क्या चाहती हो तुम ज़िन्दगी?
क्या चाहती हो तुम ज़िन्दगी?
जब आप डूब रहे होते हो, तब फिल्मों की तरह बचाओ! कहने का मौका नहीं मिलता। आप जितना भी चाहें आप जल-समाधि की ओर गिरते जाते हैं। वो पल अविकारी होता है। उसमें कुछ महसूस नहीं होता। शरीर स्वयं ही अपने विन्यास में ठोस चीज़ें ढूंढने लगता है, पर कुछ हाथ नहीं आता। आँखों के समक्ष नीला अँधेरा छा जाता है। और डर जल में अन्य सभी भावनाओं की तरह विलीन हो जाता है। तपोवन सा पवित्र और तृप्त मन अब शांत होने लगता है। मौत का आलिंगन होने ही वाला होता है की कोई अपना हाथ देकर सीने को धड़कन और स्वांस से संचित कर देता है। वह हाथ भगवान का होता है। और वो स्वांस श्रद्धा के।
आज मैं यह हादसा बन गयी यात्रा का वर्णन इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि, इस घटना के ६ साल बाद मैं दरिया के किनारे अपने जीवन की नौका को पुनः स्वेछा डुबाने जा रहा था। रोज़ स्कूल बस से आते हुए जो दरिया हसीं और खिलखिलाता हुआ दिखता था उस पल में भयानक रूप से विशाल और भयावह लग रहा था । भोर से पूर्व का शव सा ठंडा वातावरण और कान फाड़ देने वाली लहरों का शोर हावी हो रहा था। मैं घर लौट आया। ३ बार वहां गया पर डर के घर आ जाता था।
जब घर मंदिर न रहे और उसकी अराजकता उसकी मौलिकता को छिन्न-भिन्न कर दे तब, संतुलन की मेज़ बदगुनिया हो ही जाती है। पर दरिया किनारे जब मैंने अपने जीवन त्यागने की भावना के मीठे सुख को ज़िंदा रहने की तलब और लगन के सामने झुकते देखा तो समझ आया की मैं किस प्रकार अपने साथ इतने वर्ष गलत करता आया।
शायद हालत, लोग और मंज़र ने इतना संताप नहीं दिया जितना संत्रास मैंने अपनी स्वाधीनता से खुद को अर्जित किया था। पर अब जब मैंने यह पराजय स्वीकार की तो मैं सही मायने में विजय हुआ। हमने सही सुना है की कैसे स्वर्ण सुहागे में तप कर ही चमकता है।
मैं जब छोटा था तब मेरी लात की सर्जरी हुई थी , इसलिए मुझे गोदी में उठा कर लाया जाता था और मैं खेलने नहीं जा सकता था । जिस कारण वश मेरा स्कूल में पहला साल बहुत मायूसी से भरा था ,बच्चे हँसते और मज़ाक बनाते थे । क्योंकि मैंने कभी खेला नहीं था इसलिए मुझे कभी खेल में रूचि नहीं हुई, जिस कारण सब बचे मुझे लड़की -लड़की कहकर चिढ़ाते थे। इस सिलसिले ने मेरे हृदय के बीच एक खंजर के सामान चोट की और मुझे समाज में अपनी छवि का भय रहता था अपनी आलोचना का डर रहता था, क्योंकि मैं पढाई में अव्वल आता था इसलिए मुझे अध्यापकगण ने बहुत सम्मान और प्रेम दिया, जिसके सहारे मैं चलता भी गया। पर इस बीच साल दर साल मैं कमज़ोर होता गया, जब कक्षा सातवीं में जवान हुआ तब ज्ञात हुआ की आम था ही नहीं , मेरी चाहत और प्रेम की क्या परिभाषा है यह मैं बयान नहीं कर सकता था। सो अपने आप को अकेला पाया।
पर समाज के डर से मैंने खुद को इतना घुटन में रखा की अपने जीवन की आसक्ति कम होती लगी । तभी मैंने खुदकुशी जैसे कदम की ओर अपने कदम बढ़ाये । पर जिस दिन मैं नदी से घर लौटा तब मेरे अंदर एक सवाल था ?
क्या चाहती हो तुम ज़िन्दगी?
बस यही सवाल मेरे जीवन की नई परिभाषा बना। जैसे ही मुझे डूब जाने में असमर्थता मिली तब मेरे अंदर एक अलग ही रोशनी जगी की अब मुझे भी चाँद चाहिए। पर यह चाँद कहाँ मिलने वाला था , क्या डूबता इंसान खुद को बाहर निकल पाया है ? नहीं ! उसे चाहिए होता है एक हाथ जो उससे खींच कर बाहर निकाल दे और उसके सीने में धड़कन और स्वांस भर दे।
पर जो समस्या एक मानसिक रोगी महसूस करता है वो है की वो मदद मांगने में झिझकता है। उससे खौफ है की कहीं मेरे माता पिता मुझे बेदखल न कर दें, कहीं मुझे छोड़ न दें और मेरे जीवन मैं तो समस्या केवल मानसिक रोग नहीं था उसकी वजह मेरी भिन्न लैंगिकता भी थी । मेरे लिए मदद मांगना और भी कठिन था।
पर एक दिन कुछ हुआ , गर्मी का मौसम नया था और तब आलूबुखारे नहीं मिलते। पर एक दिन मज़ाक मैं मैंने कहा की मेरा आलूबुखारे खाने का बहुत मन है । मेरे पिता जी बहुत व्यस्त रहते थे अपने व्यवसाय मैं पर उन्होंने बहुत ज़ोर लगा के कहीं से मेरे लिए आलूबुखारे मँगवाए की मेरे बेटे को मन है।
मुझे उस दिन समझ आया की इनके लिए मेरी कितनी अहमियत है , मैं कैसे अपने माता पिता को समाज की ही तरह शक से देखता रहा , समाज तो क्रूर है और था और रहेगा, पर माँ बाप समाज नहीं है वो तो प्यार और वात्सल्य की मूरत हैं। मैंने उस दिन अश्रुओं की धारा से पूरे घर में रुदन किया और चीख-चीख कर मदद मांगी !
आज मुझे हँसी आती है क्योंकि मेरी पिता जी ने कहा की - "बस इतनी सी बात थी , तू जैसा है हम तेरे साथ हैं, तू जिससे प्यार करता है कर, हम तेरे साथ हैं , तू खुश तो हम खुश!"
उनकी यह बात पर मैं आज इतना हँसता हूँ की कैसे मैंने उनके प्यार को डर के तले छुपा दिया था। उन्होंने एक बात कही थी उस दिन जिससे सुन के मुझे बहुत बुरा लगा था उन्होंने कहा की "अगर तू कुछ कर लेता हम तो मर जाते"
उस दिन मैंने वादा किया की मैं अब ठीक होऊंगा सब चीज़ों को लांघूँगा और सशक्त बनूँगा । मेरे माता पिता ने अपना हाथ आगे बढ़ाया मुझे मनोचिकित्सक को दिखाया और आज मैं अपनी ज़िन्दगी में बहुत खुश हूँ १९ साल का हूँ और कक्षा दसवीं और बारहवीं में अपने विद्यालय में प्रथम आया था दोनों बार ९८% अंक लेकर।
मेरी कहानी से मेरा केवल एक मकसद है की आप भी अगर परेशान है तो चीख-चीख कर मदद माँगें , आपके माता पिता आपसे बहुत प्यार करते है , अपने टीचर्स , अपने भाई बहन , अपने चाचा , या दद्दा जी जिससे कहना चाहते है कहिये पर अपना दिल एक पिंजरे मैं बंधी चिड़िया की तरह मत रखिए, उससे भी स्वतंत्र करें और देखे कैसे पूरे जगत का रूप ही बदल जायेगा।
इतना याद रखें की जब तक प्राण है दिल में बसे, जब तक साँसों की ज्वाला चले, पथिक मेरे तू चलता चल, पथिक मेरे तू चलता चल। हर दिन क्षितिज की नोक पर से उभरते सूरज की तरह जीवन और जुनून से भरा होता है , हर दिन एक नई शुरुआत है। जैसे गौतम बुध को बोध के पेड़ के नीचे महा ज्ञान मिला था वैसे ही मुझे भी नदी किनारे अमलतास की छाँव के तले एक नया जीवन मिला था , आज उस अमलतास के पेड़ के नीचे एक दीपक जलाया है और आशा की है उसकी रोशनी जग को रोशन करे।
