काबिल
काबिल
रोज की तरह आज भी जब कार्तिक उठा तो उसे एक भयानक रुदन सुनाई पड़ा।वह तेज चाल से अपने कमरे से उस हॉल की ओर गया, जहां से आवाजे आ रही थीं।
वहां उसने देखा कि उसकी माँ सफेद चादर में लेटे एक व्यक्ति के सीने पर सर पटक पटक कर रो रही थी।बहन भी उसके हाँथ की कलाई को चूम,उससे बार बार सिसकती हुई पूछ रही कि तुमने इसी रक्षाबंधन पर ही तो ताउम्र मेरी रक्षा का वचन दिया था,फिर यूँ....।
यह देख कार्तिक के आश्चर्य का ठिकाना ना रहा उसने बारी बारी से सबके पास जाकर पूछना चाहा,कि आखिर ये जिसके समीप बैठ आप सब रो रहे हो, वह है कौन।पर आज जैसे किसी तक उसकी आवाज पहुँच ही नही रही थी।
वह बदहवास सा फिर अपने कमरे में पहुँचा तो देखा उसका बिस्तर खून से सना था,आसपास भी खून पड़ा था।जिसे देख अब वह भी घबरा गया औरवापस उसी हॉल में आ गया,जहां उसने अपने पापा को लोगो से कहते सुना कि अभी दो महीने पहले ही इसकी नोकरी छूट गई थी।जिससे वह गहरे अवसाद में था,बार बार कहता था कि पापा इससे मेरी काबिलियत पर प्रश्न चिन्ह लगता है।
"अरे मेरा होनहार बेटा, इतना भी ना समझ सका कि पढ़लिख कर अच्छी नौकरी करना ही काबिलियत की निशानी नही है।बल्की धैर्यपूर्वक जीवन मे आई विकट से विकट परिस्थितियों से जूझकर उससे उभर आना भी काबिलियत ही है।पर वह ऐसा ना कर सका, हां बेटा कार्तिक तू तो वाकई काबिल नही था "रे....।
