किताब नहीं खरीद सका
किताब नहीं खरीद सका
बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा छटवीं में था। एक दिन सभी बालकों को स्कूल के सभागार में एकत्रित किया गया। कार्यक्रम के आरंभ में स्कूल में पधारे अतिथि से हमारा परिचय करवाया गया। ये अतिथि थे देश के विख्यात साहित्यकार श्रीकृष्ण सरल। हमारे पाठ्यक्रम में उनकी कविता भी थी। कविता की दो लाइनें याद है-होंगे कोई और जो मनाते जन्मदिवस, मेरा तो नाता रहा मरण त्योहारों से।
इस आयोजन में बताया गया कि श्रीकृष्ण सरल जी ने देश के शहीदों भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुभाषचन्द्र बोस आदि पर विपुल साहित्य लिखा। विशेष बात तो यह है कि यह साहित्य उन्होंने अपनी भविष्य निधी के रूपयों से लिखा। श्री कृष्ण सरल जी का व्यक्तित्व इतना आकर्षक था कि उनका व्यक्तित्व मेरे मन में अंकित हो गया। उन्होंने अपनी लिखी बहुत सी किताबें भी लाये थे, उनका उद्देश्य नयी पीढ़ी को हमारी संस्कृति, धरोहर और राष्ट्रीय नायकों से रूबरू करवाना था। उन्होंने ओज में अपनी कवितायें भी सुनायी। कुछ हास्य रचनायें भी थी। श्री कृष्ण सरल जी की किताबें बिक्री के लिए भी उपलब्ध थी। लेकिन उस समय मेरे पाॅकेट में इतने पैसे नहीं थे कि मैं वह खरीद पाता। यह भी सच है कि मेरे गुल्लक में अवश्य पैसे हमेशा रहते थे। बस मुझे हमेशा इसी बात का अफसोस रहा।
इस स्कूल से जिला मुख्यालय के स्कूल में आ गया। तब तक मेरे मन में लिखने के शौक का रूझान नहीं था। हाँ मेरी हिन्दी जरूर अच्छी थी, आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस से उर्दू अलफाजों के अर्थ जानता था।
बी एस सी फायनल वर्ष के बाद तो हिन्दी विषय भी छूट गया लेकिन बचपन से मुझे पुस्तकें पढ़ने का शौक था। पुस्तकों से ही मेरी मित्रता थी। जिले के अधिकांश पुस्तकालयों की बहुत सी किताबें पढ़ी लेकिन स्नातकोत्तर होने के बाद, काॅलेज से विदाई और फिर केन्द्रीय विद्यालय में तदर्थ शिक्षक की नियुक्ति होने के बाद मुझे अपनी जिम्मेदारियों का एहसास हुआ। मैं भी कुछ सृजन करना चाहता था। मैंने भी जब लिखने की दिशा में कोशिश की तो मुझे लगातार सफलता मिलती गई। देश के सभी ख्यातिप्राप्त समाचारपत्रों में लिखने का अवसर मिला। लेकिन मन में कहीं श्रीकृष्ण सरल जी का जज्बा मन में था। मैंने भी स्थानीय स्तर पर अपने गृहनगर की नदी सूर्यपुत्री ताप्ती पर शोधपरक लेखन का कार्य किया। इस कार्य में मुझे ताप्ती नदी के उद्गम स्थल से समुद्र मिलन के संगम तक भी जाने का अवसर मिला और इस कार्य में मुझे दो दशक से ज्यादा का समय अवश्य लगा, लेकिन मुझे अपना लक्ष्य ही दिखाई देता रहा। श्री कृष्ण सरल जी की बचपन में किताबें नहीं ले सका लेकिन उनके विचारों को आत्मसात करके साहित्य क्षितिज पर अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहा। यह संयोग ही है कि दुष्यंत कुमार संग्रहालय ने साहित्यकारों की डायरेक्ट्री प्रकाशित की तो हिन्दी वर्णमाला क्रम के कारण उनके नाम के साथ मेरा नाम भी प्रकाशित हुआ और बाल साहित्यकारों की डायरेक्टरी में भी मुझे स्थान मिला। यह एकलव्य जैसा मेरा एक प्रयास था। मैं हमेशा उन्हें स्मरण करता हूं। यह मेरी उनको आदरांजली भी है।
