Sri Sri Mishra

Action

4.5  

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लूडो और जिंदगी

लूडो और जिंदगी

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आज के विषय ने बचपन की कुछ यादों की परतों को खोल कर रख दिया......।

मुझे याद है ..जब हम सब इकट्ठे होकर बैठकर लूडो या कैरम खेलते थे....।

बिना लड़ाई के खेल खत्म ही नहीं होता था...

हम सब चारों भाई बहन एक साथ बैठकर जब भी खेलने बैठते थे..। कभी-कभी पापा मम्मी भी खेलते थे साथ में..।

हंँसी खुशी शैतानियों के वह दिन आज भी मुझे बखूबी अच्छी तरह याद हैं.. क्या समय होता था ...सबके लिए सबके पास समय होता था.....।

घंटों ना जाने कितनी देर तक हम लोग इसी में ही हंसी मस्ती करते रहते थे... खेल खेल में मौका पड़ने पर चीटिंग भी कर लेते थे ....जीत की चाह किसे नहीं होती..।

मेरा पसंदीदा रंग हमेशा हरी गोटी पर ही रहता था...।

मैं पालथी जमा कर हरे वाले घर की ओर बैठ जाती थी...। जब तक खेल को अंजाम न दे दूंँ..।

जीत जाती तो खुश...

हार गई तो सारा दिन मूड खराब..

मुझे ऐसा लगता था कि मैं हरी गोटी लूंँगी तो मैं जीत जाऊंँगी और मेरी नजर सबकी चालों पर रहती थी ।

अक्सर ऐसा होता था कि सबका सिक्स खुल जाता था.. और आधी से ज्यादा गोटियाँ जीत के घर में हो जाती थी... और मेरा सिक्स खुलता ही नहीं था...

तब मैं चीटिंग की सोचने लगती....

लेकिन पकड़ जाती थी.....

एक बार तो ऐसा हुआ इस हार जीत के खेल में पूरा लूडो ही फाड़ दिया गया....।

इसी तरह कैरम में भी हम लोग खेलते थे ...जो कोई भी हारता... उसी कैरम बोर्ड पर चढ़कर खूब लड़ाई कर लेते थे ...लेकिन दूसरे पल फिर उसी हंँसी मस्ती उत्साह के साथ खेलने को तैयार रहते थे...।

घर में पूरा बवाल मचा रहता था...खेल की हार जीत को लेकर...। हर वक्त एक दूसरे को चिढ़ाते... लेकिन एक दूसरे के बगैर रह नहीं पाते थे ..।

यह वह समय था ...जब हाथों में मोबाइल नहीं थे ..।

सिर्फ खेलने के लिए एक दूसरे के साथ की बहुत जरूरत होती थी...।

आज जब उस समय को याद करती हूंँ तो बहुत आश्चर्यचकित भी होती हूंँ...!!!

क्योंकि आज के समय में इस मोबाइल बढ़ती तकनीकियों ने बस एक कमरे में सब को समेट कर रख दिया है...

मेरे खुद के बच्चे अब मोबाइल पर लूडो खेलते हैं ..उनके सारे फ्रेंड्स उसी में ज्वाइन होकर घंटों खेला करते हैं ..

इस पर आंँखों पर भी असर पड़ रहा है । ज्यादा देर स्क्रीन देखना भी नुकसानदेह होता है.. बदलते समय के परिवेश में सब कुछ बदल कर रख दिया है....।

शायद परिवर्तन ही जीवन का नियम है..इस परिवर्तन शील युग में जब सब बदल रहा है... तो उसके परिणाम भी बदल रहे हैं... इस पर हमारा कोई बस भी नहीं है.....।

दिल में भावनाओं की तिजोंरियाँ कुछ ऐसी होती...

इस खेल में हार कर दिलों को जीतने की आस होती..

खुल जाता है जब भाग्य का पाँसे का छक्का.....

इस भरी दुनिया में मिसाल दिखते कुछ इक्का-दुक्का.

हम जैसे लोग दिलों को जीतने में करते विश्वास..

नहीं खेल पाते हार जीत की आंँख में मिचोली में..

जीते यारों की यारी के सदके दुआ यही रहें हम उनकी टोली में..

जिंदगी-ए-किस्मत बिछी है कुछ ऐसी बिसात पर

कर्म की गोटियांँ चलती हैं अपने पाँसे फेंक कर

हर कोई बढ़ा है जीत की चाह और बुलंदी पाने को

चले जाते हैं अपनों के दिल को अनदेखा करके कुचलकर।


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