काशी की महिमा
काशी की महिमा
काशी की महिमा
लेखक : विजय शर्मा एरी
शब्द संख्या : लगभग १५००
सूरज अभी पूरी तरह उगा भी नहीं था कि गंगा के घाटों पर पहली नाव खेना शुरू कर चुकी थी। कोहरा पानी पर इतनी गहराई से लेटा था मानो सदियों से कोई उठा ही न हो। उस कोहरे के भीतर से घंटियों की धीमी, गहरी ध्वनि उठ रही थी, जैसे कोई बहुत पुराना रहस्य धीरे-धीरे जाग रहा हो। मैं, अर्जुन मेहro, दिल्ली का एक साधारण-सा लेखक, पहली बार काशी आया था। लोग कहते हैं कि काशी बुलाती है। मुझे लगा था ये महज काव्यात्मक बात है, पर जब ट्रेन बनारस कैंट पर रुकी और मैंने प्लेटफॉर्म पर कदम रखा, हवा में अगरबत्ती और चंदन की जो हल्की-सी महक घुली थी, उसने मुझे अचानक बेचैन कर दिया, जैसे कोई अपना बहुत दिनों बाद मिला हो।
मैं दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर बैठा था। सामने गंगा बह रही थी, चुपचाप, गंभीर। उसके पानी में सुबह का धुँधला सूरज टूट-टूट कर बिखर रहा था। एक बूढ़ा पंडा मेरे पास आकर बैठ गया। उसका चेहरा इतना झुर्रीदार था कि लगता था सारी काशी की कहानियाँ उसकी त्वचा पर लिखी हैं।
“बाबूजी, पहली बार?” उसने पूछा।
“हाँ।”
“काशी को देखने नहीं, काशी को जीने आते हैं लोग। यहाँ मरना भी जीना है और जीना भी मरना।”
मैं हँस दिया। उसने गंभीरता से मेरी ओर देखा, “हँसिए मत। आज नहीं तो कल समझ आएगा।”
उस दिन मैंने पूरा घाट घूमा। मणिकर्णिका पर चिताएँ जल रही थीं। लकड़ियाँ चटक रही थीं, धुँआँ आकाश की ओर उठ रहा था। कोई रो नहीं रहा था। एक औरत अपने मृत पति की चिता के पास शांत बैठी थी, जैसे कोई प्राचीन मूर्ति। मैंने देखा, एक बच्चा चिता के पास से धूप बटोरकर अगरबत्ती जला रहा था। मृत्यु यहाँ उत्सव नहीं, पर दैनिक सत्य जरूर थी। मुझे अजीब लगा कि यह दृश्य भयावह होने की बजाय अपूर्व शांतिदायक था।
शरीर जा रहा था, पर आत्मा मुक्त हो रही थी। मैंने पहली बार महसूस किया कि मृत्यु भी गंगा की तरह बहती है, बिना रुके, बिना शोर मचाए।
शाम को मैं विश्वनाथ मंदिर गया। संकरी गलियाँ, दीवारों पर लाल-पीले रंग के निशान, दुकानों पर बाबा के चित्र, बेंजो की आवाजें, गुलाबजल की महक, सब मिलकर एक अजीब नशक्ल का नशा पैदा कर रहे थे। मंदिर के बाहर जूते उतारते समय एक युवा साधु ने मुझसे कहा, “अंदर फोटो मत खींचना बाबा नाराज हो जाते हैं।” मैंने मुस्कुराकर सिर हिलाया। अंदर पहुँचा तो भीड़ इतनी थी कि साँस लेना मुश्किल था। लोग धक्का मुक्की कर रहे थे, पर जैसे ही ज्योर्तिलिंग के सामने पहुँचे, सब शांत हो गए। एक क्षण भर को लगा समय रुक गया है। मैंने आँखें बंद कीं। अचानक लगा कोई मेरे कंधे पर हाथ रख रहा है। आँख खोली, कोई नहीं था। पर उस स्पर्श की गर्मी बनी रही। बाहर निकला तो माथे पर विभूति लगी थी, मुझे याद नहीं मैंने कब लगवाई।
रात को मैं अस्सी घाट पर था। कुछ विदेशी हिप्पी गिटार बजा रहे थे, कुछ साधु चिलम फूँक रहे थे, कुछ छात्र राजनीति पर बहस कर रहे थे। सब एक साथ, सब अलग। एक बूढ़ी माई चाय बेच रही थी। मैंने कुल्हड़ ली। उसने पूछा, “कितने दिन रहोगे बेटा?”
“पाँच-सात दिन।”
“पाँच-सात दिन में काशी नहीं समझ आएगी। यहाँ लोग पचास साल रहते हैं, फिर भी हर सुबह नया लगता है।”
उस रात मैं सो नहीं पाया। मेरे कमरे की खिड़की से मणिका का धुँआ दिख रहा था। मुझे लगा वो धुँआ मेरे भीतर घुस रहा है और मेरे सारे डर जला रहा है।
अगले दिन मैं संकट मोचन मंदिर गया। वहाँ एक बंदर ने मेरी जेब से पर्स छीन लिया। मैं दौड़ा। बंदर छत पर चढ़ गया। नीचे भीड़ जमा हो गई। सब हँस रहे थे। एक दुकानदार ने कहा, “बाबा हनुमान जी ने तुम्हारा अहंकार छीना है। पर्स वापस मिल जाएगा, चिंता मत करो।” आधे घंटे बाद बंदर ने पर्स नीचे फेंका। सारा पैसा गायब था, पर पासपोर्ट और कार्ड सुरक्षित थे। मैंने दुकानदार को देखा। वह मुस्कुराया, “देखा, सिर्फ जरूरी चीज छोड़ी न?” मैं हँसा। पहली बार मुझे लगा कि यह शहर मेरे साथ खेल रहा है।
फिर मैं सारनाथ गया। हिरणों वाला पार्क, धमे स्तूप, अशोक स्तंभ। वहाँ शांति थी, पर एक खाली शांति। जैसे कोई बहुत पुरानी बात याद आ रही हो जो भूल गए थे। म्यूजियम में उस बुद्ध मूर्ति के सामने मैं घंटों खड़ा रहा जिसके चेहरे पर वह रहस्यमयी मुस्कान है। लगा बुद्ध मुझसे कह रहे हैं, “तू भी तो यही ढूँढने आया है।”
एक शाम मैं ललिता घाट पर था। वहाँ एक बंगाली विधवा रहती थीं, लोग माँ कहते थे। मैं उनके पास बैठ गया। उन्होंने कहा, “बेटा, काशी में दो तरह के लोग आते हैं, एक जो भागते हैं, एक जो रुक जाते हैं। तुम किस्मत वाले हो, तुम रुक गए।” मैंने पूछा, “माँ, आप कब आईं?”
“पचास साल पहले। पति मरे, ससुराल वालों ने निकाल दिया। मैं गंगा में कूदने आई थी। घाट पर एक बाबा मिले। बोले, ‘मरने से पहले एक बार विश्वनाथ को माथा तो टेक ले।’ मैं मंदिर गई। बाहर निकली तो जीने की इच्छा हो गई। तब से यहीं हूँ।”
मैं चुप रहा।
आखिरी दिन मैं सुबह चार बजे उठा। गंगा स्नान किया। पानी इतना ठंडा था कि हड्डियाँ जम गईं, पर मन में आग लग गई। फिर मैं मणिकर्णिका पर गया। एक चिता पर बुजुर्ग की देह जल रही थी। उनके बेटे ने मुझे देखकर कहा, “पंडित जी, एक आहुति आप भी डाल दो।” मैंने लकड़ी उठाई, आग में डाली। उस क्षण मुझे लगा मैंने अपने भीतर के किसी मृत हिस्से को आग दे दी है।
ट्रेन पकड़ने से पहले मैं फिर विश्वनाथ मंदिर गया। इस बार भीड़ कम थी। मैं ज्योर्तिलिंग के सामने देर तक खड़ा रहा। आँखें बंद कीं। जब खोलीं तो लगा बाबा मुस्कुरा रहे हैं। बाहर निकला तो बारिश हो रही थी। मैं भीगता हुआ स्टेशन की ओर चला। रास्ते में एक बच्चा रंग-बिरंगे गुब्बारे बेच रहा था। मैंने एक गुब्बारा खरीदा और उसे आकाश में छोड़ दिया। वह ऊपर उठता गया, ऊपर, काशी के ऊपर, बादलों के पार।
ट्रेन छूटने वाली थी। मैं दौड़ा। प्लेटफॉर्म पर पहुँचा तो ट्रेन जा चुकी थी। अगली ट्रेन रात की थी। मैं मुस्कुराया। काशी ने मुझे एक दिन और रोक लिया।
मैं लौटा नहीं। आज दस साल हो गए। मैं अब भी अस्सी घाट पर रहता हूँ। सुबह गंगा स्नान, दिन में लेखन, शाम को विश्वनाथ दर्शन, रात को मणिकर्णिका की आग देखता हूँ। लोग पूछते हैं, “कब तक?”
मैं कहता हूँ, “जब तक काशी मुझे छोड़ेगी।”
क्योंकि काशी कोई शहर नहीं, काशी एक जिंदा साँस है। जो यहाँ आता है, वह कभी पूरा नहीं जाता। वह यहीं का हो जाता है। और जो यहाँ का हो जाता है, वह फिर कहीं नहीं जाता।
जय गंगे माँ!
जय बाबा विश्वनाथ!
जय काशी!
(शब्द : १५१०)
