जीवनसाथी या सिर्फ़ सुख के साथी
जीवनसाथी या सिर्फ़ सुख के साथी
कल मेरे किडनी के ट्रान्सप्लांट का ऑपरेशन होना है। दिल बहुत ही ज़ोर से धड़क रहा है। कितने ही सवाल दिमाग़ में कौंध रहे हैं। कल क्या होगा। ऑपरेशन सफल तो होगा। मेरे पीछे मेरे चार साल के बेटे कृष्णा को कौन देखेगा। किडनी मेरी माँ दे रही थी इसलिए भी चिंता थी की अगर मुझे और माँ को कुछ हुआ तो फिर कृष्णा का क्या होगा, मेरे पिताजी का क्या होगा। ऐसे अनगिनत सवाल एक के बाद आए जा रहे थे और मेरी बेचैनी बढ़ा रहे थे। किसी से बात भी करने का जी नहीं हो रहा था।
पलट पलट कर मेरी सोच का घोड़ा यतित में चला जा रहा था। वह दिन चलचित्र की भाँति सामने आ रहा था जब हमें पता लगा था की मेरी किडनी का इन्फ़ेक्शन इतना बढ़ गया है की अब ट्रान्सप्लांट ही ज़रिया है मेरे इस दुनिया में बने रहने का।दो साल से लगातार मेरा इलाज चल रहा था और आज नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी। मुझे दुःख होता था की मैं रवि , मेरे पति को सुख के कुछ पल देने के बजाय इतना परेशान कर रही हूँ। रवि मेरे स्वास्थ को लेकर चिंतित हो गए थे। शादी के इतने सालों में मुझे लगने लगा था की रवि जैसा जीवनसाथी मुझे बड़े ही भाग्य से मिला है जो मेरे मन की सारी बातें बिना बोले ही जान लेता है। रवि मुझे हर पल ख़ुश रखते।
जब मेरे किडनी ट्रान्सप्लांट की बात डॉक्टर ने करी तो पूरे घर में यानी की ससुराल में सुगबूगाहट शुरू हो गई थी की किडनी का इंतज़ाम कैसे होगा। मेरी माँ के तो आँसू ही नहीं थम रहे थे और पिताजी तो बस चुप बैठे शून्य पर केंद्रित हो गए थे। मेरे मायके या ससुराल वाले इतने पैसे वाले नहीं थे की किडनी का इंतज़ाम पैसे से कर ले , लिहाज़ा किसी अपने को ही अंगदान करना था। घंटो घंटो लम्बी वार्ताएँ होने लगी मेरे पति , ससुर , सास और देवर के बीच।दूसरे कमरे में बैठी मैं कृष्णा को सीने से चिपकाई सुनती रहती सभी के विचार, तर्क। इन सभी वार्ता के बीच कभी भी मेरे पति ने अपनी किडनी मुझे देने की बात नहीं कही और सास बार बार कहती की लल्ला सपने में भी अपनी किडनी देने की बात नहीं करना। वार्ता -विचार करते दिन निकलते जा रहे थे। मैं यह समझने में असमर्थ थी की रवि किडनी देने की बात क्यों नहीं करते ऐसे तो मेरे लिए ख़ुद को मिटा देने तक की बात करते थे।
मेरी माँ और पिताजी हर दिन इस आस से आते की शायद आज कुछ निर्णय लिया गया होगा तो उनकी बेटी की पीड़ा कुछ कम हो। लगभग दस दिन बाद भी सबकुछ वहीं थमा था तो मेरी माँ से रहा नहीं गया और उसने कहा रवि बाबू मुझे लगता है किडनी का कुछ इंतज़ाम नहीं हो पा रहा है तो क्या मैं किडनी दे दूँ। पिताजी और मैं सन्न रह गए माँ की बात सुन कर। मैं ख़ुद को घसीटती बाहर बैठक में आइ तो पाया मेरे ससुराल वाले बहुत ही निश्चित दिख रहे थे। माँ सुकून में और पिताजी व्यथित। मेरे पति के भाव मैं पढ़ नहीं पाई या फिर मेरी इच्छा ही नहीं थी उन्हें देखने की। मेरे जीवनसाथी से ऐसा व्यवहार मैंने नहीं सोंचा था। उनके लिए मेरे मन में सिर्फ़ घृणा वाले भाव थे।यह पल मेरे लिए बहुत ही भारी था।
माँ, पिताजी और मैं ,इस समय हम तीनो में से कोई भी बोलने की स्थिति में नहीं था। बार बार मैंने माँ को ऐसा करने से मना किया पर वह नहीं मानी। कहने लगी तुझे अपने ख़ून से सींचा है अब कैसे कुम्हलाने दूँ। तू भी तो माँ है माँ बन कर सोंच। मैंने कहा पर माँ अभी तो बेटी की तरह ही सोंचूँगी। मेरी सारी विनती बेकार गई और अंततः माँ द्वारा किडनी दिए जाने पर ही सारे वार्ता को विराम मिला।
मेरे मन में तभी से लगातार ये विचार आ रहा है कि यदि मेरी जगह मेरे पति को किडनी की ज़रूरत होती तो क्या मैं भी उनकी तरह व्यवहार करती! क्या मेरे माँ भी मेरी सास की तरह सोंचती ! क्या मेरी सास अपने बेटे के लिए वैसे ही आगे आती जैसे मेरी माँ आइ या फिर वह मुझे किडनी दान के लिए समझाने में पूरी कसर लगा देती। और सबसे अहम सवाल क्यों पति अपनी पत्नी को अपना नहीं मानता है जबकि वह अपना सर्वस्व उनपर न्योछावर कर रही होती है। क्या यही जीवन साथी होते हैं या फिर जीवन के सुख के साथी।
ऐसे ही कई सवाल और भविष्य की चिंता , अपने बेटे के भविष्य की चिंता में पल पल बेचैन हो रही हूँ। बार बार भगवान से प्रार्थना कर रही हूँ कि कल का स्वर्णिम प्रभात मेरे लिए भी आशा की ज्योत जगाए।