बचपन
बचपन
प्रतिस्पर्धा की होड़ में पिसता बचपन
कितना सुहाना और सुमधुर शब्द है बचपन, जैसे अतीत एक चित्रपट की तरह ख्यालों में उतर आया हो।
हम अपने इस कोमल उम्र की यादों में उतर जाते हैं। जब कभी एकांत में बैठकर सोचते हैं तभी ऐसा होता है।
हमारा बचपन कितना सरल और सुन्दर था ।कभी कोई चिंता नहीं थी ।न पढ़ने की, न ही परीक्षा की चिंता थी ।जो भी थोड़ा पढ़ते थे कक्षा में वही परीक्षा दे आते । कक्षा में पढ़ा ही सक्षम होता था ।पास भी हो जाते थे। कभी कोई डाँट फटकार नहीं थी ।किसी से कोई होड़, प्रति होड़ भी नहीं थी।
आज का दौर अजब -गजब है, एक दूसरे से आगे निकलने की प्रबल होड़ लगी है माता-पिता में। अपनी इच्छा को बच्चों पर थोपने की कोशिश करते हैं, चाहे बच्चा कैसा भी हो। सबको डाक्टर, इन्जीनियर और वकील बना कर विदेश भेजना है।
ये प्रबल इच्छा मन में जाग्रत हो गई है। जिससे बचपन पिसता नज़र आ रहा है। बच्चे अपना बचपन कोमलता से जी ही नहीं पाते हैं। दूसरी तरफ मोबाइल ने अपना प्रभुत्व जमा लिया है। वो बच्चों को खेलने भी नहीं देता है। माँ-बाप अपनी नौकरी में व्यस्त रहते हैं और बच्चे नौकर के सहारे अपना बचपन गुजारते हैं। नौकर के सहारे कैसा बचपन बीत रहा है ये हम सब भली भांति जानते हैं।
दादी - बाबा को साथ नहीं रखते हैं, जिसकी वजह से बच्चे अपने संस्कारों से विक्षिप्त हो रहे है ।
इस ओर ध्यान देना अति आवश्यक है, बच्चों को पढ़ाई के साथ संस्कार भी देना आवश्यक है। जो अनुभव दादी-बाबा दे सकते हैं वो बाकी सब नहीं दे सकते हैं।
अब वो समय फिर लाना होगा जब हम अपने बच्चों में पढ़ाई के साथ-साथ संस्कार भी देना आवश्यक हो गया है।
बच्चों को अपना बचपन भी जीने दो।
कुछ पंक्तियाँ:-
बचपन के दिन भी क्या दिन थे
उड़ते फिरते तितली बन।
कि बचपन।
