माँ-बा
माँ-बा
"राजे, नहीं, वहाँ नहीं बेटा, लग जाएगी तुम्हें।"
" अच्छा बस एक टुकड़ा और, पक्का इसके बाद नहीं..."
" राजे, रोते नहीं बेटा, तुम्हारे लिए मैं हूँ न !"
अपने मकान में अंदर जाते मेरे कानों में माँ-बा की आवाज़ें गूँज रही थीं, बाहर गेट से लगे पौधों से लेकर भीतर दरवाज़े पर टंगी घंटी मुझे उनकी मौजूदगी का अहसास दे रही थी। ऐसा लग रहा था कि जैसे अभी इन झाड़ियों के पीछे से धप्पा करते आ निकलेंगीं, वही मुस्कान सजाये अपने होंठों पर, पलटकर देख रहा था मैं बार बार, कहीं इस बार भी उनका धप्पा हरा न दे मुझे !
लेकिन नहीं, वो नहीं थीं यहाँ !
मकान के कागज़ उन 'दूसरे' हाथों में थमाने से पहले न जाने क्यों मेरे कदम इस मकान की ओर अनायास ही बढ़ चले थे। ये मकान, हाँ घर नहीं, घर तो कभी था ही नहीं ये, केवल चार दीवारों का आलीशान मकान था जिसे और आलीशान बनाने के लिए पापा दिन रात एक किये रहते थे। इस आलीशान मकान के एक कोने में कहीं एक बचपन दब रहा है, इसकी खबर सिर्फ उन दो हाथों को ही थी जो अक्सर मुझे आलीशान मकान के भावहीन मलबों से बाहर खींच लाया करते थे। घर ! घर तो बस तब ही था ये जब वो थीं मेरे साथ। मेरी माँ-बा !
घर के भीतर कदम रखते ही मेरे अहसासों में एक खुशबू भी घुल गई है, उनके साथ की खुशबू, उनकी यादों की खुशबू।
आखिरी बार उन्हें इसी मकान के भीतर देखा था, रसोई में मेरे लिए खाना पैक करते ! मेरे जूतों के लेसेस को बाँधते। अपनी नम आँखों के कोरो को बाकायदा छुपाते और अपने चेहरे पर एक बनावटी मुस्कान लाते। बहुत मुश्किल था मेरे लिए, जाना उन्हें छोड़कर, लेकिन मैं चला जाना चाहता था इस मकान से दूर, उन यादों से दूर जो मुझे इस मकान ने दी थी। समेट लिया था मैंने माँ-बा की उन गीली आँखों को खुद में, साथ ही उनकी हँसी को भी बटोर लिया था अपने संग !
आज पता नहीं और क्या बटोरने आया हूँ मैं यहाँ? शायद माँ- बा को ही....
माँ पापा के प्यार से महरूम मुझे एक सहारा मिला था माँ-बा के रूप में। मेरी दाई, मेरी माँ , मेरे बाबा, ! सब कुछ ही बन गई थीं वो।
मेरा सूरज उनकी गोद से उगता था तो मेरी रातें उनकी लोरियों में सो जाया करती थीं। बहुत प्यार से रखती थीं मुझे। जब भी माँ लड़खड़ाते कदमो से घर आया करती थीं, मैं अक्सर माँ-बा के आँचल में ही छुप जाया करता था। उनका हंगामा, उनकी उल्टियाँ, उनकी गालियाँ मुझतक पहुँच कर भी न पहुँच पाती थीं, क्योंकि माँ- बा सामने आ जाया करती थीं। अक्सर मुझे कमरे में सुलाकर, माँ की उल्टियाँ साफ करते देखता था मैं माँ - बा को। उन्हें पता भी नहीं होता था कि सब देखता हूँ मैं। जब वो पापा की ऊँची आवाज़ से आये अपने आँसू छिपाने की कोशिश करती थीं, उन्हें नहीं पता था कि उनकी आँखों की नमी अक्सर मैं पढ़ लिया करता था। या शायद, सब कुछ जानती थीं वो !
बचपन से जवानी की दहलीज तक आते आते, बहुत कुछ टूट चुका था मुझमें, जो कुछ छोर से लटका बाकी भी था तो वो भी माँ - बा के ही कारण। बहुत मजबूती से वो फिसलते डोर को थामने की कोशिश किया करती थीं। हारी थीं वो, ये तो नहीं कहूँगा लेकिन हाँ पूरी तरह कामयाब भी न हो सकी थीं। माँ और पापा के टूटते रिश्ते का मलबा न चाहते हुए भी उनके, मुझतक आ ही गया था।
और फिर एक दिन, माँ पापा ने मुझे इस मकान से आज़ादी का कारण थमा दिया। माँ को गोली मार, पापा भी झूल गए अपने किये का पछतावा छिपाने के लिए। माँ का नशे की गोलियों के लिए पागलपन जब पापा संभाल न सके तो मुक्ति ही उन्हें इकलौता रास्ता लगा।
आज सोचता हूँ, कि क्या वो पापा की ही कमी नहीं थी कि नशे की ओर बढ़ती माँ को रोक न सके वो?
क्या वो पापा ही नहीं थे जो पैसा कमाने में इतने मशगूल हुए कि तन्हाइयों से लड़ती माँ को सम्बल न दे सके?
सोचता हूँ कि काश पापा ने पैसे से रिश्तों को ज्यादा अहमियत दी होती तो शायद आज वो दोनों ही ज़िंदा होते, और शायद मैं भी....
माँ पापा की अंतिम क्रिया करते हुए मुझे कुछ महसूस नहीं दिया, कहते हैं कि आँसू तब निकलते हैं जब भीतर कुछ दुखता है, मेरे भीतर तो पहले ही इतने ज़ख्म दुख रहे थे कि उनका दिया ये एक और ज़ख्म अपनी जगह न बना सका।
उनकी अंत्येष्टि कर मैं निकल गया था इस मकान से, माँ- बा की बुझी आँखे भी न रोक सकी थी मुझे, लफ्ज़ कहने उन्होंने शायद ज़रूरी न समझे थे।
दस साल ! दस साल बाद मैं लौटा हूँ आज, इन दस सालों में मैंने अपने ज़ख्मों की मरहम ढूंढने की कोशिश की बहुत, लेकिन नाकामयाब रहा। हाँ बस एक घर बसाने में ज़रूर सफल हो गया। हाँ घर ! मकान नहीं।
बीवी बच्चों के साथ एक खुशहाल घर है मेरा, लेकिन माँ पापा का स्वार्थ शायद मुझपर भी असर कर गया, भूल गया मैं अपने स्वार्थ में कि मेरे जीवन की दीवारों को थामे रखने में दो हाथ थे, बहुत शिद्दत से थे। भूल गया अपनी भागमभाग भरी जिंदगी में कि कोई था जिसने मेरे लिए अपनी जीवन रूपी घड़ी की सुइयों को बस मुझपर ही रोक द
िया था...
मैं यहाँ लौटा था अपने एक अतीत के निशान खत्म करने और एक अतीत को समेट कर खुद के साथ ले जाने।
दस सालों में लगभग 2 सालों तक माँ- बा से मैं जुड़ा रहा, चिट्ठियों में उनका स्पर्श भी साथ चला आया करता था। धीरे धीरे ये सिलसिला कम हो चला और फिर एक दिन खत्म हो गया। मैं कुछ यूँ अपने जीवन के ताने बाने में उलझा कि कहीं बिसरा दिया उन्हें।
उसके बाद कुछ समय की कमी और कुछ शर्म कि इतने बरस कहाँ रहा मैं, उनसे चाहकर भी जुड़ न सका। लेकिन चंद दिनों पहले जब ब्रोकर का फ़ोन आया कि मकान बिक गया है तो मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हो गया और फिर निधि ने भी सच जानकर मुझे उन्हें वापिस ले आने को कहा। बस मैं निकल पड़ा अपना अतीत समटने।
यहाँ लौटा हूँ मैं लेकिन अब माँ- बा को ढूँढना आसान नहीं। जब आखिरी बार हमारी बात हुई तब वे एक दूसरे शहर में चली गई थी। गगन की पढ़ाई के लिए उन्हें जाना पड़ा। मैं अब सोचता हूँ, क्यों नहीं मैं समझ पाया कि उनकी ज़रूरतें थीं कुछ, पापा ने और कुछ किया या न किया लेकिन अपने होते माँ- बा को कोई कमी नहीं होने दी लेकिन इतना तो शायद था नहीं उनके पास कि वो गुज़ारा कर पातीं।
गगन के पापा तो कबके इस दुनिया को विदा कह गए थे।
आज खुद पर अफसोस होता है मुझे, क्यों नहीं मैं उन चिट्ठियों में छुपे माँ- बा के उन अनकहे ज़ज़्बातों को समझ सका ! कैसे मैं उनसे इस तरह बेपरवाह हो गया।
कई दिनों के प्रयासों और कुछ पुराने लोगों की मदद से मैं माँ- बा के नए पते तक पहुँचा था।
" कौन वो पगली ?"
माँ- बा के बारे में पूछने पर यही जवाब मिला था मुझे उस नई जगह पर।
मैं हक्का बक्का सा उन आंटी का चेहरा देख रहा था जब उनके पति बाहर निकल कर आए।
" बेटा, पूछो मत बस। बहुत बुरा हुआ उन बेचारी के साथ।"
मैं अब भी उनका मुँह ताक रहा था।
"उनका बेटा, क्या नाम था उसका? हाँ ! गगन, बहुत मेहनत से उसे पढ़ाया था उन्होंने, नौकरी भी अच्छी जगह लग गई थी। बहुत खुश थीं वो उस दिन। मिठाई बाँटती फिरी थीं सब जगह। लेकिन ! उस बेटे ने ही कहीं का न छोड़ा उन्हें। शादी के बाद बुरा बर्ताव किया उनके साथ। वो बेचारी बस इसी आस में कि एक दिन बेटा उनकी भी सुनेगा, चुप ही रह जातीं और बेटे ने उन्हें बीच सड़क पर छोड़ने में एक पल भी न लगाया। सब कुछ बेच बाचकर चला गया, और उन्हें छोड़ गया पीछे। बेटा, अपने बेटे के ग़म में उनकी मानसिक हालात बिगड़ गई। हम सबने बहुत कोशिश की लेकिन हम कुछ कर न सके उनके लिए। अब वो यहाँ की गलियों में घूमा करती हैं, न जाने किस राजे का नाम लेती हैं, उनकी आँखें अब बस उसे ही ढूँढा करती हैं।"
उनके शब्द सुनकर मैं खड़ा न रह सका। आँखों से आँसू झर रहे थे और मन में बस यही गूँज रहा था," उस बेटे ने उन्हें कहीं का न छोड़ा।"
मैं भी तो उनका 'बेटा' ही था।
बनारस के एक घाट पर 'मुक्ति' पाते लोगों की भीड़ लगी है। कोना कोना जल चुके शरीरों के साथ जल चुके दम्भो, इच्छाओं व मोह की ओर भी इंगित कर रहा है। सब ओर इस शरीर से जुड़े मोह के परिणाम देखने को मिल रहे हैं। चारो ओर बिछड़ चुके अपनो का शोरगुल, रोना, चीत्कार ! क्या हैं ये लोग? क्यों नहीं समझते कि जो जल गया वो बस एक शरीर था। जो बच गई है इनके भीतर कहीं वह आत्मा है, अजर, अमर ! वो कहीं नहीं जाएगी। यहीं है तुम्हारे पास, तुममें ही कहीं, बस झाँकने भर की देर है।
सब जानते हुए भी न जाने क्यों इस चिता को अग्नि देते हाथ काँप रहे हैं मेरे। कपाल क्रिया करने के लिए कदमों को बढ़ा नहीं पा रहा हूँ। जानता हूँ, नहीं बाकी है अब जीवन का निशान कहीं इस शरीर में लेकिन न जाने क्यों लग रहा है कि अभी उठ बैठेंगी ! क्यों लग रहा है कि कोई गुनाह करने जा रहा हूँ ?
मोह, मोह क्या है? वो वादे जो अधूरे रह गए, उसकी तपिश। जो मिल गया उसका काहे का मोह, जो न कर सका मैं बस उसकी नाराज़गी खा रही है मुझे।
उन आँखों में कितना इंतेज़ार था। कितना कुछ चाहा होगा उन्होंने मरने से पहले।।।
पंडित के कहने से क्रिया आखिर कर ही दी है मैंने, जा चुकी हैं वो, परिंदा उड़ चुका है अपने ठिकाने की ओर, पीछे रह गई है बस कुछ राख और उनकी खुशबू और बाकी रह गए हैं उनके कुछ निशां मेरी इन हथेलियों पर उनके स्पर्श के रूप में।
हारा सा मैं बैठ गया हूँ घाट किनारे और पहुँच गया हूँ दो दिन पहले की उन स्मृतियों में जब माँ- बा मेरी आँखों के सामने थीं। विक्षिप्त सी हालात में उन्हें देख मैं यकीन नहीं कर पा रहा था कि ये मेरी माँ-बा ही हैं लेकिन उन्हें यकीन हो गया था कि ये मैं ही हूँ। अपनी उन झुर्री भरी हथेलियों से मेरा चेहरा जकड़ लिया था उन्होंने और मैं बस उनके स्पर्श में पिघलकर ही रह गया था।
मुझे प्यार करते करते, मेरे बालों में हाथ फेरते फेरते ही उन्होंने अंतिम सांसे ली थीं, शायद उन्हें बस राजे का इंतज़ार था। उनकी आँखें अब सूनी थी, उसमें अब इंतज़ार भी नहीं था।