कलयुग की महिमा (पौराणिक कथा)
कलयुग की महिमा (पौराणिक कथा)
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। पांडव विजयी हो चुके थे। महाराज युधिष्ठिर ने बहुत से अश्वमेध यज्ञ भी करवाएं लेकिन फिर भी जब उनका शोक दूर नहीं हुआ तो उन्होंने वैराग्य धारण करने के बारे में सोचा। श्री कृष्ण जी भी तब तक अपने धाम को प्रस्थान कर चुके थे।उन्होंने अभिमन्यु पुत्र श्री परीक्षित जी को राज्य देकर अपने भाइयों और द्रौपदी के साथ महायात्रा के लिए वन में निकल गए।
राजा परीक्षित ने जब देखा कि अब द्वापर युग का अंत होने को है और कलियुग नगर में प्रवेश करना चाहता है तो राजा परीक्षित कलियुग को मार देना चाहते थे। लेकिन जब पता चला कि कलियुग में केवल नाम की ही इतनी महिमा होगी कि मनुष्य को उद्धार के लिए और युगों के जैसे बरसों का समय नहीं लगेगा अपितु केवल नाम जप से ही वह संसार से मोक्ष पा जाएंगे। कलियुग की इसी अच्छाई को जानकर उन्होंने कलियुग को जीवित छोड़ दिया और उससे वादा लिया कि जब तक मैं जीवित हूं तब तक तुम हमारे राज्यों में अपनी लीला नहीं दिखा सकोगे। कलियुग के बहुत विनती करने पर राजा परीक्षित ने उन्हें सोने (धातु) में और जुआ घरों में और निर्वासित जगहों में रहने की जगह दे दी थी।
एक दिन राजा परीक्षित सिर पर सोने का मुकुट धारण करके जंगल में अकेले ही जा रहे थे। वह भूख प्यास से व्याकुल थे और उन्होंने एक कुटिया पर रुक कर वहां ध्यान मग्न बैठे शमीक मुनि से पानी मांगा। जब मुनि समाधिस्थ थे और उन्होंने राजा पर ध्यान नहीं दिया तो मुकुट के सोने में बैठे कलियुग ने अपनी लीला प्रारंभ कर दी और उसी लीला के फलस्वरुप राजा परीक्षित को अत्यंत क्रोध हुआ। उसी क्रोध की अवस्था में ही राजा ने समीप में पड़े हुए मरे हुए सांप को मुनि के कंधों पर डाल दिया। ऐसा करके वह अपने महल में वापस लौट आए। मुनि पुत्र श्रृंगी जब लौटकर आया और जब उसने अपने पिता के कंधों पर मरा हुआ सांप लिपटा हुआ देखा तो उसने उसका आपा खो गया और उसी क्रोधित अवस्था में उसने राजा को श्राप दे दिया। उसने कहा जिसने मेरे पिता के गले में मरा हुआ सर्प डाला है उसको सातवें दिन तक्षक नाग डस लेगा
शमीक ऋषि की समाधि टूटने पर जब उन्हें इन सारी घटनाओं का ज्ञान हुआ तो उन्होंने अपने पुत्र को बहुत डांटा। उन्होंने अपने पुत्र को समझाया कि हमारे धर्म परायण, प्रजावत्सल महाराज के साथ तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था लेकिन अब क्या हो सकता था। तीर तो कमान से निकल ही चुका था। अब किसी भी तरह से श्राप तो विफल नहीं हो सकता था।
महल में पहुंचने पर जब राजा परीक्षित ने अपना मुकुट उतारा तो उन्हें भी अपने कृत्य का भान भी हुआ और अत्यंत दुख भी हुआ।
शमीक ऋषि ने बड़े व्यथित हृदय से अपने शिष्य के द्वारा पुत्र द्वारा दिए गए श्राप का सारा वृतांत राजा को कहलवाया। अब राजा परीक्षित का मन भी बेहद संतप्त हो उठा था। उन्होंने अपने पुत्र जनमेजय को राज्य दे दिया और खुद भागीरथी के तट पर अनाहार व्रत का संकल्प लेकर श्री कृष्ण के चरणों में अपना ध्यान लगा कर बैठ गए।
जैसे ही सब मुनियों ने उनके आगमन का समाचार सुना तो बहुत से ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि और संत जन भी भागीरथी के तट पर पहुंच गए और उन्हें मोक्ष के लिए ज्ञान देने की चेष्टा करने लगे। लेकिन महाराज परीक्षित का मन शांत नहीं हो पा रहा था।थोड़ी देर बाद वहां पर एक 16 वर्षीय दिगंबर अवधूत जो कि बेहद तेज युक्त थे, पहुंचे। उनका नाम शुकदेव था। उन्होंने राजा परीक्षित जी को समझाया कि मोक्ष की इच्छा रखने वाले प्रत्येक पुरुष को श्री हरि नाम का संकीर्तन करना चाहिए और केवल उनका ही चिंतन और स्मरण करते रहना चाहिए। बहुत सी कथाओं को सुना कर उन्होंने अपनी बात की पुष्टि भी करी।
महाराजा परीक्षित द्वारा उनसे श्री हरि कथा अमृत को सुनाने के लिए प्रार्थना की गई तो श्री शुकदेव जी ने 1 सप्ताह में उनको श्रीमद् भागवत की कथा सुना दी इससे राजा को बहुत शांति मिली और उन्होंने मोक्ष को प्राप्त किया। उनकी इस कथा को सुनने से हमें हरि नाम संकीर्तन, चिंतन और स्मरण करने की महत्ता का पता चलता है।
