किस्मत-3
किस्मत-3
मेरे फोन पर अब पांडेय जी के साथ मैं नहीं मांजी और विभूति जी बात कर रहे थे। "मां जी, लाटी थें न बतै ब्वे क पुच्छयां के बारे मा, न थर हम सबयु तें खाँणु मिलण मुश्किल ह्वे जाली" कह कर पाण्डेय जी हंसने लगे थे। विभुति जी भी एक हाथ कमर पर और एक माथे पर रखे रखे बस मुस्करा रहे थे। तब तक बोस्की ने आकर मेरी उंगलियां पकड़ कर मुझे अपने साथ चलने को खींचना शुरू कर दिया। वो प्यारी बच्ची बोल नहीं पाती थी। मैंने इशारे से पूछा "कहाँ" उसने पास ही एक पेड़ की ओर इशारा किया। वहां बहुत सुंदर चिड़िया उड़ उड़ कर बैठ रहीं थीं। वो उसमें से एक, मुझे पकड़ कर उसे देने को कह रही थी। तब तक मैंने सुना विभूति जी जोर से हमसे हुए कहा रहे थे।" बल.. भेजी इथगा त हक छै छः म्यार ...", "ठीक त फिर कुई बवाल होलु त ..मा जी आफ फरी जिम्मेवारी छै..अच्छा प्रणामएक द्वि दिनम औन्द मी।" कह कर फोन डिस्कनेक्ट हो गया। उसी समय विभूति जी के फोन पर एक कॉल आयी और विभूति जी, बोस्की को अपनी कार ले कर में रोड की तरफ निकल गए। कोई नया क्लाइंट विजिट के लिए आ रहा था। उसे लेने जा गए थे।
बहरहाल इधर मेरा सारा हाल-व्यवहार उस एक कॉल के बाद धीरे धीरे बदलने वाला था। जैसे अचानक किस्मत ने अब मेरे सामने बीते कुछ सालों में, मेरे पीछे हुई- मेरे साथ होती आ रही, घटनाओं पर से पर्दा उठाने की सोच ली थी। विभूति जी की माता जी ने फोन मुझे दिया और मेरी भुक्की पी ( प्रतीकात्मक रूप से चूमना)। और बुदबुदाते हुए पास की एक झाड़ी से दो चार लम्बी महकती पत्तियां नोची । मेरे सर से तीन बार वार कर आंगन के दूसरी तरह खाई में फेंक दी। और फिर घर में अंदर साथ आने को कहा। मां जी मुझे ऊपर बैठक के बगल की खोली में (कमरे) में ले गईं। यहां बैठक से एकदम अलग था सब। वहां हल्की रोशनी कहीं से छन कर आ रही थी। मां जी ने सबसे पहले सामने की दीवार पर बंद खिड़की खोली। झक्क ..रोशनी से कमरा रोशन हो गया। देखा, दीवारें खूबसूरत हल्के नीले रंग की थीं। फर्श पर एक लाल रंग का पीली छोटी छोटी बूटियों से भरा गलीचा था। एक कोने में एक छोटी सी दराज वाली मेज और मूढ़ा रक्खा था। मेज पर क्रोशिये के मेजपोश के ऊपर एक नई सी किताब और पुरानी डायरी खुली पड़ी थी मगर पैन या पेंसिल कहीं नजर नहीं आयी। मेज के सामने ही दीवार पर एक रैक बना था जिसमें छोटी-बड़ी किताबें रखी थीं। मूढ़े पर गोल हल्के मगर चटख हरे रंग की कवर से ढकी गद्दी थी जिसकी किनारी पर बहुत सुंदर गुलाबी और गहरे नीले रंग की बेल बनी थी। दूसरी तरफ बेड और एक लकड़ी की अलमीरा थी। बेड के सिरहाने की दीवार पर विभूति जी और एक लम्बे मुंह, पतले होंठ और सुनहरे बालों वाली अंग्रेज लड़की की, ऑफ शोल्डर फ्लोरल ड्रेस में बहुत सुंदर क्लोज-अप तस्वीर थी। मैं समझ गयी कि ये ही उस प्यारी सी नीली आंखों वाली बोस्की की मां हैं। "ये बोस्की की मां हैं न!" बोलते ही अपने इस बेवकूफी भरे सवाल पर अपना ही माथा पीट लिया। मेरे न मुंह पर कंट्रोल नहीं, जो मन में आता है फौरन मुंह से बाहर । मां जी ने कहा "हां , ये इज़ाबेला है, इसे घूमने और लिखने का बहुत शौक है, रोज इसी वक्त घूमने निकल जाना इसने।" मां जी ने बताया कि इज़ाबेला, स्विटजर लेंड में ही पली बढ़ी ,लेकिन उसे भारत से बहुत आकर्षण था। इस्कॉन संस्था के जरिये वो भारत को जानती थी। उसका परिवार कनवर्टेड हिन्दू था। और कृष्ण भक्ति में था। विभूति जी जब जॉब पर थे तो वह उनकी सीनियर कलीग थी। शादी के बाद वो दोनों भारत ही रहने आ गए थे ।
"हम्म, चलो आती ही होंगी..शुक्र है ये तीन दिन अब अच्छे बीतेंगे।" मैंने मन ही मन सोचा। मैं अभी कमरे में नजर दौड़ा ही रही थी की मां जी ने अलमारी में करीने से रखे कपड़ों में से दो जोड़ी कपड़े और एक नाईट वीयर निकाला और मुझे देते हुए कहा "एक दम नए हैं, इज़ाबेला ने एक बार भी नहीं पहने। अपने टूर पर जाने के लिए लायी थी पर टूर कैंसल हो गया तो ये ऐसे ही रखे रह गए।" फिर कमरे को बंद करके मां जी ने मुझे बताया कि आज रात पांच लोगों का खाना बनना है" ...पैली सब्बी यखी औन्दा, रैन्दा ,खाँदा तब बात अग्ने बड़द।" वो उस नए आगंतुक के लिए कह रहीं थीं जिन्हें लेने विभूति जी गए थे।वे आज रात साथ ही रहने वाले थे। मां जी ने एक और खोली का दरवाजा खोला । उसे थोड़ा ठीक किया। वो मेहमानों के लिए था। वह कमरा वैसा ही था जैसा वेबसाइट में दिखा था।सिंपल ,लेकिन सभी सुविधा के साथ। मैं सोच रही थी ,जो आ रहा है वो यहां सोएगा, विभूति- इजाबेला जी अपने कमरे में, मां जी बैठक में तो मैं? मैं कहाँ सोऊंगी??