Rupa Bhattacharya

Tragedy

5.0  

Rupa Bhattacharya

Tragedy

कभी खुशी कभी ग़म

कभी खुशी कभी ग़म

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आज मेरा गृह प्रवेश है। मैं कितनी खुश हूँ ! एक- एक पैसा जमा कर इस घर को बनाया है।

कितनी रातें ठीक से सोई नहीं हूँ ! अहले सुबह उठके बोरिंग करवाया है। कैसे क्या होगा ! सब तो मुझे ही देखना है- ---।

कितने दिन मैं भूखी - प्यासी कुली - मज़दूरों से काम करवाती , ईट बालू सीमेंट का आर्डर देती, वक्त का पता ही नहीं चलता था। घर बनते जा रही है, एक अजीब सी खुशी होती। धीरे- धीरे दो कमरे वाले एक घर को मैंने खड़े होते हुए देखा। गृह प्रवेश के दिन बार-बार वह फिल्मी गीत मैं गुन गुना उठती "आज कल पाँव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे तुमने देखा है ---- उड़ते हुए ----।"

अब इस दो कमरे वाले "सपनों का घर " को सजाने में मैं व्यस्त रहती। सामने एक छोटा सा बगीचा बनाना है। कुछ फूल लगवाने है।

पीछे आंगन के चापानल से पूरे घर के लिए मैं पानी भरती हूँ, इसमें एक अजीब सी खुशी होती है। धीरे -धीरे समय बीतता गया। दोनों बच्चे बड़े हो गये। बेटी की शादी तय हो गई। मैंने घर में फिर से रंगाई पुताई करवाया। सामने का बगीचा अब सुंदर लगने लगा था। फूल हमेशा कुछ न कुछ खिला रहता था।

ऐसा लगता था मानो मेरी खुशी का मूक गवाह है यह "घर"। पता नहीं क्यों मुझे हमेशा यह अनुभव होता कि इस घर में "जान" है । इन ईट पत्थर से बने हुए कमरों में भी "आत्मा " है, शायद, मेरी आत्मा इसमें निवास करती थी। बेटी की शादी धूमधाम से हुई। सबने इस घर को शुभ माना। कभी कभी " वह" कहते भी थे "घर से इतना मोह क्यों करती हो ?ईट पत्थर में कहीं जान भी होता है ? ?"

मैं जवाब नहीं देती, मगर मन में सवाल करती! ईश्वर भी तो पत्थर के होते हैं। हम तो उनकी पूजा किया करते हैं।


दिन बीतते गए। पति रिटायर हो गये। बेटे को नौकरी लग गई। अब धीरे- धीरे उम्र होने लगी थी। अब घर से बाहर निकलना कम होता था। घर में ही सुकून महसूस होता था। बेटी बुलाती "माँ उस दो कमरे के घर में बोर नहीं हो जाती हो ? यहाँ मेरे पास आकर रहो ---। न बेटी न ---यहाँ मैं ठीक हूँ, अब इसे उम्र में कहाँ जाऊँ? अब तो इस घर से मेरी जनाज़ा ही निकलेगी !

दिन बीतते गए अब बेटे की शादी की बात चलने लगी थी। शादी को घ्यान में रखते हुए इनके रिटायरमेंट के कुछ पैसों से ऊपर दो कमरे और डाल लिया था। घर को दुल्हन की तरह सजाया गया। बेटे की शादी धुमधाम से हुई। कुछ दिन और बीत गए। अब मेरी उम्र काफी हो गई थी। मैं बाहर बिलकुल नहीं निकल पाती हूँ। "उनकी "याददश्त भी कम हो गई है। वैसे बेटा अब नीचे और मैं ऊपर शिफ्ट हो गये थे। खुद की देखभाल खुद ही करती हूँ।

बेटे को मेरी बहुत चिन्ता है। कुछ दिनों के बाद जब मैं चल फिर नहीं सकुँगी तो मेरी देखभाल कौन करेगा?? जब मैं बीमार पडूँगी मेरी सेवा कौन करेगा ?? जब मैं खुद खाना नहीं बना सकूँगी, कौन मेरा खाना बना देगा ?? इन चिंताओं से बेटा "तनाव " में था। मैंने बेटा से पूछा "मुन्ना तू क्या चाहता है?"

बेटा निसंकोच बोला "माँ अगर तुम चाहो तो तुम्हारा प्रबंध मैं "आश्रम" में कर दूँगा, वहां तुम महफूज रहोगी। ऊपर की मंज़िल के किराए से तुम दोनों का काम चल जाएगा।

मैंने बेटे को चिन्ता मुक्त करते हुए आश्रम जाने का फैसला कर लिया। मैंने सोचा था मेरी जनाज़ा इस घर से निकलेगी, पर बिना मृत्यु के इस घर से मैं निकल रही हूँ। अरे घर तूझे क्या हुआ? तू क्यों रो रहा है? तुम्हें तो ईट पत्थर का बना है , तुझमें आत्मा थोड़े ही है ! आत्मा तो मेरे अंदर है, जो अब मर चुकी है। मैंने अपना वचन तोड़ा नहीं !

"मेरे अंदर आज एक अजीब सा ग़म है।"



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