिद छोडकर रजनी की बात मानकर उसका समर्थन करता है।
रजनी इस बात से बहुत खुश हो जाती है और हंसते हुए जोरसे कहती है, "मान गये उस्ताद!” जिसे सुनकर सबकी हंसी के ठहाके गुँजने लगते हैं।
