जीवनसाथी

जीवनसाथी

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शोभना को मायके गये हुए पूरे छः दिन गुजर चुके हैं ! हर दिन ऐसे सुकून से गुजरा, एक बार को भी ऐसा कुछ न हुआ, जो मन की मर्जी का न रहा हो ! न शोभना के दिन भर टोकने वाले टोटके, न ही विप्लव की बार-बार की फर्माईशें। किसी के लिए कुछ नहीं लेकर नहीं आना, बाजार नहीं जाना, मोल-भाव, खरीददारी कुछ नहीं, किसी के लिए कुछ नहीं करना। न जूते घर के बाहर उतारकर अन्दर आने की चकल्लस, न ही खाने से पहले अलग-अलग तरह से हाथ धोने-सुखाने का दिखावा। सबकुछ ऐसे ही जिन्दगी भर के लिए चलता रहे, तो कितना अच्छा हो। लेकिन ऐसे भला कैसे हो जायेगा? छः दिन गुजर गये और बस छः दिन ही बाकी हैं। उसके बाद उसे लेने के लिए भी मुझे ही जाना है। ये भी भला क्या मजबूरी है, अपनी मुसीबत को खुद ही बुलाने भी जाओ।

ख्याल इतने कि पल भर को दिमाग रूकने को तैयार नहीं। आखिर होता भी क्यों न ! सरल के पास तो अभी सबकुछ सोचने-समझने और उस पर अपनी मनमर्जी चलाने के लिए वक्त ही वक्त था। सरल और शोभना की शादी को आठ साल गुजर चुके थे। इतने सालों में ऊपर वाले ने जिन्दगी के तमाम रंगों से उन दोनों को ही ढेर रू-ब-रू कराया था। जिन्दगी के कई-कई मुद्दों पर विचारों की ढेर अनबन के बावजूद दोनों को शादी के रिश्ते ने इस तरह जोड़ रखा था कि उनकी इकलौती संतान विप्लव को उसके मम्मी-पापा दुनिया के सबसे अच्छे मम्मी-पापा लगते थे। हर वक्त उसकी इकलौती बड़ी फर्माईश यही होती थी कि उसे मम्मी-पापा दोनों हमेशा ही साथ चाहिए होते थे। यही एक बड़ी वजह थी कि रिश्तेदारों के बीसियों बुलावों के बाद भी ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि सरल और शोभना को अलग-अलग रहना पड़ा हो। पर इस बार जरूरत बिल्कुल अलग थी।

शोभना की छोटी बहन बस कुछ ही दिनों माँ बनने वाली थी। सभी करीबी नाते-रिश्तेदारों ने आपस में तय करके थोड़े-थोड़े दिन उसके पास रूकने और उसकी देखभाल करने जिम्मेदारी उठाने का फैसला किया था। शोभना की माँ काफी अर्सा पहले ही दुनिया को छोड़ चुकी थीं। उस लिहाज से छोटी बहन की तरफ शोभना की जिम्मेदारी और भी बढ गयी थी। बाकी सारे रिश्तेदारों से बातें करके सारी गणनाओं के हिसाब से छोटी बहन के साथ रहकर उसकी देखभाल करने के लिए बारह दिन की जिम्मेदारी शोभना के हिस्से में आयी थी। शोभना ने सरल से कहा था कि वो कुछ दिन के लिए आॅफिस से छुट्टी लेकर विप्लव और उसके साथ उसके मायके चले। पर इन बारह दिनों के लिए तो सरल के दिमाग में कुछ और ही कार्यक्रम तय थे। आॅफिस की जरूरतों के बहाने से सरल ने शोभना को अकेले मायके जाने के लिए राजी करा लिया था। उन्हीं बारह दिनों में से छः दिन बीत चुके थे।

इन छः दिन की जिन्दगी में सरल को महसूस होने लगा था, अभी तक तो वो जैसे जिन्दगी से ही दूर था। अपनी खुद की खुशियाँ, अपने इरादे, अपनी चाहतें, सबकुछ ही तो वो जैसे अपने परिवार के नाम करके अपनी जिन्दगी से कहीं बहुत दूर बिल्कुल ही अलग मझधार बीच खड़ा था। पर इन गुजरे छः दिनों ने जैसे उसे वापस जीना सिखा दिया था। मन ही मन चलते ख्यालों की उड़ान कुछ ऐसी थी कि अब वो यहाँ तक सोचने लगा था कि ऐसा क्या किया जाये, शोभना को उसे वापस बुलाना ही न पड़े। वैसे भी शोभना के मायके में बूढ़े पिता और छोटे भाई के अलावा कोई और रहने वाला भी नहीं है। कुछ बहाना करके पहले कुछ दिनों के लिए और फिर धीरे-धीरे दिमाग लगाकर शोभना को हमेशा के लिए उसके मायके में भिजवा दिया जाये, तो कितना अच्छा रहे। सोचते-सोचते सरल ने मोबाईल फोन पर शोभना के नाम की काॅल कनेक्ट कर दी।

मोबाईल फोन की घण्टी बजकर बंद हो गयी पर उधर से कोई जवाब नहीं आया। शायद वो किसी काम में लगी होगी, सोचकर सरल ने फोन मेज के एक किनारे पर रख दिया। ऑफिस से आने के बाद जूते-मोजे उतारकर पहले ही वो कमरे में बिखेर चुका था। अब पतलून और शर्ट की बारी थी। कमर पर बँधी बेल्ट ढीली करके पतलून के बटन उसने खोल दिये। जब तक पतलून नीचे लुढ़कती वो शर्ट के बटन खोलने में जुट गया। कपड़ों की कैद से फटाफट निपटारा पाने की जिस हड़बड़ी में सरल था, नतीजा ये हुआ कि आस्तीनों के बटन खुले बिना ही उसकी शर्ट सीने से उतरकर पीछे की तरफ पहुँच हाथों में अटक गयी। शर्ट की इस कैद से छुटकारा पाने की जो थोड़ी कोशिश और की, पैरों में अटकी पड़ी पतलून ने अपना कारनामा दिखाया। जल्दबाजी में थोड़े से लड़खड़ाये जिस्म पर कारनामा दिखाया जमीन पर औंधे पड़े जूतों ने। अगले ही पल धड़ाम की एक जोरदार आवाज के साथ सरल का बदन जमीन पर टकरा चुका था।

सरल का सर ऐसे जोर से चकराया कि दो पल को तो उसे पता ही न चला आखिर हुआ क्या है? चोट के बढ़ते दर्द से बंद आँखें खुलीं, तो खुद-ब-खुद जुबान से आवाज निकल पड़ी-

‘‘आह ! शोभना !‘‘

पर शोभना वहाँ थी ही कहाँ? सरल ने सोचा दर्द को कम करने के लिए बेहतर है दो पल को ऐसे ही आँखें बंद करके जमीन पर पड़ा रहा जाये। वो पीठ जमीन पर टिकाकर लंबी-लंबी साँसें भरने लगा। तभी उसे महसूस हुआ, जैसे पानी की कोई धार बहकर उसके दाहिने हाथ को गीला कर रही है। पूरे बदन में दर्द इतना ज्यादा था कि आँख खोलकर कुछ देखना भी मुश्किल हो रहा था। पर वो गीलापन बढ़ता ही जा रहा था। बड़ी मशक्कत से सरल ने गर्दन घुमाकर अपने दाहिने हाथ की तरफ देखा।

सरल ने जो देखा, उसके होश तो जैसे फाख्ता उड़ गये। उसकी पतलून की बेल्ट का बक्कल उसकी कलाई में इस तरह से धंसा था कि खून की एक धार बह पड़ी थी। हाथ पर जो गीलापन सरल को महसूस हो रहा था, वो उसका खुद का खून था। अब तो सरल को फौरन उठकर बहते खून को रोकना ही था ! लेकिन ये क्या? उठना तो दूर, वो तो अपनी जगह से हिल भी नहीं पा रहा था। पर उठना जरूरी था। खून इसी तरह से बहता रहा, तो कुछ ही देर में उसके पूरे जिस्म में खून की बूँद भी नहीं बचने वाली थी। एकदम से मौत के ख्याल ने सरल की साँसें चढ़ा दीं। अभी तक वो जिस शोभना से दूर रहकर जिन्दगी की खुशहाली जीने की बात सोच रहा था, उसी शोभना को वो इस वक्त कितना याद कर रहा था, वो खुद भी नहीं जानता था। शोभना नहीं, तो बेटा विप्लव ही अगर यहाँ होता, तो कम से कम बक्कल निकाल कर खून के रिसाव को तो कम कर ही देता। दर्द और डर की मिले-जुले अहसासों से सरल की आँखें बोझिल होती जा रही थीं। नजरों के आगे एक अजीब सा अंधेरा छा रहा था। ठीक तभी जैसे उसके कान एकाएक तन कर खड़े हो गये।

कानों पर सुर-लहरी बनकर एक आवाज गूँजने लगी थी। उसके चेहरे पर एकाएक खुशी दौड़ पड़ी। ये उसके मोबाइल फोन की आवाज थी। जरूर शोभना ने मोबाइल फोन उठाकर देखा होगा और वही उसे काॅल कर रही होगी। फौरन सरल ने कोशिश की कि वो उठकर मोबाइल फोन सीधा कान पर लगा ले और शोभना को सारी गयी-गुजरी कह सुनाये। पर ये अब भला कहाँ मुनासिब था ! उठने की बात तो दूर, उससे तो हिला भी नहीं जा रहा था। शोभना अगर इस वक्त यहाँ होती, तो सरल के दर्द को देखकर सरल से पहले उसकी आँखों में आँसू आ जाते। और विप्लव को तो अगर जरा भनक भी लग जाती कि उसके मम्मी-पापा में से कोई परेशान या नाराज है, वो खुद दहाड़ें मार-मारकर रोने चीखने लगता। परिवार यही तो होता है। एक-दूसरे की खुशी से सुख। एक-दूसरे के गम से, उससे ज्यादा बढ़कर दुःख। सब सोचते-सोचते सरल की आँखें नमकीन बूँदों से छलछला उठीं।

मोबाइल फोन लगातार सरल को आवाज दिये जा रहा था। सारी आवाजें उसके कानों में अच्छे से पड़ भी रही थीं। पर वो पूरी तरह से मजबूर, बिल्कुल लाचार था। रोती हुई आँखें धीमे-धीमे लाल पड़ गयीं। और फिर वो आँखें कब बन्द हो गयीं, सरल को कुछ पता न चला।

आँखें बन्द करके लेटे सरल को एकाएक महसूस हुआ, जैसे शोभना उसके सीने को जोरों से पीट-पीटकर अपना गुस्सा निकाल रही है। जाने क्यों सरल को लग रहा था कि शोभना को उसके दिल में एक बार को आयी ये बात पता चल गयी थी कि वो शोभना और विप्लव से दूर एकदम अलग अपनी एक अकेली, खुशहाल जिन्दगी जीना चाहता था। पर अब तो सरल के दिल में ऐसा कोई ख्याल ही नहीं था। मजबूरी और अकेलापन किसे कहते हैं, सब वो देख, समझ चुका था। लेकिन ये सब समझते-समझते तो वो... ... !

सरल को कुछ समझ नहीं आ रहा था। जमीन पर पड़े-पड़े उसकी जिन्दगी तो आखिरी साँसों तक जा पहुँची थी। फिर ये कौन सा करिश्मा था भला? क्या वो अभी जिन्दा था? या फिर उसकी रूह ये सब देख-सुन-समझ रही थी। सरल के दिमाग में ख्याल हवा के थपेड़ों की तरह दौड़ पड़े थे। उसे हर सवाल का जवाब फौरन चाहिए था। पर भला कैसे? उसकी आँखों के आगे तो गहरा अँधेरा था। वो कुछ तय नहीं कर पा रहा था कि उसके साथ भला हो क्या रहा है। काफी देर तक, काफी मशक्कत के बाद भी कुछ समझ नहीं आया, तो सरल को सबसे बेहतर विकल्प एक ही लगा। दिमाग में पनपते हर ख्याल से पीछा छुड़ाकर सरल ने खुद को एक शांत वातावरण में केन्द्रित करने की कोशिश की।

जैसे-जैसे सरल ने चिंताओं को दिमाग से निकाला, उसे बदन के हिस्सों पर एक नियंत्रण महसूस हुआ। फिर कुछ ही देर में जब सरल का मन एकदम शांत था, एक झटके से उसकी आँखें खुल गयीं। चारों ओर जो नजारा था, बस वही एक तरीका मुनासिब था कि वो इस वक्त जिंदा था। अस्पताल में जीवनदायिनी मशीनों से घिरा हुआ उसका बदन तरह-तरह की सुईयों से बिंधा हुआ था और दवाएं पाइप की नलियों से लगातार उसके जिस्म के भीतर जा रही थीं। शोभना और विप्लव दोनों ही आँखें भरे हुए उसके बगल में कुर्सियों पर बैठे थे।

इधर सरल की आँखें खुलीं और उसी वक्त जैसे हर मुर्झाये मन में खुशी की लहरें जाग पड़ीं। शोभना और विप्लव का तो अगर बस चलता, उसी वक्त सरल के ऊपर चढ़ बैठते और गुजरे वक्त में उनके बीच जितनी भी दूरियाँ रहीं, हर पल का वो सारा का सारा हिसाब कर डालते। पर वक्त और डाॅक्टरों की तरफ से इजाजत कुछ और ही थी। सारी बातें सिर्फ इशारों में हुईं। वक्त गुजरने के साथ-साथ सरल को बताया गया कि किस तरह उसका मोबाइल फोन पर बात न होने पर शोभना ने पड़ोसियों से फोन पर बात की। उसके बाद कितनी भाग-दौड़ करके कितनी मुश्किलों से सरल को अस्पताल लाया गया। अस्पताल पहुँचने के बाद सरल पूरे दस दिन तक कोमा में रहा। इसके बाद जब से उसकी आँखें खुली हैं, न तो शोभना और विप्लव खुद उससे एक पल को दूर गये हैं, न उसने एक घड़ी को भी ऐसा होने दिया।

सरल की अस्पताल से छुट्टी होने के बाद एक और खुशखबरी शोभना के मायके में उनका इंतजार कर रही थी। शोभना की छोटी बहन ने नन्ही सी जिन्दगी को जन्म दे दिया था। सरल की तबीयत देखते हुए शोभना ने उससे घर पर आराम करने और खुद अकेले एक दिन के लिए मायके जाकर अगले ही लौट आने की बात कही। पर अब सरल परिवार के असली मायने बड़े गहरे से समझ चुका था। शोभना के प्रस्ताव के जवाब में सरल ने बस इतना ही कहा कि वो महीने भर के लिए उसके और विप्लव के साथ चलकर उसके मायके में ही रहेगा।


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