Kunda Shamkuwar

Abstract Others

4.7  

Kunda Shamkuwar

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कागज़ का वह पुर्ज़ा...

कागज़ का वह पुर्ज़ा...

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लंच टाइम में मेरी ऑफिस की कलीग आज कुछ गुमसुम सी लगी। मैंने कुरेदने की कोशिश की, लेकिन वह ख़ामोश रही। मैंने हमेशा से ही उसे लाइवली देखा है। वह बेहद हेल्प फुल और सपोर्टिव है। ऑफिस में हम जब भी उसके साथ कैंटीन में चाय पीते थे तो अमूमन चाय का बिल वह खुद ही देती थी। लोगों से बातचीत करने का उसका अपना अंदाज़ था। वह जल्दी ही लोगों को अपना बना लेती थी। उसके व्यक्तित्व का वह चुम्बकीय आकर्षण ही था जो मुझे उससे जोडे रखता था।

शाम को मैं उससे मिलने उसके केबिन में गयी। 'तुम लंच में गुमसुम लग रही थी' मेरे यूँ पूछते ही वह इधर उधर देखने लगी। उसके नज़रें चुराने से मुझे उसके रोने का अंदाज़ा हुआ।मैं उठ कर उसके पास गयी और उसके आँखों से बहते आँसुओं को पोछने लगी। वह रोते हुए कहने लगी, "मेरे हस्बैंड के कागज़ात में कल कोई सुधा के नाम से कोई कागज़ मिला जिसमे उन्होंने उसके नाम से बैंक में किसी अर्ज़ी का जिक्र था।"

"ऐसे कैसे हो सकता है? तुम्हारा नाम तो सुधा नही है।"मेरे यह कहने से वह और जोर जोर से रोने लगी। मुझे उसका यूँ रोना अच्छा नही लग रहा था।मैंने कहा, "तुम्हें बैंक में जाकर पता कर लेना चाहिए। हो सकता है कि की यह सब तुम्हारा वहम हो। वह सिर्फ़ एक कागज़ का पुर्ज़ा ही हो।"

रात को सोते समय उसकी मुझे वह सब याद आया। कोई न कोई बात तो ज़रूर होगी। ऑफिस में हम कलीग्स के रिलेशन्स इतने कहाँ क्लोज़ होते है? हम ऑफिस में कहाँ मन की बात कर पाते है? 

मैं जानती हूँ, मेरी उस कलीग का रोना यूँ ही नही होगा...क्योंकि औरत ज़ात भांप लेती है अपने पति की हर एक वह छोटी बात....


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