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Akanksha Gupta (Vedantika)

Abstract

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Akanksha Gupta (Vedantika)

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जिंदगी का बाजार।

जिंदगी का बाजार।

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बाजार सज चुका था। जरूरत और मनोरंजन के साजो सामान से दुकाने भरी हुई थी। हर दुकानदार अपना सामान बेचने के लिए ग्राहक को खुश करने में लगा हुआ था। ग्राहक भी अपनी मनपसंद चीज खरीदने के लिए कोई भी कीमत देने के लिए तैयार थे। बस फर्क सिर्फ इतना था कि सभी ग्राहकों को अपनी मनपसंद या जरूरत की चीज खरीदने के लिए बोली लगानी पड़ती थी और जिस ग्राहक की बोली सबसे अधिक होती थी, उस चीज पर उस ग्राहक के नाम का ठप्पा लगा दिया जाता था।

ऐसे ही एक जगह दुकान सजी हुई थी और लोग बोली लगा रहे थे। कोई कम बोली लगा रहा था तो कोई ज्यादा लेकिन उस दुकानदार का सामान अभी तक नहीं बिका था।

वह बोली खत्म होने का इंतजार कर रहा था कि तभी एक ग्राहक उसकी दुकान पर आया और बोला-“तुमने जो सामान हमे छह महीने पहले दिया था, अब वो हमारे किसी काम का नहीं। तुम इसको बदल कर कुछ नया सामान दिखाओ। तुम्हें वाजिब दाम मिलेगा।


“अरे हुजूर, आपकी मदद के लिए यह नाचीज जब चाहे तब हाज़िर है। इस बाजार में पुरानी चीज़ो के भी अच्छे दाम मिल जाते है। इस बाजार में इन सामानों के कलपुर्जों की भी अच्छी कीमत वसूल हो जाती है। यह जिंदगी का बाजार है साहब, यहाँ हर नये-पुराने शरीर की कीमत है। आप जो कहे वैसा माल दिखाऊं।” खीसे निपोरते हुए दुकानदार ने माल की नई खेप ग्राहक के सामने खोल दी। वो पुराना सामान फिर से रखा जा रहा था बिकने के लिए जिंदगी के बाजार में।



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