कहीं ऐसा तो नहीं!
कहीं ऐसा तो नहीं!
परमात्मा ने इस बार मानव रूप में अवतार न लेकर वायरस रूप में आकर, कुछ करने का सोचा हो। कलयुग का मानव तो विचारों कर्मों से विश्वसनीय दिखता ही नहीं, वो किसी भी रूप में, किसी भी पेशे का क्यूँ ही ना हो!
वायरस रूप में वो, धर्म, पंथ, जातियों और होरिजोन्टल-वर्टिकल्स आरक्षणों की बंदिशों से दूर अपना काम निष्पक्ष भाव से निराकार रूप मे कर रहा है, और उसका कोई जीवन भी नहीं, बस अपने अन्त को समाहित रखते सफर कर रहा है।
कितना निर्दली, डरावना, नित्य प्रति भयभीतिता को बढ़ाता , विकराल सा लग रहा है। मानव सदैव की तरह आज भी राष्ट्रों के रूप मे अपने आन्तरिक शत्रुओं से निपट भावना रखते अपने प्रयासों मे ज़रूर लगा है, और अपने अस्तित्व के लिये सब करते हैं, सफलता भी मिलनी होगी, कितनी?
ये अभी बिल्कुल निश्चित नहीं, कितनी जनहानि हो चुकी होगी, अभी अधिकतर सम्भावित बचों को देखना होगा!
प्रकृतिवादी खुश दिख रहे हैं, प्रकृति ख़ुद कुछ नहीं लिख बोल रही , लेकिन इसके महत्वपूर्ण अवयव जल, वायु और धरती बेहतर हो रहे हों, सूर्य प्रकाश ३० दिन पुराने स्तर से बेहतर आ रहा है।
अभी के बचाव युद्ध और प्रयासों में सरकारें जो भी दिशा निर्देश दे रही हैं, उन्हें पालन करना ही, एकमात्र विकल्प है। लेकिन कहाँ, अभी कोरोना के साथ अन्य धार्मिक अनुष्ठान, पेट पूर्ति और कुछ ऐसे ही अनेक अतिरिक्त उलझने रूकावटें पैदा हो रहीं हैं। और बिगड़ेंगीं तो सरकारों को व्यवस्था बनाने के लिये सेना को भी उपयोग मे लाना पड़ सकता है!
बहुतों को मरने का डर
निश्चित रूप से आने लगे होगे, महीने भर से बँधे रहने में। मैं तो यही कहूँगा- ऐसे किन्ही भावों को मत आने दीजिये सरकारें जो भी दिशा निर्देश दे रही हैं, उन्हें पालन करना ही, एकमात्र विकल्प है स्थितियों में जीना आना चाहिये, मरे तो उस पार हमारे अनेक प्रिय हैं, वो बातों हाथ लेंगे, परेशानी कोई नहीं!
यहाँ ज़िन्दादिली से समायोजन मे लगिये, समय को किसी भी मनमाने रूप में बिताइये, कितना लम्बा, सुविधापूर्ण , पड़ोसी तक दूर भाग रहा है, इससे सुरक्षित हनीमून काल कब मिलेगा!
Keep full fun and live, if u r corona negative.
Don’t depress, if u r in quarantine or under treatment ..... ऊपर वाले ने आपके लिये सोचा हुआ होगा!
अब हम अपनी बात करें, कितना तुषाराघात लग रहा है।
सब कुछ बेहतरी की कामना और ज़िन्दा बचे के बाद वालों को दो साल तक अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन, एक साल तक देशीय पर्यटन, होटल , रैस्टोरेन्ट सभी खुलने वाले नहीं..... हमारा तो ये ही सहारा और वर्तमान था..... लेकिन बिल्कुल भी नहीं घबरा रहे! घर पर सुरक्षित, बहुत कम खर्चे पर सारे मज़े ले रहे हैं, बस शीशा बदल दिया है, महसूसने का। एक कमरा अपना, दूसरे मे चले गय
े तो .. महसूस किसी होटल में है डाईनिंग टैबिलपर बैठ के खाया, लगा रास्ट्रा मे हैं., वैसे बैंड रूम में होते हैं। यू ट्यूब से उम्मीद है वो ३०० आगे के दिनों को अलग अलग रंगों में देशी-विदेशी मूवी दिखायेगा। अब फँसती है बात पर्यटन और घुमक्कड़ी की, वो भी लगता है बहुत ही कम समय में , बन्द कमरे में यू ट्यूब घुमायेगा, रोज एक देश गये तो २०० देश तो भ्रमण हो ही जायेंगे___ बिना किसी अतिरिक्त खर्च के। वाई फ़ाई का सालाना सब्सक्रिप्शन कोरोना आगमन पर ही दिया था।
तो अपनी तो ये योजना है, नेगेटिव रहते। आजकल सच में कुछ भी पोजिटिव्स सा मन को जो नहीं भी रहा है।
भूमिका ‘शुरू हो गयी है। फिर बात करते हैं।
हाथ तो धोते रहते हैं ना! लेकिन स्मिता पाटिल अब सच में नहीं हैं, उस पार की प्राणी बन चुकी है!
और जो बात सुबह सुबह मन में कौंधी थी, कठिन क्या है, बस नज़रिये की बात है,
मैं जीवन प्रारम्भ के १६ बरस एक गाँव में था ,१५० मीटर के घेरे का, अपने में परिपूर्ण , स्वावलंबी। बस कुछ सामान के लिये निर्भरता, शहर पर. सो गाँव से एक बस में कुछ लोग/ यात्री जाते, बहुत आवश्यकता की चीज़ें शाम को आती। बाक़ी कुछ कुम्हार, कुछ नाई, कुछ बढ़ई, कुछ चर्मकार, एकाध भिस्ती, एकाध सुनार , दो चार महाजन , एकाध कसाई, एक पनवाड़ी, दो तीन हलवाई, एक दो कपड़ा विक्रेता, एकाध ब्राह्मण, दो चार लुहार, कुछ वारदातें वाले और बाक़ी सब किसान बस छोटी सी दुनिया थी, थोड़ी सी ही ज़रूरतें थी। निपट जाती थी। बच्चे पैदा होना, कुछ निपुण स्वयं भू दाई थी। बस वैदय जी से परे की बीमारियों के लिये एवम मसालों कपड़ों के आयात हेतु शहर का मुँह देखना होता था। कोई पर्यटन, घुमक्कड़ी का होता ही नहीं था। वो १६ साल उस १५० मीटर के दायरे में, और थोड़ा बढ़े तो खेलते खाँसते १-२ मील तक गाँव के खेत खलिहान बाग तक की पहुँच हो जाती थी! मन लगाने और बिताने को को खप्पड, कंचे, गिल्ली डंडा,कबड्डी , दौड़ और रात को आकाशवाणी, रेडियो सीलोन ( अमीन सयानी), रेडियो लाहौर, बीबीसी के कार्यक्रम, गर्मियों में रात खुली छत सर्दी में बन्द कोठों में सोना, बस निहायत सीधी सीधी और किफ़ायती दुनिया!
तो ये सब बात गया, कभी लगा ही नहीं।
और आज एक बार फिर उस मुहाने पर हैं भी तो किया डर, हम सीमित दायरे, सीमित सुविधाओं और मनोवृत्तियों में जी सकते हैं. जब तक सुरक्षित निकासी परिलक्षित ना होने लगें।
हमें मानसिक रूप से तैयार होना है, जो भौतिकवादी हम ने बढ़ा चढ़ा के ओढ़ लिया है, एक बार कम में जीना सीखें, सर्वहित को देखते।
(कुछ चिन्तन, कुछ विवसतायें, कुछ अपनों पर आक्रोश, कुछ खिसकतों पर आँसू, कुछ व्यंग्यात्मक भावों मे विचरते भयभीत मन को समझाते व्यथित शब्द)
...फिर भी प्रकृति के खेल स्वीकार्य होंगे!