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mona kapoor

Abstract

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जीवन का यही है रंग रूप

जीवन का यही है रंग रूप

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“गुब्बारें ले लो गुब्बारें....रंग बिरंगे गुब्बारें...आजाओ बच्चों सुंदर सुंदर लाल, पीले गुब्बारें ले लो..गुब्बारें”।

मम्मा..मम्मा गुब्बारें वाले अंकल आगये जल्दी चलो ना आगये ..रोज़ गुब्बारें वाले की आवाज़ सुन कर रूही अपनी मम्मी चंचल के पास आती और उनसे गुब्बारा दिलवाने को कह कर बाहर भाग जाती..चंचल भी पहले से ही एक पांच का सिक्का तैयार रखती और जल्दी से दरवाजा खोल बाहर खड़ी हो जाती रूही को लेकर..और उसकी पसंद के रंग का गुब्बारा दिलवा कर उसे खुशी मिल जाती...पिछले चार महीनों से चंचल उस गुब्बारें वाले बाबा को देखती आरही थी...अपने ज़िन्दगी में ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाते उठाते पड़ी चेहरे की झुर्रियां और धूप में पके सफ़ेद बाल ..पैरो में रबड़ की पुरानी सी टांके लगी चप्पल...रोज़ एक ही मैला से कुर्ता पायजामा ..चश्मे की टूटी डंडी का भी धागे से जुड़ा होना.. उनके जीवन का हाल बयान करते थे..लेकिन इस प्रौढ़ावस्था में भी आवाज़ इतनी तेज कि सोया हुआ बच्चा भी जाग जाए।।गली के बच्चे भी उनकी नकल उतारते तो वो कभी ना बुरा मानते हुए उन्हें हँसाने का ही काम करते।

चंचल कई बार कोशिश करती कि बाबा से उनके इस हाल के बारे में पूछे पर कभी हिम्मत ही न हो पाती। लेकिन आज रूही को गुब्बारा दिलवाते समय बाबा खुद बोल पड़े “बिटिया रानी ,आज दौ गुब्बारें इकठ्ठे ले लो ,कल नही आ पाऊँगा मैं”।

क्यों बाबा, सब ठीक है ना??चंचल ने पूछ ही लिया।

नही बिटिया, तुम्हारी काकी की तबीयत ठीक नहीं है उसे अस्पताल ले कर जाना है ..बाबा की यह बात सुनकर चंचल सहानुभूति से बोली”क्या हुआ काकी को??आपके बच्चे कहाँ है??आप इस उम्र में भी कमा रहे हैं बेहद दुख होता है देख कर।।

चंचल के प्रशन सुन बाबा चेहरे पर उदासी लिए बोले कि बिटिया”हमारी कोई संतान नही है ऊपर वाले के आशीर्वाद से एक बेटा हुआ था पर एक साल का होते ही उसका न्यूमोनिया बिगड़ गया और वो नही बच पाया,,बस तब से ही तुम्हारी काकी की मानसिक हालत सही नहीं रही और ना ही ऊपर वाले कि इच्छा से फिर संतान सुख मिला..तभी से ही काकी बीमार रहती है...जब कभी अस्पताल ले जाना होता है तभी बाहर निकालता हूं....नही तो बस घर मे ही पड़ी रहती है ..मैं घर का कामकाज कर जब गुब्बारे बेचने निकलता हूँ तो काकी को घर में बंद ही कर के आता हूँ..और जल्दी से सारे गुब्बारें बेच कर घर को लौट जाता हूँ..अब क्या करूं घर चलाने के लिए पैसा भी तो कमाना जरूरी है”।

बाबा की यह सारी बातें सुन कर चंचल की पलकें भीग चुकी थी..बाबा को किसी भी प्रकार की मदद की आवश्यकता होने पर बताने का कह व काकी के शीघ्र ही सही स्वास्थ्य की मनोकामना कर व रूही के लिए दौ गुब्बारें एक साथ लेकर उन्हें पैसे देकर चंचल अंदर आगयी और दुखी मन से गुनगुनाने लगी”ये जीवन है,इस जीवन का..यही है.. यही है..यही है रंग रूप।।




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