Gita Parihar

Inspirational

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जल संचयन की आवश्यकता

जल संचयन की आवश्यकता

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आज पूरी दुनिया में पानी के लिए हाहाकार मचा है ।यह हालात तब हैं, जबकि तीन तरफ से हम पानी से घिरे हुए हैं, खासकर भारत जैसे कृषि प्रधान देश में पानी की कमी होना भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है। अक्सर लोग पानी का दुरुपयोग करते रहते हैं और इसकी कमी की बात करते हुए किसी अन्य पर दोष मढ़ देते हैं।जल हम सभी के लिए प्रकृति का नायाब तोहफा है,मगर चूंकि यह निशुल्क था ,हम इसका दुरुपयोग करते- करते यहां तक पहुंच चुके हैं कि मोल देने पर भी मारामारी के बाद इसे हासिल कर पा रहे है। यह हमारी ही गल्ती है, जो ऐसे हालात पैदा हो रहे हैं। आज भी धरती के गर्भ में प्रचुर मात्रा में जल उपलब्ध है, आवश्यकता है तो बस इसके उचित उपयोग की। आज 16 करोड़ लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं दिल्ली, चेन्नई, पुणे समेत लगभग सभी मैदानी इलाके पानी की किल्लत झेल रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में जल संचयन पर सरकारों द्वारा अरबों खरबों का खर्च किया जा चुका है ,मगर आमजन को स्वच्छ जल की आपूर्ति संभव नहीं की जा सकी। बड़े महानगरों में लोग पीने के पानी के लिए आरओ पर निर्भर हैं, जबकि एक 25 लीटर वाली आरो फिल्टर मशीन चलाते समय हम 75 लीटर स्वच्छ पानी बर्बाद कर देते हैं। इस तरह के चार पांच व्यक्तियों वाले परिवार की आरो स्वच्छ जल की निर्भरता की वजह से प्रतिदिन करीब 150 लीटर स्वच्छ जल जाया होता है। वर्तमान जल संकट, जल के इस्तेमाल की वजह से नहीं, बल्कि बेहिसाब और मनमाने तरीके से जल का दोहन होने के कारण हुआ है। खेती की कुछ फसलें जैसे , धान में 70 फ़ीसदी पानी का ही इस्तेमाल होता है,इतना ही पहले भी हुआ करता था, किन्तु आज जनसंख्या बढ़ने के साथ अधिक उपज पैदा करना है तो अधिक जल की जरूरत भी है।  शहरीकरण, औद्योगिकरण और रोज नए निर्माण होने की वजह से नगरों में जलापूर्ति एक समस्या का रूप ले चुकी है। पेयजल की जो आज स्थिति है इसके अनेकानेक कारण है। उनमें से मुख्य कारण है, हमारी इस समस्या को समस्या न मानने की प्रवृत्ति। हम आज भी न तो कोई सकारात्मक प्रयास कर रहे हैं ना ही भरपूर योगदान कि इसके दुष्परिणाम से बचा जा सके। वर्तमान हालात हमारे सामने हैं, पर इसके बिगड़ते हालात को हम गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। उदाहरण के लिये वनों को लें, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई से आज बाढ़ की विभीषिका लगभग हर राज्य में है। प्रकृत्ति का शोषण हम पर भारी पड़ने लगा है। शहरीकरण की दौड़ में हमने जंगल साफ कर दिए ,पशु- पक्षियों से उनका बसेरा छीन लिया, नतीजा, वे शहर की ओर निकल आए, क्या अतिक्रमण का अधिकार केवल मनुष्य को ही है ? प्रकृति में हर प्राणी का जहां अपना महत्व है, वहीं दूसरी तरफ प्रकृति में उपलब्ध पानी, हवा, मिट्टी सीमित रूप से ही जीवन को पाल सकते हैं। प्रकृति खुले हाथ से देती है, तो क्या उसकी हमसे कुछ अपेक्षा नहीं है ? जीव -जंतु तक आवश्यकता से अधिक नहीं लेते, क्या हमने उन्हें किसी वस्तु का संग्रहण करते देखा है? नहीं,सिवाय मनुष्य के यह प्रवृत्ति किसी में शायद नहीं है। प्रकृति की अनमोल धरोहर को हमने दुर्लभ बना दिया है, तो इसके दंड की भागीदारी भी तो निभानी पड़ेगी ना ?जल का उपयोग सही रूप में कैसे करें,यह जानने के लिए बहुत पढ़े-लिखे होने या साधन संपन्न होना जरूरी नहीं है बल्कि निरंतर प्रयास की जरूरत है, भागीदारी की आवश्यकता है,स्वयं सीख कर औरों को जागरूक करना, यही करने की आवश्यकता है। जल ही जीवन है, अपना और अपनों का जीवन बचाना है तो जल का अपव्यय रोकना होगा।

 मात्र पुरस्कार और प्रशस्ति पत्र के लिए प्रयास नहीं करने हैं, न ही औरौं की सराहना की अपेक्षा की दरकार होनी चाहिए ,बल्कि जो काम हम करें, उस काम पर गरिमा का अनुभव करें कि प्रकृति से इतना कुछ लेने के बदले हम कुछ दे पा रहे हैं। उदाहरण लें लेह का,एक सूखा,ठंडा पर्वतीय इलाका!जहां जल स्त्रोत मात्र ग्लेशियर के पिघलने से मिलने वाला जल है।जहां श्री सोनम वांगचुक ने स्थानीय लोगों को साथ लेकर बर्फ के कोण आकर के स्तूप बनाए और वर्ष भर की जल उपलब्धता सुनिश्चित की। उत्तराखंड जल संस्थान ने बताया कि टॉयलेट फ़्लैश में पानी का बहुत अपव्यय होता है तो उसका उपाय है कि यदि हम टॉयलेट में लगी फ़्लैश की टंकी में प्लास्टिक की बोतल में मिट्टी भरकर रख दें,तो हर बार फ़्लैश करने पर 1 ली.जल बचाया जा सकता है।नगरों और महानगरों में घरों की गलियों के पानी को गढढा बनाकर इकट्ठा किया जा सकता है।इस पानी से भूजल की नमी को बरकरार रखा जा सकता है। 

गुजरात के द्वारका में खारे जल का उपयोग घरेलू कामों के लिए किया जाता था अब डी सलाइनेशन,यानी नमक निकालने कि प्रक्रिया के बाद पीने के काम में भी लाया जा रहा है।मध्य प्रदेश के कई गांव में स्वयं सहायता समूह द्वारा घरों की छतों पर ढंकी हुई टंकियां बनाकर और फिर उनमें नल लगाकर,पानी में क्लोरीन मिलाकर इस्तेमाल करना शुरू किया। राजस्थान को लें,सीमित वर्षा और रेतीली मिट्टी के कारण यहां पेयजल और खेती के लिये जल की हमेशा समस्या बनी रहती है।यहां के लोगों ने वर्षा चक्र के अनुसार जल संग्रह के अनेक उपाय विकसित किए; जैसे परम्परागत खड़ीन,टांका, नाडी और बेरी।जिन घरों में बेरी हैं ,वहां बेटी की शादी को प्राथमिकता दी जाती है।आज की परिस्थितियों में परम्परागत और प्राचीन जल संग्रहण विधियों को नवीन तकनीक की सहायता से पुनर्जीवित करने की महती आवश्यकता है।


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