झगड़ा
झगड़ा
शादी के बाद छः महीने तक सब कुछ ठीक ठाक रहा । परन्तु उसके बाद कोई ऐसा सप्ताह या महीना न बिता हो जिसमें उनसे झगड़ा न हुआ हो।
बात बात में झगड़ा और बात बात में सुलह। कब किस बात पर झगड़ा हुआ उसका समीचीन उत्तर अभी दे पाऊंगा या नहीं उसमें संदेह है।
बात सब बिन पेंदी के लोटे जैसा । परन्तु इगो इस कदर हर्ट कर जाता की शब्द बाणो से एक दूसरे को बुरी तरह घायल कर दिया करते थे।
और परिणाम होता था बात चीत बंद । मन हुआ तो घर में खाये नहीं तो मारवाड़ी वासा जिंदाबाद।
दो चार दिन रुठने के बाद सभी झगड़े का अंत होता उनके नयनों से बहती गंगा जमुना के अविरल प्रवाह से; जिसमें मन की सभी गांठें प्रवाहित हो जाया करती थी।
साल भर पहले की बात है। उनका जन्म दिन था। बोली शाम में थोड़ा जल्दी घर आ जाइयेगा।
अड़ोस पड़ोस के दो चार प्रियजन को खना पर बुलाये हैं । मैंने कहा ठीक है जैसा आदेश।
सोचे थे लंच टाइम के बाद कार्यालय से घर निकल जाऊं। परंतु ऐन वक्त पर हेड क्वार्टर से ऐसा कुछ इमरजेंसी फैक्स आ गया कि उसका जवाब बनाने में रात के आठ बज गए। फोन पर फोन आ रहा था परंतु मेरी स्थिति ऐसी थी कि एक बार भी फोन नहीं उठा सका।
फ़ुरसत मिलते ही तेज रफ्तार में घर की ओर दौड़ पड़ा।
मन ही मन सुंदर से सुंदर बहाना ढूंढने लगा। तभी अंतर्मन से आवाज आयी ' आज तो तुम काम से गयो बंधु ; कोई बहाना काम नहीं आयेगा । जो सच है वहीं बता दो '।
और हुआ भी वही जिसका अंदेशा था।
घर पहुंचते ही शुरू हो गया प्रश्नों का बाछौर। लाख समझाने का कोशिश किया पर सारे तर्क रेत से बनी दीवार की तरह धारासायी होती गई।
झगड़े का प्रथम चरण खत्म होते ही शुरू हो गया दुसरा चरण। मतलब व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप का दौड़ ।
दुसरा चरण आते आते मेरा भी बी पी हाई हो चुका था
वाणी पर नियंत्रण दोनो खो चुके थे। कौन कितना किसको शब्द बाणो से घायल कर सकता था मानो इसकी प्रतियोगिता चल रही हो।
वो बोली हूं....... बहुत बड़े आदमी समझने लगे हैं आप अपने को । जब देखो तो आफिस आफिस रटते रहते हैं। उतने भी बड़े आदमी नहीं है आप की आपके बग़ैर आफिस नहीं चलेगा। नेहरू जी नहीं रहे तो देश चला कि नहीं ?
और मैंने भी नहले पर दहला मारते हुए कह दिया "" तुम भी कोई भारत के अनमोल रतन नहीं हो कि जिसका जन्म दिन मनाना मेरे लिए इतना जरुरी हो "।
तेरे जैसे बहुत देखे हैं।चल हट यहां से।
मेरे मुख से यह तीखे शब्द उनको बुरी तरह घायल कर चुका था। और महाभारत का तीसरा चरण शुरू हो उससे पहले ही वह बिन कुछ बोले चुपचाप अपने कमरे में चली गई। परंतु उनकी यह खामोशी यह संदेशा छोड़ गई कि ऐसी ही बात है तो " मैं आज और अभी यह प्रण करती हूं कि अब जिंदगी भर आपसे बात नहीं करुंगी।"
महाभारत हुए दो तीन घंटे बीत चुका था। मेरा बी पी भी अब सामान्य हो चला था। मुझे ऐसा लग रहा था कि कहीं न कहीं गलती मुझसे भी हुई है। माना कि वो नाराज़ थी पर मुझे भी अनमोल रतन जैसे शब्द से घातक प्रहार नहीं करने चाहिए था।
पर अब किया ही क्या जा सकता था। तीर तो तरकश से निकल चुका था । कई बार मन में आया कि जाकर माफी मांग लूं पर ईगो पर बात आकर रुक जाती रही।
फिर वही बात । मारवाड़ी वासा जिंदाबाद ।
कहते हैं कि विपत्ति कभी अकेला नहीं आता । मैं इधर तनाव में था ही और उधर मेरा जिला ट्रांसफर आर्डर आ गया। वो भी इस निर्देश के साथ कि किसी भी किमत पर दो दिनों के अंदर नये जिले में ज्वाइन कर लेना है।
टेंसन में कुछ सुकुन भी मिला ।
मन ही मन सोचने लगा चलो इसी बहाने किसी खास से मुक्ति तो मिला।
दूसरे दिन आफिस बैग में न्युनतम कपड़े समेटे और बिन बताये मैं निकल गया नये जिले में योगदान के लिए।
देर रात तक गेट खोलने की प्र्त्याशा में शायद वह बैठी रही। फिर किसी अनहोनी की बात सोच सोच कर परेशान भी ।
मेरे किसी सहकर्मी का फोन नंबर उनके मोबाइल मे न रहने के कारण किसी से कुछ पुछताछ भी नहीं कर सकी। शायद रात भर सो भी नहीं पायी ।
दूसरे दिन आवश्यक जानकारी के लिए मेरे आफिस भी गई परंतु रविवार होने के कारण बैरंग लौटना पड़ा।
उनकी परेशानी बढ़ती गई। सोमवार को उन्हें आफिस से पता चला कि मेरा ट्रांसफर जिले से बाहर हो गया है। यह जानकार उसे कुछ चैन तो मिला परंतु सहकर्मी तक यह बात पहुंच चुका कि हम दोनों में कुछ गड़बड़ है।
सहकर्मियों का फ़ोन पर फ़ोन आने लगा था।
और मुझे ज़वाब देने में शर्मिंदगी का एहसास भी।
करीब सप्ताह भर बाद मेरे फ़ोन में एक मैसेज आया।
आपको इस क़दर नहीं जाना था। कम से कम मैसेज तो छोड़ जाते। मैं कितना परेशान रही कैसे बताऊं।
मैं जानती हूं कि आप विश्वास नहीं करेंगे पर मैं सच बोलती हूं आपके बग़ैर यह घर सूना सूना सा लगने लगा है। जिस गली में आपके उपस्थिति के कारण एक मच्छर तक न उड़ता था।अब उसमें शहर के लूच्चे लफंगे दिन रात मंडराने लगे है।
एक अनचाहा भय मन में इस कदर समा चुकी है कि राशन पानी के लिए हाट बाजार भी नहीं जा पा रही हूं।
सप्ताह भर हो चुका है। चिंता में शरीर आधी हो चुकी है। जिंदा हूं पर जिंदा नहीं हूं जैसी स्थिति है मेरी।
माना कि आवेश में मैंने बहुत भला बुरा कह दिया आपको। पर आप तो विशाल हृदय सम्राट है। कई बार मेरे गलती को नजरंदाज किये है। क्या एक और क्षमायोग्य लायक नहीं हूं मैं।
आप बात मत करें मुझसे । क्षमायोग्य नहीं हूं तो क्षमा भी न करें मुझको पर साथ अलग कमरे में पनाह तो दे ही सकते हैं न।
भले ही युग आधुनिक हो गया हो परंतु बहुत सी ऐसी बातें हैं जहां आप बिन मैं अधुरा हूं।
आप उस दिन बहुत थके हारे आफिस से लौटे थे। आपको चाहिए था एक ग्लास पानी एक कप चाय और थोड़ी सी शांति पर इसके ठीक विपरीत मैंने भला बुरा कहना शुरू कर दिया । आपका गुस्सा जायज़ था।
मैं जानती हूं पुरुषों को भी चाहिए होता है छोटी छोटी बातों से दिखने वाला लाड़-प्यार, उदास होने की थोड़ी सी आज़ादी, एक अटूट विश्वास भरा काँधा; सर रखने के लिए और देर तक उनकी खामोशी का कोई साथी, पुरुषों में भी रहती है एक कोमल हृदयी स्त्री। पर मैं वो सुकुन की मरहम कभी आपको दे न सका।
कृपया माफ कर दे।
कई बार मैसेज को पढ़ा। साथ बिताए कुछ रुहानी लम्हें याद आने लगी थी और मन विचलित ।
मुझे भी अपनी गलती का एहसास होने लगा । मुझे इस कदर नहीं आना था। सही तो कह रही है कम से कम मैसेज तो छोड़ ही सकते थे।
उनकी हालत की कल्पना कर आंखें भर आयी थी। कांपते हाथों से बस इतना ही लिख पाया-- ठीक है संडे को आते हैं।