Renu Poddar

Inspirational

4.4  

Renu Poddar

Inspirational

कर्म

कर्म

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"मम्मी आप का दिल इतना पत्थर कैसे हो सकता है? मैं मीरा को इस हालत में कहाँ लेकर जाऊंगा? आप सब यह चाहते हो हम इस घर में ना रहें तो कम से कम इसकी डिलीवरी तो होने दो" निशांत ने गिड़गिड़ाते हुए अपनी मम्मी से कहा पर निशांत की मम्मी ललिता जी और उसके पापा सुधीर जी पर उसकी बातों का कोई असर नहीं हो रहा था क्यूंकि निशांत के पापा (सुधीर जी) को सूरज (निशांत का बड़ा भाई) से बहुत ज़्यादा लगाव था और ललिता जी को निशांत की बहन कल्पना और उसके परिवार के आगे कुछ नज़र नहीं आता था। 

निशांत की अपने भाई के साथ बिज़नेस को लेकर कुछ कहा सुनी हो गई तो ललिता जी और सुधीर जी ने निशांत को अपनी पत्नी के साथ घर छोड़ कर जाने को कह दिया क्यूंकि सूरज ने सुधीर जी से कह दिया था "या तो इस घर में यह रहेगा या मैं रहूँगा, इसलिए मीरा का आठवां महीना होने के बावजूद वह दोनों एक दम कठोर हो गये। ऐसे मुश्किल समय में मीरा के मायके वालों ने मीरा का साथ दिया। वह बच्चा होने के दो महीने बाद तक अपने पीहर में रही। उसके बाद निशांत उसे लेकर किराये के घर में शिफ्ट हो गया। बिज़नेस में भी मामूली सा हिस्सा ही मिला था निशांत को। वो जैसे-तैसे अपने परिवार का पालन-पोषण करता रहा। उसके माता-पिता और भाई-बहन ने उससे अपने सारे सबंध खत्म कर दिए। ऐसे ही कुछ समय निकल गया।

सब कुछ इतनी आसानी से मिल जाए तो उसे संभालना मुश्किल हो जाता है। ऐसा ही कुछ सूरज के साथ हुआ, उसने सारा पैसा अपनी अय्याशी में उड़ा दिया और बिज़नेस में बहुत बड़ा घटा दे दिया। सुधीर जी से यह सदमा बर्दाश्त नहीं हुआ और वो चल बसे। सूरज ने जब रोज़-रोज़ ललिता जी के साथ भी दुर्व्यवहार करना शुरू कर दिया तो ललिता जी को निशांत की याद आई। कहते हैं ना दयालु व्यक्ति ही सबसे ज़्यादा झेलता है। निशांत और मीरा को उनके ऊपर तरस आ गया और ललिता जी निशांत के साथ रहने लगी पर अभी भी वो निशांत के पीछे से मीरा को ताने मारती रहती थी और घर के कामों में भी ज़रा सा हाथ नहीं बटवाती थी। एक दिन उन्हें अचानक से बैठे-बैठे दिल का दौरा पड़ गया।

हॉस्पिटल में अपनी अंतिम साँसे गिनती ललिता जी अपने बड़े बेटे के इंतज़ार में आँखें बिछायें बैठी थी। जब उसने फोन पर कह दिया "माँ ऑफिस का बहुत ज़रूरी काम आ गया, अभी कुछ देर बाद आता हूँ"| "बेचारी यह कह पाती की "बेटा कुछ देर बाद पता नहीं मैं रहूं या ना रहूं" उससे पहले ही उनका बेटा फोन काट चुका था। 

ललिता जी भी जानती थी अपने पापों का प्रायश्चित करने का यह आखिरी मौका है, इसलिए रह-रह कर अपने निशांत और मीरा से अपने द्वारा उनके ऊपर किये गए जुल्मों की माफ़ी मांग रही थी।

अपनी माँ को ऐसी हालत में देख परेशान सा निशांत अपनी माँ से भर्राये गले से बोला "माँ बस आप ठीक हो जाओ और मुझे कुछ नहीं चाहिये।"

मीरा ने भी उन्हें समझाते हुए कहा "मम्मी जी जो हो चुका उसे भूल जाइये। हम आपको माफ़ करने वाले कौन होते हैं। ऊपर वाले के पास सब का लेखा- जोखा होता है और हमारा सबसे बड़ा प्रायश्चित हमें हमारी भूल का एहसास होना होता है। ललिता जी से चैन की सांस भी नहीं ली जा रही थी। रह-रह कर उन्हें याद आ रहा था कि पूरी ज़िन्दगी उन्होंने अपने सूरज और बहू सारिका के ऊपर अपना प्यार और दुलार लुटाया। घर में नियम-कानून भी दोनों बेटों के लिए अलग-अलग बना रखे थे। निशांत और मीरा अपने ही घर में अजनबी महसूस करते थे। यहाँ तक की ललिता जी ने कभी भी मीरा के बीमार होने पर उसकी देखभाल नहीं की फिर भी ललिता जी के मुश्किल समय में हमेशा मीरा ही उनके काम आयी।

ललिता जी के बाकी दोनों बच्चों के पास तो उनसे मिलने आने की भी फुर्सत ही नहीं थी। ललिता जी के कमरे के बाहर बैठी मीरा सोच रही थी "कैसे पूरी ज़िन्दगी मम्मी जी ने मेरे साथ अन्याय किया। यहाँ तक की पोते-पोतियों में भी भेदभाव किया पर आज क्यों निशांत और मैं उनकी इतनी सेवा कर रहे हैं ? क्या हमारी अच्छाई ही हमारे लिए मुश्किलें पैदा करती है ? अगर आज में भी उन्ही की तरह पत्थर बन जाऊं तो, उनमें और मुझ मैं क्या फर्क रह जायेगा ? उनके कर्म उनके साथ हैं, और मेरे कर्म मेरे साथ। यह सब सोच कर मीरा उठी और ललिता जी के लिए दवाइयाँ लेने चली गई।


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