रचना शर्मा "राही"

Drama Romance

3.4  

रचना शर्मा "राही"

Drama Romance

जवाब उस संदेश का

जवाब उस संदेश का

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एक नया संदेश आते ही यकायक उसकी नजर वहीं ठहर गई -"उम्मीद करता हूँ, तुम मुझे भूली नहीं होगी। कोई अपने पहले प्यार को भला भूल भी कैसे सकता है।"

हाँ ! कोई भला अपने पहले प्यार को कैसे भूल सकता है?? यही सोचते हुए त्रिशा अतीत की गहराईयों में खो गई। उसका दिल परत दर परत खुलता गया। कल की ही बात हो जैसे।वो कॉलेज के दिन भी क्या दिन थे। सुहानी शामें, सजीली रातें। अपने माता-पिता की इकलौती संतान त्रिशा सबकी राजदुलारी थी। हर विषय में अव्वल। हर कार्य में दक्ष। जल्दी ही उसने कॉलेज में भी सबका दिल जीत लिया। पर बस एक अरुण ही था जिसका दिल जीतने में वो नाकाम रहती। गोरे रंग का, लम्बे कद का खूबसूरत नौजवान। वो हमेशा त्रिशा से खिंचा-खिंचा रहता। जितना त्रिशा उसके करीब जाती, वो उससे उतना ही दूर। त्रिशा अजीब दुविधा में फंसी थी। उसे तो अरुण के सिवा कुछ नजर ही ना आता। खाना भूल गई, पीना भूल गई। उसकी सहेली सविता जो उसकी राज़दार थी। उसको समझाती, उसको बहलाती। पर कोई हल निकलता ना देख सविता सीधा अरुण के पास गई और सारी हकीक़त बयान कर दी कि-त्रिशा सिर्फ तुम्हें चाहती है। तुम उसे ना मिले तो जाने वो क्या कर ले??

अरुण सविता की बात को गौर से सुनता रहा और बोला-तुम्हें क्या लगता है ?? मैं इस बात से अंजान हूँ। कुछ समझता नहीं। मैं सब जानता हूँ सविता। सब समझता हूँ। त्रिशा जैसी लड़की को कौन नहीं चाहेगा?? पर मेरी कुछ मजबूरियां हैं जिसके चलते मैं त्रिशा से जानबूझकर दूर रहता हूँ। मैं नहीं चाहता कि मेरी बदनसीबी का साया त्रिशा पर पड़े।

पर ऐसी कौन सी मजबूरी है तुम्हारी?? सविता ने यकायक सवाल दाग दिया उसपर। अरुण को जैसे कोई अवलम्बन मिल गया। उसने निरीह प्राणी की भाँति अपना दिल खोलकर सारी बात बयान कर दी -सुनो ! मैं दो भाइयों, दो बहनों में सबसे छोटा हूँ। माता-पिता ने संघर्ष कर मुझे पढ़ने के लिये शहर भेज दिया।उत्तर प्रदेश के छोटे से गाँव से कुछ सपने लिए यहाँ चला आया। बड़े भाई व दोनों बहनों की शादी हो चुकी है। बहनों की शादी के लिए पिता जी ने जो कर्ज ज़मींदार से लिया था बस पढ़ाई पूरी करके जल्दी से जल्दी वो कर्ज चुका दूँगा।   

     सविता ! मैं नहीं चाहता कि नाजों में पली त्रिशा मेरी जीवनसाथी बनकर अपना जीवन संघर्षों में गुज़ारे। मैं भी त्रिशा से बहुत प्यार करता हूँ पर उसे दुखी नहीं देख सकता। सविता ने त्रिशा को सारी सच्चाई शब्दश: बयान कर दी। पर कहते हैं ना प्यार गरीबी-अमीरी ,ऊँच-नीच में भेद नहीं करता। उस दिन से त्रिशा के दिल में अरुण के लिए इज्जत और बढ़ गई। उसने अरुण से कह दिया वो हर फैसले में उसके साथ है। दोनों एक-दूसरे का साथ पाकर फूले ना समाए। एक साथ पढ़ना, एक साथ घूमना। घंटों बातें करना। कैसे आखिरी साल आ गया ,पता ही ना चला। परीक्षा सर पर थी। सब तैयारियों में जुटे थे। त्रिशा और अरुण को चिन्ता थी तो दूर हो जाने की। त्रिशा ने अरुण को अपने घर बुलाया व माँ-पिता से मिलवाया। अपनी बेटी की पसंद पर उनको क्या एतराज हो सकता था ??उन्होंने दोनों को अपनी सहमति दे दी। अब तो मानो त्रिशा-अरुण को पंख लग गये। दोनों सुनहरे सपनों में खो गये। परीक्षा की तैयारियाँ भी ज़ोरों-शोरों से करने लगे। प्रथम श्रेणी जो लानी थी। परिक्षायें संपन्न हुई। दोनों के ही पर्चे अच्छे हुए। कॉलेज की छुट्टियां हों गईं। अरुण ने अपना सामान बांधा और फिर से आने का वादा कर गांव चला गया।

  कई दिन बीते ना कोई फोन ,ना कोई चिट्ठी। त्रिशा हर पल बस अरुण को याद करती। इधर दिन बीतते गए। परीक्षा परिणाम घोषित होने का समय आया तो अनायास ही त्रिशा के चेहरे पर मुस्कान छा गई। अरुण को देख पाने की खुशी थी यह। परिणाम घोषित हुआ। हर बार की तरह इस बार भी त्रिशा अव्वल थी। अरुण भी अच्छे अंकों से पास हुआ था। पर अरुण खुश नजर नहीं आ रहा था। त्रिशा अरुण को देखते ही उसके गले लग गई। उसने सवालों की झड़ी लगा दी- इतने दिन कहाँ व्यस्त थे??कोई फोन क्यों नहीं किया??कोई संदेश क्यों नहीं भेजा??

     अरुण बोलना चाहता पर त्रिशा ने उसे मौका ही कहां दिया। वो तो बस अपनी कहे जा रही थी। पर ये क्या?? अरुण कुछ कह नहीं रहा। चुप-चुप है। त्रिशा को उसका ये बदला व्यवहार समझ नहीं आ रहा था। खैर खुद को संयत कर,उसने कहा- अरुण! आज कुछ ठीक नहीं लग रहा। ना तुम्हारा व्यवहार और ना ही तुम्हारा उदास चेहरा। बताओ ना क्या बात है??? मैं अब तुम्हें और परेशान नहीं देख सकती।

     अरुण ने कहना शुरू किया-त्रिशा ! मुझे तुम अपनी जान से प्यारी हो। पर मेरे माता-पिता जिन्होंने इतना संघर्ष किया मेरे लिए। मुझे यहाँ तक पहुँचाया, वो भी पूजनीय हैं। आज मैं एक दुविधा में फंस गया हूँ जिससे निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा मुझे। त्रिशा ने कहा- यूँ पहेलियां ना बुझाओं अरुण !साफ-साफ कहो बात क्या है???अरुण ने कहा- तो सुनो ! बात यह है कि मेरे पिता को मजबूरी में मेरा रिश्ता जमींदार की बेटी से तय करना पड़ा। अगर वो रिश्ते के लिए हां नहीं करते तो हमारा घर और खेत सब नीलाम हो जाते। तुम ही बताओ त्रिशा! किस मुँह से तुम्हें फोन करता। ये सब बताता। पिता जी की बात कैसे टाल दूँ???तुमसे जो वादे किए वो कैसे भूल जाऊँ???अरुण ने तो अपनी बात कह दी। पर त्रिशा को तो काटो खून नहीं।कहाँ जाए?? क्या करे?? कुछ पता नहीं।आंखों के आगे अंधेरा छा गया। सारी दुनिया नीरस नजर आने लगी। त्रिशा चक्कर खाकर गिर पड़ी। अरुण ने त्रिशा को संभाला और उसे उसके घर छोड़ आया। उसके माता-पिता को सारी बात बताई और क्षमा भी मांगी।

     अरुण तो चला गया पर त्रिशा बेजान सी हो गई। हर पल उदास रहती। ना कुछ खाती ना कुछ पीती। ना किसी से मिलने जाती। ना ही किसी से बात करती। माता-पिता ने जब जाने-माने मनोचिकित्सक से सलाह ली तो उसने सुझाया कि- त्रिशा को कहीं दूर भेजे व वहीं आगे की पढ़ाई भी कराएँ। बस माता-पिता को बात समझ आ गई और दिल्ली छोड़ कर खुद भी अपना तबादला बंगलोर में करा लिया। नई जगह। नये कॉलेज में दाखिला।नये लोग। माहौल बदला तो त्रिशा की हालत में भी सुधार होने लगा। कहते हैं ना वक्त हर मर्ज़ का इलाज है। धीरे-धीरे स्नातकोत्तर की परीक्षा भी आ गई। हर बार की तरह अबकी बार फिर से अव्वल आई त्रिशा। माँ पिता तो बस खुशी के मारे झूम उठे।

     त्रिशा के लिए उन्होंने एक योग्य वर की तलाश आरंभ कर दी। जल्दी ही उनकी यह तलाश पूरी हुई। जीवन अपने नाम के अनुरूप ही जीवन से भरपूर ,हमेशा मुस्कराते रहने वाला ,सुलझा हुआ व खूबसूरत नौजवान था। प्रदेश के प्रतिष्ठित हॉस्पिटल में सर्जन। त्रिशा को देखते ही वो निहाल हो गया और हामी भर दी। त्रिशा को भी जीवन में कोई कमी ना नजर आई जो वो इस रिश्ते को मना करती। दोनों परिवार ही इस रिश्ते से खुश थे। जल्दी ही दोनों विवाह के बंधन में बंध गए।

     जीवन और त्रिशा एक दूसरे का साथ पाकर जैसे संपूर्ण हो गए। हर पल एक साथ रहना। साथ-साथ हर काम करना। बस कभी-कभी त्रिशा को अरुण की याद आती तो वो जीवन के और करीब आ जाती। दोनों एक-दूसरे को इतना प्यार करते कि लगता वर्षों से एक-दूसरे को जानते हैं। समय यूँ ही पंख लगाकर उड़ जाता है। दो प्यारे बच्चों के मम्मी-पापा बन गए दोनों। उनका आपसी प्यार और बढ़ गया। बच्चे कब बढ़े हो गए पता ही नहीं चला। बड़ा बेटा रोहित प्राइवेट हॉस्पिटल में सर्जन है व बेटी सरकारी कॉलेज में प्राध्यापिका।

     त्रिशा ने भी तो समाज-सेवा का कार्य चुन लिया है। गरीब बच्चों को पढ़ाना। बेसहारा लड़कियों के लिए सेन्टर खोल लिया है जिसमें सिलाई कढ़ाई व कम्प्यूटर कोर्स कराये जाते।अब समय मिलने पर त्रिशा खुद भी इंटरनेट की दुनिया से परिचित होने लगी। अपने कॉलेज के कितने लड़के लड़कियाँ उसे मिले फेसबुक पर। वो पुरानी बातें यादें ज़हन में आने लगीं। आज ही तो सविता से बात की थी। सविता ने तो उसे कह दिया कि वो तो बंगलोर आ कर सबको भूल गई। पर त्रिशा कहां भूली है सब।

     डोर बेल की आवाज होते ही बस वर्तमान में आ गई वो। सामने देखा तो जीवन खड़े हैं कह रहें हैं- किसके ख्यालों में खोई हो???त्रिशा घबरा गई जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो। बोली किसी के ख्यालों में नहीं। जीवन ठहाका मार कर हँस पड़े ,अरे! मैं तो मज़ाक कर रहा था और बोले-एक कप चाय बना दो जल्दी से और पकोड़े भी मिल जाए तो मजा आ जाए। 

     बस जीवन की इसी अदा की तो कायल है त्रिशा। त्रिशा ने फेसबुक बंद किया और किचन में आ गई। रात में उसने सोच लिया था। उसे उसका जवाब मिल गया था। सुबह जीवन और दोनों बच्चों के जाते ही उसने फेसबुक खोला और अरुण को संदेश लिखने लगी -पहले प्यार को कोई नहीं भूल सकता ना ही मैं भूली हूँ। पर मेरा पहला समर्पण मेरे जीवन के लिए है। वो जीवन जिन्होंने मुझे अपना बनाया। वो जीवन जिन्होंने मुझे अपनाया। जिन्होंने मुझे सबसे प्यार करना सिखाया। मुझे मातृत्व का सुख दिया। तुम मेरा पहला प्यार थे और वो मेरा आखिरी प्यार हैं। उम्मीद करती हूँ कि अब तुम मुझे फिर से ऐसा कोई संदेश नहीं भेजोगे।

     यह संदेश लिखकर जैसे त्रिशा के मन से एक बोझ हट गया। वो फिर से इंटरनेट की दुनिया में खो गई।

     


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