किस्मत की डौर
किस्मत की डौर
अलग ही माहौल था उन दिनों मन किसी कारण बहुत दुखी था,किसी भी काम मे मन नही लगता था,मन के भीतर उमड़ते भावो को शब्दो का सहारा लेकर लिखता था शायरी नज्म गीत कभी,आजकल का जमाना तो फोन और कम्प्यूटर का है,उस समय भी मेरी बात आनलाइन किसी वेबसाइट के जरिए एक व्यक्ति से हुई,दोनो अनजान थे,ना देखा ही था एक दूसरे को,खैर बाते शुरू हुई,जिस तन्हाई मे गुजरता था वक्त,वहाँ कोई अब बात करने को तो था,बाते दिन महीने साल जंगल की आग की तरह बढ़ने लगी,एक दूसरे की तस्वीर भी सांझा की,अब उन सभी बातो को मानो एक चेहरा मिल गया हो,मगर अब हम उस मोड़ पर थे कि कौन किस रूप रंग का है,मायने नही थे उसके,मगर कहते है ना की हर अच्छी घटना अपने साथ कुछ ना कुछ तो मुश्किले लाती ही है।
उन बातो का जब हकीक़त मे सामना करने की बारी आई,तो अपने दिल की ना सुनकर,किसी और की बातो पर भरोसा कर बैठा,उसका मेरे शहर आना भी उसी एक कड़ी का हिस्सा था,वो एक आस एक उम्मीद के साथ मुझसे मिलने आया,मगर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था,उस वक्त मैं शहर नही था,वो ना मिल पाने की टीस आज भी है,फिर से वही घंटो रात भर बातो का दौर शुरू हुआ,अपने और अपने परिवार दोस्तो के बारे मे जाना समझा,मगर कहते है ना की किसी भी रिश्ते मे किसी तीसरे को लाना नही चाहिए,मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ,अब बातो के मायने मतलब बदलने लगे थे,जहाँ मुस्कान थी अब वहाँ नोकझोंक की नौबत आ गई। उसका नतीजा यह हुआ की मन की कड़वाहट जुबान पर आने लगी,और कब कहाँ किस वक्त वो बातो का दौर खत्म हुआ उसका पता ही ना चला।
सबकुछ अचानक ही हुआ वो उम्र भी ऐसी थी दोनो की कोई खुद को रोक ना पाए,या शायद मेरी नासमझी का नतीजा था,
दिन साल महीने बदले सब कुछ बदल गया, समय रेत की तरह हाथ से फिसलने लगे,और सालो बाद एक मोड़ पर जहाँ हम बिछड़े थे,फिर उसी तरह उसी जरिए फिर से मुलाकात हुई,मगर
इस बारी दोनो की बातो मे गहराई एक ठहराव था,समझदारी थी, और दोनो ही अपनी एक अलग दुनिया बसाना चाहते थे,पुराना सब भूलाकर फिर से एक नई शुरुआत करी,वो कहते है ना कि
"खुदा जब जोड़ी रचता है,तो कयानत जुड़ती है,
गलती लाख हो जाए,फिर भी हर बात मिलती है।"