लेखन की कला
लेखन की कला
लेखन की कला ईश्वर का दिया उपहार है जो सबको नसीब नहीं होता, मुझे भी नहीं था। बचपन से अब तक मैंने कभी लिखने की कभी कोशिश ही नहीं की। हर तरह के अपने कर्तव्य निभाती चली गई ।जिम्मेदारियों ने कभी एहसास ही नहीं होने दिया। बैंक से रिटायर हो गई। पति संसार से विदा हो गये मेरे ऊपर सारी जिम्मेदारी छोड़ कर। बच्चे बड़े होकर अपने-अपने परिवार में व्यस्त हो गये। पीछे रह गई मैं अकेली।
सन् 2014 में मैंने अपना शहर छोड़ दिया और नागपुर आकर बस गई।
बहुत सी संस्थाओं में काम किया मन लगाकर ताकि कुछ अच्छे काम कर सकूं। नागपुर आकर विदर्भ हिन्दी साहित्य सम्मेलन से जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां आकर समझ आया कि हम तो कुछ नहीं है, हर इनसान साहित्यकार है वो भी असाधारण। मैं आश्चर्य चकित थी ,ये सब कैसे मेरे अन्दर एक हीन भावना घर कर रही थी। धीरे-धीरे मेरा सम्पर्क कुछ सखियों से ज्यादा बढ़ा और उन्होंने लिखने के लिए प्रेरित किया। लेकिन ये सब आसान नहीं था। विचारों की उपज भी तो होनी चाहिए। क्या लिखूँ, कैसे लिखूँ कुछ समझ नहीं आ रहा था। सखियों की कविताएं सुनकर बहुत खुशी होती थी और विचार भी करती थी उन कविताओं पर। बहुत कोशिश के बावजूद भी नहीं लिख पा रही थी। फिर अध्ययन करने लगी। मन में एक भय भी था कि कहीं मजाक न उड़े।
एक दिन की बात है मैं कार में घर से बाहर जा रही थी, अचानक ही बारिश होने लगी। मैं कार की खिड़की से वर्षा का आनन्द लेने लगी।
तभी जैसे मेरे मन में कुछ कविता के विचार उपजे और मेरा मन कुछ लिखने को मचलने लगे। तभी मैंने अपना मोबाइल निकाला, कागज पेन तो था नहीं रास्ते में, बस वाट्सप पर कविता की सी कुछ पंक्तियाँ लिखने की कोशिश करने लगी बारिश होने के कारण कुछ-कुछ शब्दों का आगमन होने लगा, और कुछ पंक्तियाँ लिखना शुरू किया, जो रूप उस समय धारण किया वो कविता का ये रूप था :-
पत्ता पत्ता लहक रहा है,
पीले पीले फूलों का रंग,
चारों ओर महक रहा है।
हरियाली है छाई प्यारी,
हवा मधुर संगीत सुनाती।
सबको मंत्र मुग्ध है करती,
कैसा सुन्दर रचनाकार।
यही कुछ उलटी -सीधी लाइनें ग्रुप में डाल दी ,जिसका परिणाम मेरे विचारो के विपरीत अच्छा निकला ,काफी सखियों ने मुझे बधाई देकर प्रोत्साहित किया और खुशी भी जाहिर की। तथा आगे लिखने के लिए प्रेरित किया। जिससे मेरे अन्दर लिखने की ललक पैदा हुई । मैं उन तहे दिल से शुक्रिया करती हूँ मुझे प्रोत्साहित करने के लिए।
