कुंभकर्ण
कुंभकर्ण
"कुंभी" एक कोकिला स्वर में अपना नाम सुनकर कुंभकर्ण ठहर गया। वन में चारों ओर देखा। कोई दृष्टिगोचर नहीं हुआ। एक पग बढ़ाया ही था कि पुनः वहीं कोकिला स्वर सुनकर कुंभकर्ण ने अपने गांडीव से स्वर दिशा की ओर धनुष ताना ही था कि एक अतिसुंदर षोडशी ने उसके पार्श्व से आकर धीमें से कहा - "इस वन में ध्वनि कंपन दिशा भ्रम उत्पन्न करता है। क्या तुझे ज्ञात नहीं है ?" इतना कहकर वह बाला हंसी।
कुंभकर्ण ने पीछे मुड़कर देखा तो देखता ही रह गया। नि:शब्द। सम्मोहित।
"क्या हुआ ?" उसके नेत्रों के आगे अपना दायां हाथ लहराते हुए कहा। "क्या कभी कोई सुंदरी नहीं देखी?"
चेतना जागृत होते ही कुंभकर्ण ने कहा - "सुन्दर तन और कोकिला स्वर,
देखीं बहुत, अभिनंदन भर,
कब, कौन, कहां, कैसे, आये,
हे सुंदरी बाला! कुल अज्ञात बताये।"
सुंदरी बाला ने कहा -
"नारी हूं। अक्षत तन धारी हूं।
षोडश सावन बरस गये हैं।
अधर-तन प्यासे हैं।
कुल ज्ञात नहीं।
पुर ज्ञात नहीं।
कोमल तन की छाया हूं।
पांडित्य तो ज्ञात नहीं।
पांडित्य कर्म अज्ञानी हूं।
वीर्य वान को खोज रही हूं
भाद्र मास की मोहकता में।"
बाला की उन्मुक्तता देखकर कुंभकर्ण आश्चर्यचकित रह गया। बीस वर्षीय कुंभकर्ण अभी तक ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा था। दिवा-स्वप्न है या वास्तविकता। वह अभी सुनिश्चित नहीं कर पाया था कि बाला ने उसके करबदं का स्पर्श किया तो कुंभकर्ण के तन में विद्युत कंपन कंपित हो गया।
स्पर्श की मादकता चैत्र मास तक पींगें भरती रहीं। चैत्र मास की समाप्ति पर कुंभकर्ण अदृश्य हो गया। बाला वनों में ढूंढ़ती रही मगर वह नहीं मिला। कौन था ? पुर-धाम अज्ञात था ? संबोधन कभी ज्ञात करने का प्रयास ही नहीं किया। कहां खोजे उस महाबली को जिसके मांसल भुजाओं के आगोश में उसने अपनी सुध-बुध खो दी थी। बाला की एक सखा ने कुछ पूर्व दिवस जो कहा था, वह उसे स्मरण हो आया। 'बैसाख मास मिलन न होए, जेष्ठ मास शीतलता खोए, आषाढ़ उमस प्रभारी, श्रावण मास सुदर्शन पर भारी और भाद्र मास अधर-तन की मारी। क्वार मास या कहो आश्विन, आशाओं का दिग्दर्शन प्यारी।'
संभवतः बाला को सखा वाक्य का मर्म ज्ञात हो गया था। अतः उसने मिलन की आस में वन-उपवन भटकना त्याग दिया था। छ: मास व्यतीत करने भारी हो गये। सूर्य के ताप ने चंचल मन को भी डस लिया था। रात्रि काल में शीतलता भी ताप के आगोश में समा गई थी। जेष्ठ मास ने तो तन को प्रदर मुक्त होने ही नहीं दिया और आषाढ़ मास ने हृदय गत उमंगों पर पानी ही फेर दिया। श्रावण मास की प्रथम जल फुहारों ने मृदासुगंध से मंत्र मुग्ध तो किया किंतु तन की उष्मता अभी भी धधक रही थी। मेघों के आक्रमणों ने वातावरण में मादकता घोली लेकिन धरती पर जल मात्रा ने सभी की यात्रा रोकी। मिलन की आस हृदय में लिए, बाला किसी से न बोली। भाद्र मास की भद्रता तो भाइ किंतु धरती पर पसरी कोमल मृदा ने बाला की उन्मुक्तता को देख-जानकर भी दया नहीं दिखलाई।
क्वार मास ने किया चमत्कार और कुंभकर्ण ने पुनः किया प्रयास को नमस्कार। निकल पड़ा पुष्प आच्छादित वन में। बाला की आस, पुनः मिलन की प्यास। दोनों ओर धधक रही थी एक अनजानी-सी ज्वाला। उन्मुक्त युग की सुंदर बाला, क्रीड़ाओं की यौवन माला। क्या फिर मिलेगी कुंभकर्ण को दोबारा ? तन,मन,धन सब कुछ अर्पित कर दूंगा। मिलन हो जाये दोबारा। नवकपोलों से परिपूर्ण वन में कुंभकर्ण इसी आशा में पर्यटन कर रहा था। छह मास का वियोग संयोग बनेगा या नहीं, वह नहीं जानता था। सजल नेत्रों से खोजता रहा कुंभकर्ण। गुज़र गए छह मास। अदृश्यता के छः मास में कोई आशा थी ही नहीं।
कार्तिक मास में एक दिवस वही बाला सागर तट पर मिल गई। केवल इतना कहा - "छह मास निंद्रावस्था और छह मास रहे जागते। कैसे होता पुनः मिलन हमारा, तुम ठहरे दशग्रीवा के भ्राता।"