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Arun Gode

Inspirational

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Arun Gode

Inspirational

लंगोटी यार.

लंगोटी यार.

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एक छोटे से कसबे में दो परिवार कुछ ही अंतर पर रहते थे। उन परिवारों में बड़े भाई-बहनों के अलवा उनके हमउम्र वाले छोटे भाई थे। वो दोनों बचपन से गहरे दोस्त थे। अकसर दोनों मिल के खेलने-कूदने, घूमते और स्कूल में साथ-साथ रहते और जाते थे। दोनों ने एक साथ प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करी थी। दोनों माध्यमिक पाठशाला में दूसरे स्कूल में जाने के लिए बहुत उत्साहित थे। उसी साल अरुण के बड़े भाई की शादी होनेवाली थी। दोनों ने शादी में बहुत दौड़ -दौड़ के काम किया था। सभी उनके काम और दोस्ती के गुण-गाण गाते-गाते थकते नहीं थे। दोनों बहुत खुश थे। लेकिन अरुण के घरवालों ने एक अहम फैसला की था क्योंकि अरुण ज्यादातर समय पढ़ाई की जगह खेलने –कूदने में जाया करता था। उसे पढ़ने की लगन और आदत डालने के लिए आगे के पढ़ाई के लिए भैया-भाभी के साथ दूसरे शहर में जाना था। अरुण इस फैसले से बहुत नाराज और दुःखी हुआ था। लेकिन वह कुछ भी नहीं कर सकता था। उसे अपने दोस्त को छोड़ के जाना ही था। यह खबर उसने बड़े भारी मन से अपने लंगोटी मित्र गुणवंता को सुनाई थी। यह सुनकर उसके सर पर आसमान टूट पड़ा था। दोनों के लिए ये बहुत मुश्किल की घड़ी थी। लेकिन वे दोनों भी लाचार थे। अरुण ने बड़े भारी मन से अपना दाखिला दूसरे शहर में किया था। अभी अरुण और गुणवंता की जोड़ी टूट चुकी थी। दोनों परिस्थितियों का सामना करते-करते, धीरे-धीर अपने आप को उस परिस्थिति में ढाल ने का प्रयास कर रहे थे। अभी दोनों के नये स्कूल में धीरे-धीरे नये दोस्त बन रहे थे। लेकिन उन नये दोस्तों में वो बात नहीं थी, जो उन दोनों में थी। मजबूरी का नाम महात्मा गांधी !

      जब कभी अरुण के भैया-भाभी उसे बताते कि वे सभी त्योहार मनाने के लिए उनके अपने गांव जा रहे हैं। उस वक्त अरुण खुशी की आसमान चूम लेता था। जैसे ही वह अपने गांव चले जाता था। तुरंत बाद अपने मित्र को मिलने चले जाता था। दोनों बहुत खुश होते थे। जब तक अरुण वहाँ रहता था। वो दोनों बहुत खेला-कुदा, घूमना, बातें किया करते थे। जैसे ही अरुण अपने जाने की खबर उसे देता था। तभी उन दोनों के पैरों तले की ज़मीन खिसक जाती थी। दोनों फिर एक –दूसरे का साहस बढ़ाते हुये अगली मुलाकात जल्दी ही होगी इस उम्मीद के साथ दिखावटी खुशी चेहरे पर लाकर विदा हो जाते थे। लेकिन हकीकत में वो मन से दुःखी हो जाते थे। ये सिलसिला अगले दो साल तक चलाता रहा था।

       अचानक अरुण के भैया का तबादला किसी अन्य शहर में हो जाता हैं। अभी उसे उस नये शहर में जाना था। लेकिन वह अपने मात-पिता से जिद्द करता कि अभी वो अपने ही गांव में पढ़ना चाहता हैं। अभी वो सुधर चुका हैं। वो अपने माता-पिता को आश्वस्त करता हैं कि वो रोजाना पढ़ाई करेगा ! उसके माता-पिता, भैया-भाभी और अन्य बड़े भाई-बहन उसके इस प्रस्ताव पर सहमत हुये थे। जब उसकी बात मान ली गई थी, तभी वो ये शुभ समाचार देने तुरंत अपने मित्र के पास गया था। ये समाचार सुनकर दोनों को गणनचुंबी आनंद हुआ था। दूसरे ही दिन उसका दोस्त जिस स्कूल में पढ़ता था। उसी स्कूल का आवेदन पत्र दोनों मिल के लाने गये थे। दाखिला लेने की प्रक्रिया पुरी होने पर उसे उसी स्कूल में प्रवेश मिल चुका था। लेकिन दोनों मित्रों की कक्षायें अलग-अलग थी। दोनों एकसाथ स्कूल आय-जाया करते थे। अवकाश और कोई संधी मिलने पर वो जरूर एक साथ समय बिताते थे। अभी उन दोनों के स्कूल में काफी मित्र बन चुके थे। लेकिन स्कूल में वे अकसर साथ-साथ ही रहते थे। अगले साल उन्होंने प्रयास करके दोनों एक ही कक्षा में आ गये थे। अभी वो दोनों और श्रीकांत तीनों कक्षा में एक ही मेज पर बैठा करते थे। अभी उन दोनों के साथ श्रीकांत भी अकसर रहा करता था। श्रीकांत पढ़ाई में साधारण था। लेकिन अरुण गणित और सायस में बहुत अच्छा पढ़ता था। गुणवंता गणित में थोड़ा कमजोर था। तीनों ने अपनी शालांत परीक्षा अच्छे अंको के साथ उत्तीर्ण कर ली थी। अभी उन्हें बारहवीं की परीक्षा देकर भविष्य में डॉकटर, इंजीनियर बनना था। नया अभ्याक्रम शुरु होने के कारण स्कूल में अच्छे अध्यापकों की कमी थी। इस बात से मायूस होकर अरुण ने अंतिम वर्ष में जिला स्तर के कनिष्ठ महाविद्यालय में जाने का मन बना लिया था। उसका दोस्त भी उसके विचारों से सहमत था। लेकिन परिवार वाले इस बात के लिए सहमत नहीं थे। अंत में अरुण ने जिला स्तर के कनिष्ठ महाविद्यालय में प्रवेश लिया था।  

       वहाँ पढ़ाई तो अच्छी हो रही थी, लेकिन अतिरिक्त पढ़ाई करने के लिए समय नहीं मिल रहा था क्योंकि अरुण का ज्यादा तर समय अपने गांव से कॉलेज में रोजाना आन-जाना करने में बर्बाद हो रहा था। अतिरिक्त परिश्रम और समय पर भोजन न मिलने के कारण उसका स्वास्थ्य दिनों दिन ढल रहा था। इसके परिणाम स्वरूप वो अकसर बीमार पड़ने लगा था। वो अपने पढ़ाई पर एकाग्रता नहीं बना पा रहा था। वो दुविधा में पड़ गया था कि बारहवीं की परीक्षा में बैठे या ना ?। आखिर में उसने परीक्षा, उसी खस्ता हालत में देने का निर्णय लिया था। लेकिन अरुण का स्वास्थ्य अभी काफी बिगड़ चुका था। उसे बड़े अस्पताल में भर्ती किया गया था। वहाँ उसका काफी लंबा इलाज चला था। इलाज के बाद अस्पताल से छुट्टी मिलने पर वरिष्ठ डॉक्टर ने उसे और परिवार को समझाया था कि अभी उसे बहुत ज्यादा परिश्रम लेने से बचना चाहिए। उसे अपने स्वास्थ्य का काफी ध्यान रखना चाहिए। द्वाईयां लेने में लापरवाई नहीं होनी चाहिए। वो और उसके मित्रों ने बारवीं बोर्ड की परिक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। लेकिन अरुण को इंजिनिअरिंग में प्रवेश नहीं मिला था। गुणवंता गणित और सांयस में कुछ ज्यादा अच्छा नहीं कर पाया था। इसलिए अरुण ने सायंस में गणित लेकर स्नातक की पदवी प्राप्त की थी। बाद में उसने उसी में स्नातकोतर की भी पदवी हासिल की थी। उसके मित्र ने जीवविज्ञान में स्नातक की पदवी ली और श्रीकांत कुछ अन्य कोर्सेस में व्यस्त हो गया था।

    तीनों के अभी मार्ग लग-भग बदल चुके थे। लेकिन उनकी दोस्ती अभी भी कायम थी। उसमें कोई कमी नहीं आई थी। अरुण को स्नातकोतर के बाद केंद्र सरकार में नौकरी मिल चुकी थी। उसकी तैनाती परप्रांत में हुई थी। इसलिए उसके माता-पिता ने उसकी शादी करवाई थी। लड़की को देखने वो, गुणवंता और उसका बड़ा भाई गया था। शादी में वो और उसके सभी मित्रों ने काफी समय एक साथ बिताया था। उसके बाद अरुण का उनसे मिलन-जुलना नहीं के बराबर था। अभी अरुण का भी अपने गांव मात-पिता के गुजरने बाद आना-जाना कम हुआ था। इस बीच उसके दोनों मित्रों के भी अच्छे दिन थोड़े देर से आ गये थे। लेकिन किसी को किसी कोई खबर नहीं थी। तीनों के रास्ते बदल चुके थे। सभी की शादियाँ आगे-पीछे हो गई थी। अरुण की पत्नी गृहिणी थी। लेकिन गुणवंता और श्रीकांत की पत्नियाँ शिक्षिकाएं थी। सभी अपनी-अपनी जिंदगी के भाग-दौड़ में व्यस्त थे। जब कभी फुर्सत के पल मिलते थे। तब अपनी पुरानी बीती जिंदगी को याद करते तो वो सभी अपने लंगोटी मित्रों को पल भर के लिए याद करते थे। लेकिन किसी को किसी का सुराग न होने के कारण हाथ पर हाथ धर के रह जाते थे। लेकिन दोस्ती का एहसास अपनापन और गिलापन अभी भी दिल के अंदर मरा नहीं था। अभी काफी लंबा अरसा बीत चुका था। सभी के बच्चे पढ़ -लिख कर अपन-अपना कॅरीअर बना चुके थे, या बनाने के सीमा पर खड़े थे। अभी वे सभी सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके थे। अनजाने में उन तीनों ने अपना बसेरा संत्रा नगरी में बसा लिया था।

   अचानक एक दिन गुणवंता और श्रीकांत की मुलाकात एक मॉल में हो जाती हैं। दोनों एक दूसरे को पहचान लेते हैं। लंबे अरसे के बाद वे एक-दूसरे के गले लगते हैं। आनंद के अश्रु आँखों से टपकते हैं। आँसुओं को संभालते हुये वो दोनों अपनी-अपनी खैरियत नहीं पुछते। वे सीधा सवाल एक दूसरे से करते हैं कि तुझे कोई जानकारी अरुण के बारे में हैं क्या ? लेकिन दोनों इस मामले में पैदल थे। लेकिन अभी उनकी उम्मीद बंध गई थी कि जैसे वो दोनों मिले हैं, वैसे ही अरुण भी मिलेगा ! उनका मिलन-जुलना और संवाद करना शुरु हो चुका था।

      अचानक गुणवंता एक दिन अपने जन्मगांव अपने बड़े भाई के घर जाता हैं। दूसरे दिन उसके बड़े भाई का मित्र आता हैं। इसे देखकर वो उससे सामान्य बातें करने में जुट जाता हैं। अचानक वो अरुण के बारे में पुछता हैं। तो गुणवंता उसे बता हैं कि मेरी उसके शादी के बाद कोई मुलाकात नहीं हुई हैं। वो उसा बताता हैं कि उसका मित्र अरुण भी संत्रा नगरी में ही रहता हैं। वो उसे उसका मोबाइल नंबर देता हैं । गुणवंता को बहुत खुशी होती हैं कि अभी तो उसे हम ढूंढ ही लेंगे ! ये खबर वह नागपुर जाने पर अपने मित्र श्रीकांत को देता हैं। तो खुशी के मारे थोड़ा भी सब्र न रखते हुये उसे फोन लगाते हैं। लेकिन अरुण अनजान नंबर देखकर उसे अनदेखा करता हैं। फिर से घंटी बजती हैं। तब तक अरुण के दिल में भी कुछ हलचल शुरु हो जाती हैं। उसका दिल उसे फोन उठाने के लिए विवश करता हैं। फिर वह फोने उठाता है। अचानक एक जानी –पहचानी अपनापन वाली आवाज कान में सुनाई पडती हैं। सामने से वो कहता हैं, हैलो अरुण मैं गुणवंता बोल रहा हूं। अरुण एकदम से चौक जाता हैं। उसे यकीन नहीं होता। उनकी आपस में काफी वार्तालप होता हैं। श्रीकांत और गुणवंता उसे मिलने आने का वादा करते हैं। अभी अरुण उसके पुराने मित्र मिल जाने से काफी खुश था। वे दोनों वादेनुसार उसके घर मिलने आते हैं। पुराने लंगोटी मित्रों का पुनरमिलन होता हैं। वह एक उनके लिए किसी ऐतिहासिक अद्भुत नजारे से कुछ कम नहीं था। अरुण कुछ माह बाद सेवानिवृत्त होनेवाला था। उसने और श्रीमती ने उन दोनों मित्रों को अपने परिवार के साथ रिटायरमेंट पार्टी में आने का न्योता देते हैं। दोनों मित्र अपने उनके परिवार के साथ आते हैं। रिटायरमेंट पार्टी में सभी एक-दूसरे के परिचय होता हैं। उनका आपस में मिलने-जुलने का सिलसिला अभी शुरु होता हैं।

   तीनों अभी आजाद पंछी बन चुके थे। तीनों के दिमाग में एक खयाल गुंज रहा था कि वे अपने पुराने वर्गमित्रों को एकत्र करके बची जिंदगी में एक-दूसरे के हितैषी बनेंगे !। एक दिन वे तीनों अपने जन्म गांव जाते हैं। वहाँ उनके कुछ वर्ग मित्र बस चुके थे। उन्होंने अपना जन्म गांव नहीं छोडा था। खोज-बिन करने पर एक-एक दोस्त मिल रहा था। और कारवां बनता गया था। मित्रों को इकट्ठा क रने का अभियान संपन्न होने पर वो सभी यार पुराने मिलने के स्थान पर एकत्र हुये थे। हमें देखकर सभी भावुक हो चुके थे। उनके चेहरे पर एक प्रकार की प्रसन्नता की लाट आ चुकी थी। सभी अपने पुराने यादों को याद करके एक-दूसरे के साथ साझा कर रहे थे। तभी एक मित्र ने कहाँ काश एक बार सभी मित्र इकट्ठे हो जाए तो कितना अच्छा होगा !। सभी ने उसके विचार को तहे दिल से समर्थन किया था। उस दिशा में कुछ करने का सोचा था। दूसरे दिन हम सभी मित्र मिलकर अपने पुराने स्कूल गये थे। प्राचार्य से मुलाकात की थी। उन्हें हमारे विचारों से अवगत कराया था। चालिस साल बाद ये सभी अपने पुराने मित्रों का वर्गमित्र पुनरमिलन कार्यक्रम करना चाहते थे। इस कल्पना से प्राचार्य बहुत उत्साहित हुये थे। उन्होंने किसी भी अवकाश के दिन स्कूल देने का वादा उनके साथ किया था। प्रयास करके हम सभी ने सभी पुरानेमित्रों को खोज निकाला था। सभी को इस कार्यक्रम में आने का न्योता दिया था। सभी मित्र उस कार्यक्रम में आये थे। जो सहेलियां उस दौर में किसी भी मित्र से बात करने में संकोच करती थी। वे सभी सहेलियां सभी मित्रों से ऐसे खुलकर बातें कर रही थी कि मानो उनका किसी वक्त आपस में काफी गहरा रिश्ता रहा होगा !।

       इस कार्यक्रम में हमारे समय के सभी जीवित शिक्षकों को भी आदर –सम्मान के साथ बुलाया गया था। उनका परंपरागत रिवाज से सम्मान किया गया था। उन सभी ने हमारे सामूहिक इकसठवीं की प्रशंसा की और हमें उर्वरित जीवन सुखामय, आनंदमय हो इसका दिल से आशीर्वाद दिया था। प्राचार्य ने ऐसे अनोखे कार्यक्रम को आयोजित करने के लिए हमें धन्यवाद भी दिया था। उनका कहना था कि जीवन में आप सभी जो आज हैं उसके लिए जितने आपके गुरुजन। परिवार वालों का योगदान हैं ,उतना ही योगदान प्रत्येक्ष या अप्रत्येक्ष रुप से आपके मित्रों का भी हैं। इसलिए उनका इस पड़ाव पर मिलना और पुरानी दोस्ती को पुनर्जीवित करना ये सब सभी के हित में हैं। आप अपनी मित्रता ऐसे ही अंतिम सांस तक कायम रखने में सफल होंगे ऐसी मुझे उम्मीद हैं। प्राचार्य के विचारों का समर्थन करते हुये कुछ मित्रों ने हर साल इस कार्यक्रम की वर्षगांठ मनाने का संकल्प किया था। कुछ मित्र हर साल इस बाहने मिलते हैं। सभी का एक-दूसरे से संपर्क वाट्स गृप के कारण अभी जिंदा हैं। उम्मीद करते हैं जब तक सांस चल रही हैं। तब तक ये सिलसिला नहीं रुकेगा !।



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