कलाकन्द

कलाकन्द

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मैं रोज ही दोपहर के समय देखता, वो बूढ़ा।

चुपचाप दुकान के सामने आकर रुक जाता, लालच भरी निगाहों से मिठाई की दुकान में करीने से सजी हुई मिठाइयों को देर तक जब तक सम्भव हो निहारता रहता था।उसके पहनावे और व्यवहार में मेल नहीं था।मतलब रहन सहन से वो ठीक ठाक घर का लगता था।

संकोच वश मैं न तो उसे कुछ कह पाता था, नहीं उसे दुकान से जाने को कह पाता था

ऐसा तकरीबन महीने भर से चल रहा था।आज भी वो देर से खड़ा था और जैसे ही वो जाने को तत्पर हुआ,मैं सामने आ गया।अचानक मुझे सामने पाकर वो हड़बड़ा गया और जल्दी जल्दी दुकान से जाना चाहा लेकिन मैंने उसे रोक लिया और दुकान के अंदर ले आया और एक बेंच पर अपने सामने बैठा लिया।"अरे अरे बेटा मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे जाना है"। उसने कुछ कुछ शर्मिंदगी के साथ सिर नीचे झुका कर कहा। मैंने एक गिलास पानी मंगाकर दिया और कहा मैं जानता हूँ,आपको कुछ न कुछ तो चाहिए, पर आप संकोच वश नहीं कह पाते।आप निसंकोच कहिये क्या बात है ?

 थोड़ी देर तक शून्य में देखने के बाद उन्होंने कहा"बेटा तुम मुझे एक टुकड़ा कलाकंद का दे सकते हो क्या ? मेरे पास तुम्हें देने को पैसे नहीं हैं,लेकिन मैं तुम्हें दुआएं जरूर दूँगा। मैं रिटायर्ड शिक्षा अधिकारी हूँ,लेकिन समय की ऐसी मार कि भरा पूरा परिवार होने के बावजूद अपने पसंद की एक मिठाई भी नहीं खा सकता।जबतक पत्नी थी उसके साथ सुख दुःख बाँट लेता था।जब से वो गई कोई खाने को भी पूछने वाला नहीं, बैंक में पेंशन आती है, वो भी मेरे पास तक नहीं आ पाती। एटीएम से सीधे बेटा निकल लेता है।किसी से इस कारण कुछ नहीं कहता कि बेकार बच्चों की बदनामी क्यों करूं। सब सह लेता हूँ, बस एक पता नहीं कैसे मिठाई खाने का बहुत दिनों से मन कर रहा था।

मैंने कहा कुछ नहीं, बस उठा और प्लेट में एक टुकड़ा कलाकन्द लाकर उनके सामने रख दिया, और उन्हें चुपचाप खाते देखता रहा।


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