कवि हरि शंकर गोयल

Comedy

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कवि हरि शंकर गोयल

Comedy

लेखक होने का दुख

लेखक होने का दुख

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लेखक होना आसान नहीं होता है । जब वह कोई रचना लिखता है तो वह पहले कथानक तैयार करता है । पात्र गढ़ता है । पात्रों में जीता मरता है । अपनी संवेदनाएं भरता है । खुशियों की बरसात करता है । दुखों की गंगा बहाता है और अंत में वह अपना मंतव्य प्रकट करता है । तब जाकर कोई रचना तैयार होती है । फिर कोई प्रकाशक ढूंढता है । जब रचना छपकर तैयार हो जाती है तो वह पाठकों के हाथ में आती है । फिर पाठक उसे या तो कचरे के डिब्बे में डाल देता है या सिर आंखों पर बिठा लेता है । 


लेखक की स्थिति एक गृहिणी की तरह होती है जो दिन में नाश्ता , दो बार खाना और बीच बीच में चाय , स्नैक्स , शेक वगैरह बड़े मनोयोग से बनाती‌ है और बड़ी उम्मीदों के साथ उन्हें डाइनिंग टेबल पर सजाती है कि समस्त घरवाले उन्हें खाकर उनकी प्रशंसा करें । अब यह उसकी मेहनत, बुद्धिमानी, व्यवहार या तकदीर होती है कि वह या तो प्रशंसा पाती है या फिर डांट खाती है । दोनों ही स्थिति में उसका चेहरा देखने योग्य होता है।


कुछ पाठक एक ऐसी सास की तरह होते हैं जो कभी भी बहू की प्रशंसा नहीं करती बल्कि हमेशा मीन मेख निकालती रहतीं हैं। यहां तक कि यदि खाना बहुत अच्छा बना है तब भी "नमक थोड़ा ज्यादा पड़ गया है" कहकर सब गुड़ गोबर कर देती है । कभी कहती हैं " मीठा कम डाला है । पर बेचारी का क्या दोष । मैके में कौन सी बोरी भरी थी चीनी की । घर में जितनी होगी उतनी ही डालने की आदत पड़ गई । मैंने कितनी बार कहा है बहू को कि बेटा यहां पर चीनी की कोई कमी नहीं है , बोरियां भरी पड़ी हैं , खूब काम में लो । पर मैके की लत छूटती थोड़ी है और रही सही कसर इसकी मां पूरी कर देती है । हरदम मोबाइल पर लगी रहती है , महतारी से । पता नहीं इतनी कितनी बातें करतीं हैं " । बेचारी बहू । सिर पकड़ कर बैठ जाती है । भगवान बचाए ऐसी सास से और लेखक कहता है ऐसे पाठको से । 


कुछ पाठक उस समझदार सास की तरह होते हैं जो बहू की मेहनत , उसकी विद्वता , उसके आचरण से बहुत प्रसन्न हैं । किसी दिन अगर खाना उतना श्रेष्ठ नहीं बना जितना बनना चाहिए था तो वह मीन-मेख नहीं निकालती । मगर उसमें वह अच्छाई ढूंढ ही लेती है और सार्वजनिक तौर पर उसकी प्रशंसा करती है । सलाह के रूप कमियों को इंगित करती है । ऐसे सुधी पाठक और ऐसी समझदार सासों की सबसे ज्यादा कद्र होती है ।


आज पार्क में टहलते टहलते मैं यही सोच रहा था कि हमारे घुटन्ना मित्र हंसमुख लाल जी मिल गए । बहुत दुखी लग रहे थे । हमने पूछा कि हंसमुख लाल मुरझाया हुआ क्यों ? वे बोले

" भाईसाहब , हमारे पडौसी सुखीराम "दुखी" हैं ना " 

हम नाम सुनकर चौंके । पूछा , " ये कैसा नाम है" ? 

वे बोले , " नाम तो उनका सुखीराम है। मगर वे लेखक है ना इसलिए लेखकों का एक उपनाम भी होता है इसलिए उन्होंने अपना उपनाम " दुखी" रख लिया" ।

हमने फिर पूछा " दुनिया में एक से बढ़कर एक सुंदर नाम हैं , वही रख लेते । दुखी काहे रखा " 

"भाईसाहब, जब सुखीराम जी पैदा हुए थे तब उनके पिताजी ने सोचा कि ये बेटा सुख ही सुख लेकर आयेगा । मगर विधि की रचना निराली है ।

मैंने उन्हें बीच में टोकते हुए कहा , " एक मिनट हंसमुख लाल जी। विधि भाभी की बेटियों का नाम तो विभा और सुधा है फिर ये रचना और निराली कहां से आईं " 

हमारे प्रश्न पर हंसमुख लाल जी खिलखिला कर हंस पड़े । पेट पकड़कर हंसते रहे । बोले

" भाईसाहब, पता नहीं आपको अफसर किसने बना दिया ? अरे, मैं विधाता की बात कर रहा हूं । उसकी लीला ही अलग है । हां, तो मैं कह रहा था कि सुखीराम जी के पिताजी ने बड़ी उम्मीदों के साथ इनका पालन पोषण किया । मगर उन पर दुखों का पहाड़ टूटता रहा। जीवन में मिले दुखों को देखकर उन्होंने अपना नाम सुखीराम से दुखीराम रखना चाहा । मगर आप जैसे लोगों ने यह कहकर रोक लिया कि " जिन्होंने यह नाम रखा , वे अब इस दुनिया में नहीं हैं। अतः भारतीय परंपरा के अनुसार पुरखों की विरासत में परिवर्तन का अधिकार वंशजों को नहीं है। इसलिए उन्होंने अपना नाम तो परिवर्तित नहीं किया पर लेखक होने के नाते एक उपनाम रख लिया "दुखी" और इस उपनाम से वे अपने भाव प्रकट करते रहते हैं" । 


मैं श्री सुखीराम जी "दुखी" से बहुत प्रभावित हुआ। हंसमुख लाल जी ने आगे बताया " कल उनके साथ एक बड़ा हादसा हो गया। उनकी पत्नी और हमारी भाभीजी 'रूपवती' उनको छोड़कर गली का एक बदमाश "छन्नू भाई छैना" के साथ भाग गई । 

मैंने फिर बीच में टोका " ये रूपवती भाभी तो वहीं हैं ना जब जवानी में सुखीराम जी अपने घर में ग़ज़ल पढ़ते थे तो ये भाभीजी जो पड़ोस में रहतीं थीं खुद को रोक नहीं पातीं थीं और हवाओं के पंख लगाकर उड़कर आ जाती थी "? हमने अपना ज्ञान बघारा ।

"हां , हां, भाईसाहब। आप सही कह रहे हैं। उन दिनों में रूपवती भाभी सुखीराम जी की गजलों की इतनी दीवानी थीं कि वे जहां भी ग़ज़ल गाने जाते थे, भाभी जरूर जातीं । इसी कारण दोनों की शादी हो गई। अब कहतीं है कि ग़ज़लों से कोई पेट भरता है क्या ? गीतों से कोई मेकअप होता है क्या ? कविताओं को पहन सकते हैं क्या? कहानियों को ओढ बिछा सकते हैं क्या ? संस्मरणों से गहने तो नहीं बन सकते हैं ना ? समीक्षाओं से कोई मूवी तो नहीं देखी जा सकती है ना ? दोहा, मुक्तकों से आटा दाल तो नहीं खरीद सकते हैं ना । उस "छन्नू भाई छैना" को देखो । "आॉडी" में घूमता है। इलाके के सब लोग थर थर कांपते हैं। थानेदार खुद सैल्यूट करता है उसे। रूपवती भाभी कहती थीं कि जब वो सुखीराम की बीबी थी तो सब लोग उसके साथ मसखरी करते और भाभी भाभी करते रहते थे क्योंकि गरीब की जोरू सबकी भाभी । मगर अब किसी की मजाल कि कुछ कह जायें उनको । बल्कि उनके लिए दूर से ही रास्ता छोड़ देते हैं।" 


हमने कहा " सुखीराम जी दुखी इतने अच्छे लेखक हैं , उनको तो भारतीय साहित्य का "ज्ञानपीठ पुरस्कार" मिलना चाहिए। 

हंसमुख लाल जी फिर पेट पकड़कर हंसते हुए बोले " आजकल पुरुस्कार विद्वता से मिलता है क्या ? हमने कहा था कि इस देश के "खानदानी चिराग" की जीवनी लिख दो , फिर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनवा देंगे और ज्ञानपीठ पुरस्कार दिलवा देंगे। मगर कहते हैं कि हम सिद्धांतों से समझौता नहीं करेंगे। अब भूखे सड़ते रहो। पता नहीं कौन से सिद्धांतों की बात करते हैं ये‌। हम तो एक ही सिद्धांत जानते हैं जो "पैसे का सिद्धांत है" । आप देख ही रहे हो , माशाअल्लाह, क्या मौज मस्ती चल रही है इस कोरोना संकट काल में भी " ।


मुझे हंसमुख लाल जी की बातों ने सोचने को मजबूर कर दिया कि लेखक के दुखों का कोई वारापार नहीं है । ये तो लेखक की ही महानता है कि वह अपने दुखों को ताक पर रखकर औरों के दुख को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति करता है । मगर बहुत सारे स्वार्थी लोग जो पेशे से व्यापारी हैं , इस साहित्य के पवित्र क्षीरसागर में घुस गए और उन्होंने ऐसी गंद फैलाई कि अब सब जगह कीचड़ ही कीचड़ नजर आती है । सुखीराम "दुखी" के जैसे कितने साहित्यकार हैं जो आज भी सिद्धांतो पर चल रहे हैं चाहे इन सिद्धान्तों ने उन्हें कुछ नहीं दिया हो । ऐसे लेखकों को देखकर मेरा मस्तक उनकी श्रद्धा में स्वत: झुक जाता है ।




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