खुशी के आँसू

खुशी के आँसू

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ग्रीष्मावकाश होते ही टीचर्स हॉस्टल खाली होने लगा। जिसकी ट्रेन दोपहर की थी वह विद्यालय से एक घंटा पहले ही चली गई। शाम होते-होते अधिकांश अध्यापिकाएँ जा चुकी थी। केवल मिसेज शर्मा रह गई क्योंकि उनका बेटा उन्हें लेने के लिए आने वाला था। दूसरे दिन उन्हें भी चली जाना था  फिर तो पूरा हॉस्टल ही सूना हो जाने वाला था। अरे हां वह कविता भी तो थी जो पिछले वर्ष ग्रीष्मकालीन अवकाश में केवल एक सप्ताह के लिए अपने भाई के घर गई थी। इस बार पता नहीं वह जाएगी या नहीं।

यहां इतने बड़े हॉस्टल में अकेले ही रहना होगा उसे। अब चौकीदार के अलावा और कौन रहेगा यहां ? लेकिन यह कविता दूसरी अध्यापिकाओं की तरह अपने घर क्यों नहीं जाती ? साल भर के पूरे ग्यारह महीने यहां रहना तो उनकी मजबूरी होती है। यही एक महीना तो होता है ऐसा जिसका सब बेसब्री से इंतजार किया करती हैं। कब छुट्टियां हों और कब वे घर जाएं। और एक यह कविता है जो छुट्टियों के नाम से ही सिहर उठती है।

 यों तो कविता इतिहास की शिक्षिका है लेकिन उसके व्यवहार की मधुरता और आत्मीयता उसे हर दिल अजीज बनाए हुए हैं। कभी कभी कोई कह भी देता है -

"अरी गड़े मुर्दे उखाड़ते उखाड़ते भी तू इतनी मीठी कैसे रह पाती है ?"

तो वह हँस पड़ती -

" मैं गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ती बहन ! मैं तो उन बीती हुई जिंदगी और घटनाओं को पुनर्जीवित कर देती हूं जिन्हें लोग भूलने लगे हैं।" 

 कैसी मधुर तार्किकता होती है उसकी बातों में। मैंने भी इस बार निश्चय कर लिया कि उसके मन का भेद लेकर ही रहूंगी। आखिर ऐसी कौन सी पीर है जिसे वह सदा अपने मीठी मुस्कान से छुपाए रहती है ? बस छुट्टियां आने पर ही वह पीर यदा-कदा आंखों की आंखों से छलक पड़ती है। 

हॉस्टल की मैट्रेन का दायित्व होने के कारण हॉस्टल में छुट्टियों में घर न जाने वाली अध्यापिकाओं की सुरक्षा और उनकी देखरेख की व्यवस्था भी मुझे ही करनी होती है। मैंने कविता को आखिर बुलवा ही लिया।

"नमस्ते दीदी !" 

कमरे में प्रवेश करते हुए वह सहज भाव से मुस्कुराई।

"कविता ! आओ आओ। कैसी हो ?"

मैंने पूछा।

"अच्छी हूं।"

 उसने संक्षिप्त उत्तर दिया।

"तुम कल घर जा रही हो न?"

 मैंने पूछा।

"घर ? नहीं दीदी ! मैं अब घर नहीं जाऊंगी।"

  वह अचानक ही उदास हो गई।

"क्यों ? ऐसी क्या बात है ? तुम्हारे न जाने से घर के लोग परेशान और दुखी होंगे।"

 मैंने सहानुभूति प्रगट की तो वह फूट पड़ी। इतने दिनों से प्रयत्न पूर्वक छिपाई पीड़ा प्यार और सहानुभूति के दो बोल सुनते ही सारे बंधन तोड़ कर बाहर आ गई।

"कोई दुखी नहीं होगा दीदी ! उल्टे सब खुश ही होंगे कि अच्छा ही हुआ जो नहीं आई।"

"ऐसा मत सोचो तुम।"

"नहीं दीदी ! ठीक कर रही हूं मैं। आज भी सोचती हूं तो सारी बातें जैसे आंखों के सामने आ जाती हैं। अभी भी मेरी आंखों में अपना बचपन डोल उठता है। 

 घर में सभी भाई बहनों में बड़ी हूं। दो बहने और दो भाई मुझसे छोटे हैं। पिता सरकारी कर्मचारी थे। अच्छा वेतन था। अच्छे स्कूलों में हम पढ़ते थे। पिता और मां का प्यार हमें कभी दुख के विषय में सोचने का अवकाश ही नहीं देता था। हम तो जानते भी नहीं थे कि दुख किसे कहते हैं। लेकिन खुशियां स्थाई कहां होती हैं ?

 दस वर्ष की थी तभी पिता की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। घर से दफ्तर गए थे और रात गए उनका शव वापस आया। हमारे परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। माँ तो जैसे पागल ही हो गई। घर में मां के बाद मैं ही बड़ी थी तो छोटी बहनों और भाइयों को सहेजना संभालना सब मुझे ही करना पड़ा। बिना किसी के सौंपे ही यह दायित्व मेरे नाजुक कंधों पर आ गया।

कई दिनों बाद जब माँ कुछ सामान्य हुई तो पिता के स्थान पर नौकरी पाने की जद्दोजहद शुरू हो गई। बड़ी दौड़-धूप करने और इनसे उनसे हाथ पैर जोड़ने के बाद मां को क्लर्क की नौकरी मिल गई। पिता भले ही अधिकारी थे परंतु माँ को मृतक आश्रित के आधार पर लिपिक की नौकरी ही करनी थी। पता नहीं कैसे माँ ने स्वयं को वहां एडजस्ट किया होगा। जिस दफ्तर में पति अधिकारी रहे हो उसी दफ्तर में उनके अधीनस्थों को साहब साहब कहना और सम्मान देना सहज नहीं होता। बहरहाल मां ने कुछ देर में ही सही स्वयं को परिस्थिति के अनुसार ढाल लिया। हम भाई बहनों का नाम भी पब्लिक स्कूल से कटवा कर सरकारी स्कूलों में लिखवा दिया गया और मां के कामों में हाथ बंटाते बंटाते कुछ दिनों में घर की सारी जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी।

सुबह जल्दी उठ कर चाय नाश्ता तैयार करना , भाइयों और बहनों को तैयार करके समय पर स्कूल भेजना , फिर स्वयं तैयार होकर , कुछ खाकर स्कूल चले जाना। शाम को लौटने पर फिर बहनों और भाइयों को चेंज कराना , नाश्ता कराना। फिर खाना बनाना , उनका होमवर्क पूरा कराना और फिर अपनी पढ़ाई भी करना। अब सोचती हूं तो बड़ा अजीब सा लगता है। तब पता नहीं कैसे मैं वह सब हंसते मुस्कुराते खुशी खुशी कर लिया करती थी।

 बचपन किशोरावस्था कैसे आई और कब चली गई यह तो जैसे मैं जान ही नहीं पाई। वह तो एक दिन मां के साथ उनकी सहकर्मी मोना आंटी आई थी। मैंने उन्हें चाय के साथ गरमा-गरम पकोड़े परोसे तो बोल उठी -

"अरे वंदना ! तुम्हारी बेटी तो विवाह योग्य हो गई है। इसके लिए लड़का देखो भाई। बड़ी गुणी है। जिस घर जाएगी उसे स्वर्ग बना देगी।" 

और तब अचानक ही जैसे मुझे अपने युवा होने का एहसास हुआ। अब तक कर्तव्यों और उत्तरदायित्व की चक्की में गोल गोल घूमते रहने के कारण मैं अपने विषय में कभी सोच ही नहीं सकी थी। युवा होने का एहसास जागते ही कितने तो सतरंगी सपने मन की न जाने किस अदृश्य वीथिका से निकल कर आंखों में डोलने लगे। दूसरी युवतियां भी शायद ऐसे ही सपने देखती होंगी जैसे मैं तब देखने लगी थी। 

मेरे सपनों में एक सुंदर युवक आता। मेरे हाथ के कामों को छुड़ा कर मेरा हाथ थामता और इंद्रधनुषी बादलों के पार दूर उड़ा ले जाता , जहां रंग ही रंग होते। खुशियों के रंग। हंसी के रंग और मुस्कानों के रंग। लेकिन अफसोस वह दिन कभी नहीं आया जब कोई राजकुमार मेरे पास आता।

माँ मेरे लिए रिश्ते तलाश करती लेकिन शायद उनके मन में कहीं यह आशंका भी थी कि मेरे ससुराल जाने के बाद उस घर का क्या होगा। कौन संभालेगा उस परिवार को। तभी तो जहां माँ लड़का पसंद करती वहां उन्हें घर बार नहीं पसंद आता और जहां घर बार पसंद आ जाता वहां लड़का ही उन्हें नहीं जचता था। जहां दोनों मनमाफिक होते वहां दहेज की अधिक मांग होने के कारण माँ चुप रह जाती। बार बार दिखाए जाने के लिए सजना सँवरना और फिर घोर निराशा के कारण आंसू पी लेना ही मेरी नियति बन गई थी जैसे।

  धीरे-धीरे मैं चौबीस वर्ष की हो गई और यहां मुझे नौकरी मिल गई। मां ने थोड़ा विरोध तो किया लेकिन फिर यहां आने की इजाजत दे दी। अब नौकरी करने के कारण मेरा महत्व घर में बढ़ गया था। अपना पूरा वेतन में अपने भाइयों की इच्छाओं की पूर्ति के लिए खर्च कर देती थी जिन्हें माँ अपने वेतन से पूरा न कर पाती थी या जिन्हें धनाभाव के कारण वे मन में ही दबा लिया करते थे।

 एक दिन माँ ने मुझसे छोटी बहन के रिश्ते की बात की तो मैं हतप्रभ रह गई। माँ ने बहन के लिए रिश्ता ढूंढ लिया और मेरे लिए ....? मेरा कैसा भविष्य सोच रखा है उन्होंने ? परंतु उनसे यह सब पूछना सहज नहीं था। बहन का विवाह धूमधाम से हो गया। उस से छोटी ने स्वयं ही अपने लिए लड़का ढूंढ लिया। माँ की मौन सहमति पाकर वह भी अपना घर संसार सजाने चली गई। मैं माँ की जिम्मेदारियों को निभाने में बराबर से उनका हाथ बंटाती रही और मां भी मुझे 'कविता तो मेरी बेटी नहीं बेटा है। आज यह ना होती तो मैं कुछ न कर पाती' आदि कह कर जैसे मुझे मेरा महत्व याद दिलाया करती और मैं गर्व से फूल उठती।

बहनों के विवाह के अवसर पर मैंने स्वयं अपने फंड से लोन लिया और अब तक उसकी किश्तें भर रही हूं। 

पिछली बार घर गई थी तो छोटे भाई ने स्कूटर दिलाने के लिए कहा था। मैंने विवशता बताई तो बोला -

"दीदी की शादी में तो खूब रुपए दे दिए थे। अब मेरे लिए बहाने बना रही हो।"

"बहाने नहीं बना रही हूं। भैया से क्यों नहीं मांगते ? माँ ! अब तो सुरेश भी नौकरी करने लगा है।"

मैंने कहा।

"भैया कहां से देगा ? उसे तो अपने ही खर्चे पूरे नहीं पढ़ते। कैसी बहन है तू कविता ? भाई की कमाई पर नजर रखती है।"

माँ ने मुझे झिड़का तो मैं स्तब्ध रह गई। जिस मां के सहयोग के लिए मैंने अपनी जिंदगी मिट्टी कर दी उसी माँ की मेरे प्रति ऐसी धारणा ? मेरे भाई अभी मेरे लिए ऐसा कह रहै हैं तो आगे जाकर और मेरे लिए क्या न कहेंगे।

चौतीस वर्ष की हो गई हूं मैं और मेरे लिए किसी का कोई फ़र्ज़ नहीं है। कोई दायित्व नहीं है। कोई कीमत नहीं है मेरी। बस रुपया देने वाली मनी- मशीन बन कर रह गई हूं मैं।

मैं क्या करूं दीदी ? किस घर जाऊं ? मां के साथ ही सारे परिवार की धारणाएं मेरे प्रति बदल गई हैं। बस , इसीलिए अब मुझे कहीं नहीं जाना है। कुछ अपने लिए सोच सकूं, अपने भविष्य के लिए कोई योजना बना सकूँ इसीलिए छुट्टियां यही हॉस्टल में बिताने का निश्चय किया है मैंने।"

कविता ने अपनी आंखें पोंछते हुए बताया तो मैं स्नेह और करुणा से भर उठी।

" देर से ही सही, तुमने ठीक निर्णय लिया है कविता ! जिंदगी उसी का सम्मान करती है जो अपना सम्मान करना जानते हैं। कोई किसी को उसका अधिकार नहीं दे सकता अगर वह स्वयं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न हो। तुमने खुद को अपने परिवार की परवरिश करने में इतना खपा दिया कि कभी अपनी ओर देखा ही नहीं। तुम्हारी मां और भाई बहन भी तुमसे लेने के आदी होते गए। जब तुमने ही अपने विषय में नहीं सोचा तो वे क्यों सोचते ? फिर भी - जब जागो तभी सवेरा समझो। तुम्हारे इस निर्णय से मुझे बड़ी खुशी हुई है। मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं। और सुनो , रिश्ते सिर्फ खून के ही नहीं होते। दिल के भी होते हैं। अब तुम खुद को अकेली मत समझना। मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम्हारी बड़ी बहन , तुम्हारी दीदी। विश्वास करो जिंदगी की इस लड़ाई में तुम ही जीतोगी।"

मैंने भावावेग में कविता के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में भींच लिया। कविता रो पड़ी। मैंने भी उसे चुप कराने का कोई प्रयत्न नहीं किया क्योंकि उसकी आंखों से गिरने वाले ये आंसू दुख के नहीं थे। ये आंसू ख़ुशी के आंसू थे। अब उसकी आंसू भरी आंखों में फिर से जीवंतता के हजारों सपने करवटें लेने लगे थे।


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