खरोंच
खरोंच
“बाबूजी, आइये.. देखिये, आपसे कौन मिलने आये हैं ?”
बेटे ने गुहाल जाकर पिता धनपत लाल से कहा।
धनपत लाल कुट्टी काटना छोड़, बथान से उठ, बेटे के साथ झट से बाहर आ गये।
” आप कौन ...?” धनपत लाल ने आगंतुक से पूछा।
“चाचाजी, राम-राम। मैं रिपोर्टर हूँ। पता चला है आपका बेटा इस बार मेडिकल इन्ट्रेंस परीक्षा में स्टेट-टॉपर हुआ है, बताइये यह सब कैसे संभव हुआ ? ताकि हम लोगों को बता सकें कि कम संसाधन में भी मेहनत और लगन के बल पर मंजिल को पाया जा सकता है।” रिपोर्टर ने विनम्रता से सवाल किया।
“आपने बिल्कुल ठीक कहा, इस छोटे से कस्बे के कोचिंग सेंटर में ही पढ़कर हमरे बेटा ने इसे हासिल किया है।
इससे अधिक औकात कहाँ ...! हमरे पास बस यही दो-चार मवेशी और झोपड़ी के पीछे बाड़ी-झाड़ी है। जिसमें साग-सब्जी उपजता है। जिससे हमारी गृहस्थी की गाड़ी चलती है। हम नहीं चाहते थे कि बेटे को हमरी तरह गोबर, गोइठा करके पेट पालना पड़े...! मवेशी के साथ रहते-रहते, मेरी जिन्दगी गोबर-माटी में सन कर बदबूदार हो गई...!”
एक लम्बा सांस खींचते हुए धनपत लाल ने अपना तलहथी रिपोर्टर को दिखाते हुए करूण स्वर में कहा , “ देखिए मेरे हाथ की लकीर को, बुरी तरह कैसे दरक गयी है ! पर, ईश्वर की कृपा अपरमपार है, मेरे बेटे के हाथ की लकीर में अब खरोंच तक नहीं लगेगी !”
बेटे ने पिता की हथेली को अपने सर पर रखते हुए आहिस्ते से कहा," मेरे ईश्वर तो आप हैं।"