ज़िंदा है मुझ में !
ज़िंदा है मुझ में !
जब भी अकेले में होती हूं बरबस ही अपने बचपन में पहुंच जाती हूं जो अत्यंत तकलीफदेह होता है जिसे मैं याद भी नहीं रखना चाहती लेकिन चाहने या न चाहने से क्या होता है। अनचाहा तो बार-बार अपने आप ही गले पड़ता है पीछा ही नहीं छोड़ता, यही मेरे साथ भी होता है। जी करता है आज आपको बता ही दूँ -- हमारा दस लोगों का खुश हाल परिवार था, मैं पांचवें नंबर पे और मुझसे एक और छोटा भाई, मुझसे बड़ी तीन बहनें, एक भाई। दादाजी, मम्मी-पापा और एक चाचा जो जन्म से ही मंदबुद्धि थे फिर भी वे बहुत प्यार करते थे हम बहन-भाईयों को।
मेरे पापा को चाचा जरा भी अच्छे नहीं लगते थे जब-तब उनको डांटना-फटकारना, मारना, बेइज्जती करना वगैरह हर तरह से टाॅर्चर करते रहते। माना कि चाचा को ज्यादा समझ नहीं थी फिर भी संवेदनात्मक स्तर पर बखूबी महसूस करते थे, बस काम के मामले में उनसे कभी-कभार भूल हो जाती फिर तो उनकी स्थिति..ओह, जो मिजरेबल हो जाती थी कि देखने वाले रोंगटे खड़े हो जाते। बेचारे दादाजी लाचार, बचाने जाते तो पापा उनका भी लिहाज नहीं करते, एक बार तो हद ही हो गई पापा ने दादाजी को इतना ज़ोर का धक्का दिया कि खंभे से टकराने के कारण सिर फूट गया, जो चाचा थर-थर कांपते-कांपते रोज़ मार खाता था आज तो आश्चर्य हो गया, चाचा ने पलटकर पापा को वो मारा कि पापा हैरानी और असावधानी में लड़खड़ाते हुए गिर पड़े, आज पहली बार ऐसा हुआ बेचारे बीस साल से पापा की मार खा रहे हैं, दादी माँ भी चाचा को दो साल का छोड़ कर इस दुनिया से कूच कर गई। उन्हीं दिनों मम्मी-पापा की शादी हुई थी दादाजी ही संभालते थे चाचा को ...उनका विकास आम बच्चों की बनिस्बत बहुत धीमा था दादाजी बेचारे काम पे जाते तब भी साथ ले जाते घर में कौन देखता, पापा ने मना कर दिया - "सरोज कैसे करेगी, काम भी करना पड़ता है वो भी तो पेट से है।" लेकिन रोज़ ले जाना भी संभव नहीं था साल भर जैसे-तैसे चलाया। बाद में नहला-धुला के, दूध खाना वगैरह सब करके जाते इसलिए बहु से रिक्वेस्ट की थोड़ा ध्यान रखे। ध्यान तो क्या मम्मी की शिकायत पर पापा उस अबोध बच्चे को मारते, बस बेचारे चाचा तब से जानवर की तरह मार खा रहे हैं लेकिन आज ,सच में घोर आश्चर्य ही था परिणाम जो हुआ अत्यंत दर्दनाक रहा।
पापा, चाचा को पागल ही कहते थे, मम्मी भी, बाद में सारे बहन-भाई भी पर मुझे कभी यह अच्छा नहीं लगा मैंने हमेशा चाचा ही कहा हम दोनों में बहुत प्यार था। बस, पापा उस पागल द्वारा किया गया अपमान भला कैसे सहन करते, चाचा को इतना-इतना मारा कि चाचा ने ठेंगा दिखा दिया इस दुनिया को ही मगर पापा तो तब भी मारते रहे जब तक खुद थक नहीं गए। उसके बाद क्या हुआ पता नहीं, मैं उस वक्त आठ साल की थी। दादाजी अक्सर मुझे बांहों में भर के रोते, मुझे भी बहुत रोना आता। पापा से मैंने अपनी तरफ से कभी बात नहीं की। दादाजी अब बिल्कुल चुप रहते, चाचा आज भी मुझ में जिंदा हैं और पापा मेरे लिए जिंदा नहीं है।