ज़िंदगी की खुशियाँ (The Joys of Life)
ज़िंदगी की खुशियाँ (The Joys of Life)
यह कहानी है एक ऐसे इंसान की जो सादगी, मेहनत और अपने संस्कारों से अपनी ज़िंदगी को मिसाल बना गया – नदीर अली।
नदीर अली के पिता का नाम था नवाब अली, जो एक बेहद ईमानदार, सीधे और आदर्शवादी इंसान थे। उन्होंने अपने बेटे को सिखाया कि ज़िंदगी में सबसे ज़रूरी चीज़ इज़्ज़त, मेहनत और सच्चाई है।
नदीर अली ने बचपन से ही इन मूल्यों को अपनाया। सीमित साधनों के बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी।
नदीर अली की दो बहनें थीं, जिनसे उनका बहुत गहरा और प्यार भरा रिश्ता था।
जब नदीर अली की उम्र विवाह योग्य हुई, तो नवाब अली ने अपने बेटे के लिए एक सच्चे जीवनसाथी की तलाश शुरू की। उन्होंने अपने करीबी और विश्वासपात्र dost यासीन अली की बेटी अस्रुन निशा के बारे में सोचा।
अस्रुन एक बहुत ही सुलझी हुई, सादगी पसंद और संस्कारी लड़की थी। नवाब अली को लगा कि अस्रुन न केवल एक अच्छी पत्नी बनेगी, बल्कि पूरे परिवार को एकजुट रखने वाली बहू भी साबित होगी।
यही सोचकर नवाब अली ने रिश्ता तय किया, और पूरे परिवार ने इस रिश्ते को खुशी से स्वीकार किया।
नदीर अली और अस्रुन निशा की शादी बहुत सादगी से हुई, लेकिन उसमें रिश्तों की मिठास, दुआओं का असर और परिवार का आशीर्वाद शामिल था।
जब उनकी शादी हुई, तब वे मात्र 16 वर्ष के थे।
उनके पिता नवाब अली ने पारिवारिक सोच, परंपरा और रिश्तों की मज़बूती को ध्यान में रखते हुए अपने dost यासीन अली की बेटी अस्रुन निशा, जिनकी उम्र उस समय 13 वर्ष थी, से उनका रिश्ता तय कर दिया।
शादी सादगी और रीति-रिवाजों के साथ सम्पन्न हुई, लेकिन विवाह के बाद की परंपरा के अनुसार, अस्रुन निशा कुछ वर्षों तक अपने मायके में ही रहीं।उस समय की यह परंपरा थी कि लड़की की उम्र और समझदारी बढ़ने पर ही वह ससुराल आती थी।
नदीर अली की शादी के दो साल बाद, परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।
उनके पिता नवाब अली, जो एक सादगी पसंद और ईमानदार इंसान थे, सरकारी नौकरी में कार्यरत थे, और मिल (कारखाने) में सेवा करते थे। वे परिवार के एकमात्र सहारा थे।
लेकिन किस्मत ने कुछ और ही तय कर रखा था — एक दिन अचानक नवाब अली का निधन हो गया।
उस समय नदीर अली की उम्र बहुत कम थी, और सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्हें कोई काम नहीं आता था। ना कोई हुनर, ना कोई नौकरी का अनुभव — बस एक सादा दिल और पिता की सीख उनके पास थी।
घर में जिम्मेदारियों का बोझ अचानक उनके कंधों पर आ गया। एक तरफ पिता का साया उठ गया था, दूसरी तरफ पत्नी अस्रुन निशा अब ससुराल में आ चुकी थीं।
मां, बहनें, पत्नी — सभी की उम्मीदें अब एक युवा नदीर अली से थीं, जो अभी खुद जीवन के पहले पड़ाव में खड़ा था।
इस कठिन समय में नदीर अली ने हार नहीं मानी। उन्होंने धीरे-धीरे काम सीखना शुरू किया, लोगों के बीच इज्ज़त कमाई, और अपनी मेहनत से परिवार को संभालने का प्रयास किया।
नवाब अली के गुजर जाने के बाद, नदीर अली की ज़िंदगी जैसे एकदम ठहर सी गई थी।
पिता का साया सिर से उठ चुका था, और उनके साथ ही वो अनुभव, वो मार्गदर्शन, और वह भरोसा भी चला गया जिसे पकड़कर नदीर अली अब तक जीवन की राह पर चल रहे थे।
"अब क्या करूं?" – यही सवाल उनके दिल-दिमाग में हर रोज़ गूंजता था।
उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। ना कोई राह दिख रही थी, ना ही कोई रास्ता पकड़ने का साहस बचा था। वो अक्सर चुप रहते, सोच में डूबे रहते।
हर चीज़ जैसे बेमानी लगने लगी थी।
इसी बीच, अब उनकी पत्नी अस्रुन निशा भी पूरी तरह से ससुराल में आकर रहने लगीं।
वो भी बहुत छोटी थीं, लेकिन समय से पहले जिम्मेदारी ने उन्हें परिपक्व बना दिया था।
घर का माहौल भारी था, लेकिन अस्रुन ने धीरज नहीं खोया। वो नदीर अली के साथ खामोशी से खड़ी रहीं – एक सच्चे जीवनसाथी की तरह।
अस्रुन न सिर्फ घर का काम संभालने लगीं, बल्कि अपने शांत व्यवहार और समर्पण से घर में फिर से एक विश्वास का माहौल बनाने लगीं।
उनकी मौजूदगी धीरे-धीरे नदीर अली के भीतर की टूटी हुई हिम्मत को जोड़ने लगी।
हालाँकि हालात बहुत कठिन थे, लेकिन यही वो समय था जिसने नदीर अली को एक लड़ने वाला इंसान, एक ज़िम्मेदार पुरुष और एक परिवार के सहारे में बदलना शुरू किया।
नदीर अली के जीवन में एक के बाद एक संकट आता चला गया।
पिता नवाब अली जब तक जीवित थे, तब तक उनके सरकारी मिल की नौकरी और जो थोड़ी-बहुत जमीन-जायदाद थी, उससे घर किसी तरह चलता था।
लेकिन जब नवाब अली का ऑपरेशन के दौरान निधन हुआ, तब सिर्फ एक पिता ही नहीं गए — साथ में वो सब कुछ भी चला गया, जो उन्होंने सालों की मेहनत से कमाया था।
जो ज़मीन नवाब अली ने खरीदी थी, वो भी इलाज और ऑपरेशन के खर्चों में बिक गई।
घर की नींव जैसे हिल गई थी। अब न तो जमीन बची थी, न कोई रोजगार, और न ही कोई सीधा सहारा।
नदीर अली के लिए ये समय सबसे कठिन था।
एक तरफ पिता का ग़म, दूसरी ओर बीवी अस्रुन निशा की नई जिम्मेदारी, और अब घर की आर्थिक हालत भी पूरी तरह डगमगा चुकी थी।
जो कुछ भी बचा था, वो बस एक छोटा सा घर और एक उम्मीद थी — कि शायद मेहनत और खुदा पर यकीन से फिर कुछ बन सके।
नदीर अली के पास कोई व्यवसाय या हुनर नहीं था, लेकिन उन्होंने मन में ठान लिया कि वे हार नहीं मानेंगे।
अब जो ज़मीन बिकी थी, उसकी जगह उन्होंने इरादों से ज़मीन तैयार की – मेहनत की ज़मीन।
नदीर अली की ज़िंदगी उस दौर से गुजर रही थी जहाँ उन्हें सिर्फ सहारे की ज़रूरत थी — थोड़ी हिम्मत, थोड़ी मदद, और थोड़ी अपनापन।
हालाँकि उनकी दो बहनों की शादी सरकारी नौकरी वाले घरों में हुई थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, उनके व्यवहार में बदलाव आ गया।
जहाँ नदीर उम्मीद कर रहे थे कि बहनें मायके को सहारा देंगी, वहीं उन्हें बातों में पैसे का घमंड और अपने ऊँचे रुतबे की झलक मिलने लगी।
जब भी वो घर आतीं, उनके शब्दों में अपनापन कम, ताने और तुलना ज़्यादा होती।
कभी कहतीं –
"हमारे घर में तो अब सबकुछ मशीन से होता है, तुम लोग अब भी हाथ से कपड़े धोते हो?"
कभी कहतीं –
"सरकारी नौकरी वालों का जीवन कुछ और ही होता है, तुम्हें क्या पता?"
नदीर अली, जो पहले उम्मीद लेकर उनकी तरफ देखते थे, अब चुप रहना सीख गए।
उन्होंने जाना कि रिश्ते खून से नहीं, व्यवहार से निभते हैं।
उनकी माँ का दिल भी इन बातों से दुखी था, लेकिन वो हमेशा बेटे से कहतीं –
"बेटा, ज़िंदगी में अपना स्वाभिमान मत खोना। जो ताने दे, उनसे दूर रह, लेकिन बदले में बदतमीज़ी मत करना। खुदा देख रहा है।"
इन बातों ने नदीर अली को अंदर से और मजबूत किया।
उन्होंने मन में ठान लिया —
अब किसी से उम्मीद नहीं करनी है। खुद ही मेहनत करनी है, और खुदा से ही आस रखनी है।
कानपुर के एक छोटे से मोहल्ले संगीत टॉकीज की पुरानी गलियों में, एक सादा सा घर था —
वहीं रहते थे नदीर अली, अपनी माँ और पत्नी अस्रुन निशा के साथ।
ये वही घर था जहाँ कभी पिता नवाब अली की सरकारी नौकरी की वजह से इज्ज़त और रौनक थी।
लेकिन उनके गुजर जाने के बाद, घर की दीवारें भी जैसे गवाही देने लगी थीं गरीबी की।
अब कोई चूल्हा चलाने वाला नहीं था,
ना ही घर में आने वाले पैसों की कोई उम्मीद।
नदीर अली, जिनके पास कोई हुनर नहीं था,
अब संगीत टॉकीज के आस-पास के बाजारों में छोटा-मोटा काम ढूंढने निकलते।
कभी किसी दुकान में सामान उठाने का काम,
सगीर तकिया की वही गलियाँ, जो कभी सिर्फ गुजरने का रास्ता थीं,
अब संघर्ष, आत्मसम्मान और उम्मीद का रास्ता बन चुकी थीं।
माँ हर सुबह उनके सिर पर हाथ रखकर कहतीं:
"जाओ बेटा, रोज़ी कहीं भी मिले — बस हराम का न हो। खुदा तेरी मेहनत देख रहा है।"
पत्नी अस्रुन निशा, घर का सारा बोझ उठाती, बिना शिकायत के,
और जब नदीर शाम को थका-हारा लौटता,
तो चुपचाप गिलास में पानी और आँखों में भरोसा लिए खड़ी रहती।
अब नदीर अली की ज़िंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगी थी।
उनका छोटा सा घर कानपुर के संगीत टॉकीज इलाके की एक पुरानी गली में था —
जहाँ एक वक्त फिल्मों के पोस्टर लगते थे, अब लोग नदीर अली के संघर्ष की मिसालें दिया करते थे।
चड़े की चप्पल बनाने का काम उन्होंने इतने मन से किया, कि फैक्ट्री में सब उन्हें "मज़बूत हाथों वाला ईमानदार लड़का" कहने लगे।
अब लोग अपने रिश्तेदारों के लिए भी उनसे चप्पल बनवाने की सिफारिश करने लगे।
संगीत टॉकीज की गलियाँ, जहाँ पहले सिर्फ भीड़ और शोर होता था,
अब वहाँ से रोज़ शाम को एक थका-हारा लेकिन गौरवशाली इंसान गुजरता था —
जो अपने पसीने की कमाई से ज़िंदगी को सजो रहा था।
माँ की आँखों में अब रोज़ राहत थी,
पत्नी अस्रुन निशा हर दिन घर को सजा-संवार कर रखतीं —
क्योंकि अब घर सिर्फ एक जगह नहीं था,
वो सम्मान, संघर्ष और सफलता की कहानी बन गया था।
उनकी ज़िंदगी की खुशियाँ
