Prabodh Govil

Inspirational

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झंझावात में चिड़िया- 21

झंझावात में चिड़िया- 21

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अगर इस सदी की नायिकाओं की बात करें तो काजोल ने अजय देवगण से, ऐश्वर्या राय ने अभिषेक बच्चन से, विद्या बालन ने सिद्धार्थ रॉय कपूर से, अनुष्का शर्मा ने विराट कोहली से और प्रियंका चोपड़ा ने निक जोनस से विवाह रचाया और अब सभी गरिमापूर्ण वैवाहिक जीवन बिता रही हैं।

कुछ ऐसी ही छवि दीपिका पादुकोण के शुभचिंतक उनके लिए भी रणवीर सिंह को लेकर चाहते थे।

इन्हीं दिनों संजय लीला भंसाली ने फिर एक ऐतिहासिक कथानक को लेकर अत्यंत महत्वाकांक्षी मेगा प्रॉजेक्ट शुरू किया और उन्हें पहली पसंद के रूप में दीपिका पादुकोण का नाम ही उपयुक्त दिखाई दिया।

ज़ोर शोर से इस मेगा बजट फ़िल्म का काम शुरू हो गया। संजय ने फिर एक कालजयी किताब, मलिक मोहम्मद जायसी के "पद्मावत" को इसके कथानक का आधार बनाया।

रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण और शाहिद कपूर को मुख्य क़िरदारों में लिया गया।

इतिहास के एक राजपूत हिंदू राजा की भूमिका में संजय ने शाहिद कपूर को लिया और मुस्लिम सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के रोल में रणवीर सिंह को साइन किया गया।

कहानी चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी पर आधारित थी जिन्हें पद्मावती भी कहा जाता है।

ये गुज़रे हुए इतिहास का एक सुनहरा पन्ना था जिसमें अफगानिस्तान से आकर दिल्ली की सल्तनत हासिल करने वाले खिलजी ने महारानी पद्मिनी के सौंदर्य से अभिभूत होकर चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।

महाराज रतन सिंह की पराजय और मृत्यु के बाद जब खिलजी ने दुर्ग को जीत लिया तब महारानी पद्मिनी ने अपनी अनेक राजपूत क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया। और इस तरह खिलजी हाथ मलते रह जाने के सिवा कुछ न कर सका।

महारानी पद्मिनी के जौहर से पहले उनके "जौहर" अर्थात शौर्य व पराक्रम की दास्तान भी कोई कम दिलचस्प नहीं थी।

धोखे से महाराणा रतन सिंह को। दिल्ली ले जाकर जब उन्हें वापस ले जाने का लालच देकर पद्मिनी को भी दिल्ली बुलाया तो पद्मिनी अपनी हिफ़ाज़त के लिए आठ सौ राजपूत योद्धाओं को नारी के भेस में छिपा कर साथ में ले गई।

वहां हुए युद्ध में छल कपट से ये सभी योद्धा मारे गए किंतु महारानी गुप्त रास्ते से महाराज को सकुशल लौटा लाने में कामयाब हो गई।

बाद में युद्ध के साथ कहानी का दुखांत हुआ।

बाजीराव मस्तानी के बाद एक तरह से भंसाली मराठा शौर्य के बाद राजपूती आन को लेकर आए थे। किंतु फ़िल्म के कथानक की चन्द छोटी - छोटी बातों को लेकर फ़िल्म का विरोध पहले ही शुरू हो गया।

अफवाहों का बाज़ार गर्म हो गया।

इतिहास में मर - खप चुके लोगों की आन - बान - शान का हवाला देकर लोगों में जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रीयता जैसे तत्व भड़का दिए गए और फ़िल्म निर्माण से पहले ही विवादों में आ गई।

सन दो हज़ार सत्रह के आरंभ में राजस्थान की राजधानी गुलाबी नगर जयपुर में शूटिंग के दौरान भंसाली और उनकी पूरी टीम को राजपूत करणी सेना के युवकों का कोपभाजन बनना पड़ा।

शूटिंग में व्यवधान डाले गए। फ़िल्म के विरोध में वातावरण बना दिया गया। कलाकारों को धमकियां तक मिलीं।

समाधान की कोशिशों के तौर पर कई बार तुष्टिकरण के लिए फ़िल्म के नाम तक बदले गए। न्यायालयों के हस्तक्षेप के बाद किसी तरह पूरी होकर फ़िल्म अपनी पूर्व घोषित तारीख़ दिसंबर दो हज़ार सत्रह की जगह जनवरी दो हज़ार अठारह में रिलीज़ हो सकी।

इस ऊहापोह में फ़िल्म का बजट बढ़ कर दो सौ पंद्रह करोड़ तक पहुंच गया।

फ़िल्म से किसी समुदाय या जाति को लगने वाली संभावित ठेस की आशंका से फ़िल्म का नाम भी बदल कर "पद्मावत" कर दिया गया जो जायसी की प्रसिद्ध पुस्तक का शीर्षक ही था।

यानी एक प्रकार से "खोदा पहाड़ निकली चुहिया" वाली कहावत ही चरितार्थ हुई।

दीपिका जैसी कर्मठ और निरंतर सक्रिय रहने वाली अभिनेत्री का ये वर्ष "ज़ीरो" ईयर के रूप में निकल गया। उनकी इस साल और कोई फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई। राजस्थान की अत्यंत लोकप्रिय और सम्मानित महारानी के रोल को लेकर दीपिका को सेना का क्रोध निजी स्तर पर भी सहना पड़ा।

इतने पर भी फ़िल्म को राजस्थान में रिलीज़ करने की अनुमति नहीं मिली। मूल कथानक जिस प्रदेश से लिया गया था वहीं के वाशिंदे फिल्म को देखने से वंचित रह गए। जिन लोगों ने भी देखा उन्होंने राजस्थान से बाहर ही इसे देखा।

कोर्ट ने भी माना कि फ़िल्म में विवादास्पद कुछ भी नहीं है, केवल अफवाहों और ग़लत - फहमियों के चलते फ़िल्म का विरोध किया गया है।

नतीजा ये हुआ कि फ़िल्म को ज़बरदस्त कामयाबी मिली और फ़िल्म ने लगभग पौने छः सौ करोड़ रुपए का कारोबार करके निर्माता को मालामाल कर दिया।

फ़िल्म ने दीपिका का कद और बढ़ा दिया। ये अद्भुत रहा कि एक ओर तो ट्रिपल एक्स जैसी श्रृंखला में लोग चौथे भाग में उनकी वापसी की बाट जोह रहे हैं वहीं दूसरी ओर वो पुरानी ऐतिहासिक फ़िल्मों में बीते समय के क़िरदारों को चरितार्थ कर रही हैं।

दीपिका के स्त्री विमर्श में न संवाद की ज़रूरत है न संघर्ष की उनका अभिनय ही सच्चा स्त्री विमर्श है और बदलते ज़माने की बदलती सोच को उजागर कर रहा है।

वो अब अपने इन किरदारों से निश्चय ही एक दिन नरगिस, मधुबाला की तरह याद की जायेंगी।

और ये देखना दिलचस्प होगा कि जिस लड़की ने समाजशास्त्र को कॉलेज में अधूरा छोड़ दिया था उसने ज़िन्दगी में समाजशास्त्र जिया।

वे केवल अपने शुभचिंतक और फ़ीस ही नहीं बढ़ाती जा रही हैं, बल्कि अपने से दर्शकों की उम्मीदें भी दिनोंदिन बढ़ाती जा रही हैं।

हर कामयाब सुपर एक्ट्रेस की तरह दीपिका ने भी वर्ष दो हज़ार पंद्रह के बाद से ही ये ज़ाहिर कर दिया था कि उनकी रुचि फ़िल्म निर्माण में भी है।

ज़्यादातर महिलाओं ने एक्टिंग के बाद या फिर एक्टिंग के साथ फ़िल्म निर्देशन का दायित्व लेना पसंद किया है। यहां भी ये देखना दिलचस्प है कि जितनी हीरोइनों ने ऐसी इच्छा जताई उनमें से मुश्किल से पंद्रह प्रतिशत ने ही अपनी इस इच्छा को कार्यरूप में परिणत किया। और उनमें भी सफ़ल होने वालों का प्रतिशत तो और भी कम है।

जिन्होंने ऐसी ज़िम्मेदारी ली भी उन्होंने एक- दो फ़िल्मों के बाद ही इस जुनून से तौबा कर ली। बहुत कम लोग ही यहां सक्रिय हैं।

अब बात करें दीपिका पादुकोण की, तो उन्होंने अपने प्रोड्यूसर बनने के लिए जो कारण दिए हैं वो एकदम अलग हट कर तो हैं ही, दमदार भी हैं।

वो कहती हैं कि वो प्रोड्यूसर इस लिए बनना चाहती हैं क्योंकि उन्हें चीज़ों को जोड़ कर व्यवस्थित रखना अच्छा लगता है। वो अपने को एक ऑर्गेनाइज़र के रूप में बेहद सक्षम पाती हैं।

उनमें समन्वय कर पाने के गुण हैं लिहाज़ा वो एक अच्छी को - ऑर्डिनेटर साबित होंगी।

और इस बात की साक्षी तो हम सब लोग हैं ही, कि दीपिका पादुकोण अगर कुछ ठान लेती हैं तो वो करके रहती हैं।



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