उसका फ़ैसला
उसका फ़ैसला


त्रिशा को देखकर कोई भी उसकी ओर अनायास ही आकर्षित हो सकता था । वो थी ही इतनी ख़ूबसूरत और जितनी खूबसूरत थी उतनी ही समझदार । उम्र का पच्चीसवां साल और खूबसूरती व समझदारी का ऐसा सम्मिश्रण बमुश्किल ही देखने को मिलता है।घर में माता- पिता व उसका भाई ये चार ही प्राणी थे । उसके पिता का अच्छा ख़ासा व्यवसाय था। मां घर की देखरेख करती । भाई कॉलेज में पढ़ता था । रुपए पैसे की कोई कमी नहीं।घर में नौकर चाकर थे । फिर भी मां ने दोनों भाई - बहनों को अपना काम स्वयं ही करने की आदत डाली थी । दोनों ही सदैव प्रफुल्लित रहते । हंसी ख़ुशी मां का भी हाथ बंटाते और नौकरों से भी अच्छा व्यवहार करते । मां- पिता के दिए संस्कारों का ही असर था कि सभी उनकी तारीफ़ किए बिना ना थकते ।
त्रिशा ने भी अपनी शिक्षा - स्नातक की उपाधि प्राप्त की और जुट गई नौकरी की तलाश में । रुपए कमाने से ज्यादा, उसको अपने पैरों पर खड़े होने की जल्दी थी । उसकी कोशिश रंग लाई और उसे एक सरकारी विद्यालय में नौकरी मिल गई। घर पर भी सब बहुत ही ख़ुश थे। यहां उसकी नौकरी लगी वहां उसके रिश्ते आने लगे। माता -पिता को उसकी शादी तो करनी ही थी ।अब तलाश शुरू हुई उसके लिए योग्य वर की। ढूंढते - ढूंढते उन्हें एक सुयोग्य वर मिल ही गया। लड़के का नाम था विजय। वो बैंक में मैनेजर था । उसका परिवार भी अच्छा था।
लड़के के माता पिता व उसकी बहन ।लड़के के परिवार में यही चार लोग थे । लड़के के पिता भी जाने माने डॉक्टर थे। रुपए पैसे की वहां भी कोई कमी नहीं थी । त्रिशा को भी उन लोगों ने देखते ही पसंद कर लिया । शुभ मुहूर्त देखकर विवाह भी संपन्न हो गया । त्रिशा के बिना उसका घर सूना सूना हो गया । ख़ैर समाज की रीत है,कौनसी बेटी अपने बाप के घर रही। सबको ही एक दिन दूजे घर जाना होता है।धीरे धीरे सब सामान्य होने लगा ।
त्रिशा ने भी अपना स्कूल फिर से ज्वाइन कर लिया। पर अब वो चुप चुप रहने लगी। उसकी साथी अध्यापिकाएं कुछ पूछती तो वो कहती - सब बढ़िया चल रहा है । अब अपने घर पर भी वो कम ही बात करती । माता पिता भी सोचते कि नई नई शादी है । वो अपनी घर गृहस्थी में व्यस्त है । एक बार स्कूल में कोई फंक्शन था । हर साल की तरह उसमें उसकी भी ड्यूटी लगाई गई । सभी शिक्षिकाएं अपनी अपनी ड्यूटी में व्यस्त थीं कि अचानक त्रिशा चक्कर खाकर गिर पड़ी । उसको उठाकर चिकित्सा कक्ष में लाया गया । जांच से पता चला कि उसका बी पी सामान्य से बहुत कम है । ख़ैर डॉक्टर ने दवाई देकर आराम करने की सलाह दी । फंक्शन भी जल्दी ही निबट गया । उधर विद्यालय में ही कुछ देर आराम करा प्रधानाध्यापिका ने त्रिशा को छुट्टी दे घर जाने की सलाह दी । त्रिशा जल्दी घर जाने को तैयार ही ना हो । उसे तो स्कूल ख़त्म होने के समय पर ही निकालना था । अब प्रधानाध्यापिका ने उसकी साथी अध्यापिका को बुलाया और उससे बात करने के लिए कहा ।
त्रिशा का रो रो कर बुरा हाल था । अब किसी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या बात है???त्रिशा रो क्यों रही है???कुछ बता क्यों नहीं रही है???जब साथी अध्यापिका ने ज़ोर देकर उससे पूछा तो जो त्रिशा ने बताया वो सुनकर सब हैरान रह गए । त्रिशा ने बताना शुरू किया - सब ध्यानपूर्वक सुनने लगे । एक के बाद एक सारी बातें बाहर आने लगीं - कि जैसे वो ससुराल में नहीं एक क़ैद में रह रही है। हां, और क्या???वो अपनी मर्ज़ी से ना बैठ सकती है,ना सो सकती है,ना कुछ खा सकती है ,ना ही कुछ पी सकती है और ना ही कुछ बोल सकती है।ये क़ैद नहीं तो और क्या है । इस सब से तो उसने जैसे समझौता ही कर लिया। पर यहीं पर तो सब ख़त्म नहीं हुआ । क्या क्या बताए वो कि उसके साथ कैसा व्यवहार होता है । साथी अध्यापिका ने उसे ढांढस बंधाया और अपनी आपबीती बताने के लिए प्रेरित किया।
संबल मिलते ही वो फूट पड़ी - शादी होते ही जैसे ही वो अपनी ससुराल आई,उसने इस घर को अपना मान लिया। पति को अपना हमसफ़र और उसके परिवार को अपना परिवार। मुंह दिखाई व बातों का दौर चलता रहा।वो शांत रह के सभी आदेशों का पालन करती ।अब वो स्वर्णिम पल आया जिसका हर एक नवविवाहिता को इंतज़ार होता है। वो घबराई सी बेसब्री से अपने पति का इंतज़ार कर रही थी। बाहर से हंसी मज़ाक की आवाज़ें आ रहीं थीं और अंदर वो सिमटी सी बैठी थी। थोड़ी देर में पतिदेव आए और अंदर से कमरा बंद कर दिया। अब वो निश्चिंत थी। वो उसके पास बैठे और बोलने लगे। वो खुश थी और ध्यान से सब सुन रही थी।अपने परिवार के बारे में बता वो कहने लगे कि "तुम्हारे लिए ये छोटा सा तोहफ़ा लाया हूं और त्रिशा के हाथ पर बीड़ी का बंडल और माचिस रख दी।ये रखकर वो बोला - बीड़ी तो पीती होगी तुम।" त्रिशा हैरान होकर देखती रह गई। इतने में विजय हंसने लगा और उसने कहा मैं तो मज़ाक कर रहा था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है। उसके बाद वही सब उपक्रम। जब तक कि उसका मन नहीं भर गया वो त्रिशा के शरीर के हर एक अंग के साथ खेला। वो बेबस, असहाय सी बस छूटने का प्रयास करती रही। त्रिशा को बख़ूबी समझ आ रहा था कि ये प्यार या अधिकार नहीं वासना है। अगली सुबह सब सामान्य। नहा धोकर सज कर बैठ जाओ। मुंह दिखाई व अन्य रस्में चलती रहीं। हंसी मज़ाक का दौर।वो दर्द से बेहाल थी। किसको क्या कहे??? फ़िक्र भी किसे थी। रात को रोज़ वही उपक्रम। दो दिन बाद पग फेरे का दिन आया।सबसे ज्यादा खुशी त्रिशा को थी ।उसका भाई जो आ रहा था उसे लेने। ससुराल वालों ने बताया कि शाम को ही वो विजय और उसकी बहन को उसे लेने भेज देंगे। त्रिशा का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया।घर पर तो वो क्या ही बताती। चार घण्टे कैसे बीत गए, पता ही नहीं चला।पति व ननद उसे लेने भी आ गए।उसकी आंखों में बेहिसाब आंसू।पर सबको लगा कि नई नई शादी है तो लड़कियां ऐसे ही भावुक हो जाती हैं।
अबकी वो ससुराल आई तो सबका अलग ही रूप देखकर चौंक गई। सास ने कहा - "बहू! ये रसोई है। मैंने बहुत कर लिया अब तुम संभालो।" ख़ैर काम करने में वो दक्ष थी। मां से सब काम करना सीखा था उसने। पर अपने हाथों की मेहंदी देखती तो अपनी सहेलियों की बातें याद आ जाती उसे। सहेलियों ने ही तो बताया था उसे कि हाथ की मेंहदी सूखने तक दुल्हनें पानी का कोई काम नहीं करती।पर यहां तो सास का आदेश था कि कपड़े भी हाथ से ही धोने है मशीन में नहीं। वर्ना विजय की मंहगी शर्ट ख़राब हो जाएंगी। झाड़ू पोछा भी ख़ुद ही करना है क्यूंकि कामवाली ठीक से नहीं करती। सुबह नाश्ते से लेकर रात के ख
ाने तक।सफाई से लेकर बर्तन मांजने तक सब काम उसको ही करने होते।रात का दूध सबके हाथ में देती।फिर रात को सासूमां के पैर दबाना निहायती जरूरी था।एक आदर्श बहू की पहचान।
अब उसने स्कूल जाना भी शुरू कर दिया।उसको हिदायत दी गई कि पासबुक व चैकबुक ससुर के पास रखनी है। सारे गहने सास के पास। उसका एटीएम कार्ड विजय के पास रहता। विजय ने उससे पासर्ड भी पूछ लिया था। उसे सख़्त हिदायत मिली थी कि अपने घरवालों से और सहेलियों से सीमित संबंध रखे।
अब उसका रूटीन था - सुबह झाड़ू लगाकर नहा धोकर नाश्ता बनाना फिर स्कूल जाना।स्कूल से आकर रसोई के कामों में लग जाना। शाम को झाड़ू पोछा लगाकर फिर खाने कि तैयारी।रात के बर्तन मांजना। सभी को दूध देना।फिर सासूमां के पैर दबाना।जब अपने कमरे में आती तो सोना कहा मिलता।अपने काम निबटाती।फिर विजय का इंतज़ार। विजय अपने मम्मी पापा के साथ ही सोता।देर रात में बस उसकी देह से संतुष्टि पाने आता। अब रोज़ का यही क्रम था। उसे समझ आने लगा कि वो एक मानसिक रोगी के साथ रह रही है।
सुबह ना उसकी उठने की हिम्मत होती थी और ना ही मन।फिर वही सब काम।मानसिक तनाव।धीरे - धीरे उसकी हालत गिरती जा रही थी।और घर के किसी भी काम में कोताही हो तो सास ताने मार मार कर उसका जीना मुहाल करती। ननद का रोज़ फोन आता। वो सारी पड़ताल रखती। ससुर भी कम नहीं थे।वो भी जब चाहे जो चाहे कहते रहते थे।विजय को कोई फर्क ही नहीं पड़ता था। अगर त्रिशा कुछ कहती तो वो गाली गलौच भी करता।सास ससुर विजय का ही साथ देते।त्रिशा के माता - पिता को भी गालियां देते। उसके बैंक से पैसे निकाल कर खर्च करते।विजय अपने लॉन उसी पैसों से चुकाता।
त्रिशा विजय को कुछ बताने की कोशिश करती तो वो उसी पर भड़कता। मां और पिता के पास ही बैठता। त्रिशा तो उस घर में आया और माया का ही काम कर रही थी बस। विजय बस उसका इस्तेमाल करने के लिए उसके पास आता था। ना अपनी मर्ज़ी से किसी से बात कर सकती थी । ना ही कुछ खा सकती थी। ना ही कुछ पी सकती थी। सासूमां उसकी हर बात पर निगरानी रखती। वो कैद में ही तो रह रही थी।
अपनी बात बताकर जैसे ही त्रिशा चुप हुई। चारों ओर सन्नाटा छा गया। इतनी ख़ूबसूरत, पढ़ी- लिखी , कमाऊ पत्नी और बहू पाकर भी उसके ससुराल वाले संतुष्ट नहीं थे। बड़ी हैरानी की बात थी। उन्हें पढ़ी लिखी कमाऊ नौकरानी चाहिये थी बहू नहीं। पर विजय का व्यवहार भी तो उसके प्रतिकूल था। ख़ैर साथी अध्यापिका ने उसे समझाया और मध्यस्तता केंद्र (पारिवारिक झगड़ों को सुलझाने के लिए बने) में जाकर बात करने की सलाह दी।और कहा कि अभी वो अपने घर जाए।और फिर सोच समझकर आगे फ़ैसला ले।
त्रिशा ने समय देखा तो रोज़ से एक घंटा ऊपर था।वो डरी डरी घर पहुंची और उस पर सवालों की बौछार होने लगी - इतनी देर क्यों हुई??अब तक कहां थी?? बताया क्यों नहीं?? स्कूल से फ़ोन क्यों नहीं किया??त्रिशा ने फंक्शन के बारे में बताया और ये भी बताया कि उसकी तबियत बिगड़ गई। ये सब सुनकर भी किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा। उसे डांटकर और काम निबटाने की हिदायत दे कर सास ससुर आराम करने चले गए। शाम को विजय ने आते ही उसे गालियां देना शुरू कर दिया। कहां घूमती रही ??इतनी देर से क्यों आई ??वो बोलती कुछ बताती कि सास ससुर ने ताने देने शुरू कर दिए। अब ये रोज़ का ही किस्सा था। दिन में काम और तानों की मार और रात में पति की दुत्कार।
अब स्कूल में भी सब पूछते रहते- क्या चल रहा है??वो तो बस ज़िंदा लाश बनकर रह गई थी। हमेशा हंसने , खिलखिलाने व चहकती रहने वाली त्रिशा अब ख़ामोश रहने लगी। माता - पिता से बात करती तो उन्हें भी लगता कि उन्होंने अपनी बेटी को कहां नर्क में झोंक दिया। सब उसे समझाते कि वो कोई फ़ैसला ले। मजबूत बने। नाजायज चीज़ों का विरोध करे। पर वो पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी। वो सब सही होने का इंतज़ार कर रही थी। पर बातें बनने की जगह बिगड़ती ही जा रहीं थीं। उसके माता - पिता कुछ दिन के लिए उसे अपने यहां ले आए। पर ससुराल में कोई फ़र्क नहीं पड़ा। विजय को उससे कोई लगाव नहीं था। त्रिशा ने तो सब विजय के सुपुर्द कर दिया था। उसकी हर एक याद हर एक अमानत विजय के घर थी। त्रिशा चाहती कि सब ठीक हो जाए और उसके परिवार वाले भी। पर विजय अपनी शर्तों पर उसे ले जाना चाहता। त्रिशा के माता - पिता कुछ समझाते तो उनको ही उल्टी - सीधी बातें बोलता। त्रिशा के माता - पिता ने उसके सास ससुर से भी बात की पर कोई हल ना निकला। उसके माता - पिता उसे दोबारा उस नर्क में भेजने के लिए तैयार नहीं थे। पर त्रिशा चाहती कि सब ठीक हो जाए। उसने कोशिश की । वो दो - तीन बार आई गई। पर ससुराल में किसी का रवैया नहीं बदला। वो चुप रहती सारे काम करती पर ना ही विजय ना ही उसके सास ससुर उससे खुश रहते। बात - बात पर ताने और मारने कि धमकी। ना वो स्कूल में ही ध्यान से अपनी नौकरी कर पा रही थी। ना ही घर में चैन से रह पा रही थी। उस पर भी विजय का उसपर हाथ उठाना। एक दिन की बात है रात को विजय शराब पीकर आया व त्रिशा के शरीर को यहां वहां नोचना शुरू कर दिया। वो दर्द से चिल्लाती और विजय उसे तड़पाता। अब रोज़ का यही किस्सा आम हो गया। सुबह सब सामान्य हो जाते।
एक बार स्कूल से आधी छुट्टी कर वो मध्यस्तता केंद्र में गई। वहां उसने अपनी आप बीती बताई। अधिकारी महिला ने उसकी बात सुनी और उसे ही समझाया। वो करे तो क्या करे। कोई रास्ता ही नज़र नहीं आ रहा था। उसके मन में बुरे-बुरे ख्याल आते। वो हर पल बस मरने के बारे में सोचती। उसके घरवालों ने उसे समझाया कि अब उसे ख़ुद एक सही फ़ैसला लेना चाहिए और विजय से अलग हो जाना चाहिए। समाज का डर। उसे अपने ऊपर तलाकशुदा औरत का ठप्पा नहीं लगवाना था। वो अब ऐसे रहने की आदी हो गई थी।
जब एक दिन विजय शराब के नशे में चूर अपने एक शराबी दोस्त को भी घर में ले आया तो त्रिशा ने विरोध किया। विजय ने उसे फिर मारा - पीटा और आज तो हद ही हो गई उसने त्रिशा को अपने दोस्त के सामने परोस दिया। जैसे ही उस पराए मर्द ने त्रिशा को छूने की कोशिश की। त्रिशा में जाने कहां से इतनी ताक़त आ गई और उसने मन ही मन फ़ैसला ले लिया। वहां से भागकर वो सीधा पुलिस स्टेशन गई। उसने विजय और सास ससुर के ख़िलाफ़ रिपोर्ट दर्ज़ कराई । अपने माता पिता के पास आ गई। उनको सारी बात बताई। आज उसके माता पिता संतुष्ट थे कि त्रिशा ने अपना फैसला खुद ले लिया था - "दोबारा ससुराल ना जाने का" ।