जाति
जाति
गांव के चबूतरे पर सब सम्मानित गण बैठे थे और राजनीति पर चर्चा हो रही थी जो प्रायः भारत मे आपको दिख जाएगी किसी भी मोहल्ले और गांव की बाहर की चाय की दुकानों से लेकर सरकारी बसों और ट्रेनों में ।
यहां भी माहौल वही था कोई सत्ता पक्ष कोई विपक्ष।रोज़गार से शुरू हुई ये बात विकास ,शिक्षा से होते हुए न जाने कब धर्म, जाति तक पहुँच गयी इसका अंदाज़ा लगाना थोड़ा मुश्किल है।फिर जातिवादी की सिफारिश से जीतना धर्म का खेल खेलना सब शुरू हुआ।
फिर किस जाति को क्या करना चाहिए यह भी उन्हीं बैठे 10 गांव के लोगों ने निश्चित कर दिया।
बीच मे बैठे रामू चाचा बोल बैठे कि "ब्राह्मणों को तो शिक्षा और पंडिताई करनी चाहिए लेकिन बगल वाले हमारे तिवारी जी शराब की दुकान खोल रखे है पूरा धर्म भ्रष्ट कर दिए।" तभी राजेश जी बोले "ऐसे काहे कह रहे काका अब बगल वाले गुप्ता का देखो वो व्यापार छोड़ कर ब्राह्मणों के जैसे शिक्षा दीक्षा दे रहा ।"
तभी एक पुरानी सोच वाले बाबा बोले तब तो "शूद्रों को सेवा करना चाहिए लेकिन हमारा तो प्रधानमंत्री भी दलित है ।"
चलो ये बात हो ही रही थी तभी एक नवयुवक बोल बैठा,"दादा! हम तो कहते हैं कि जाति धर्म नहीं बल्कि जो आदमी जिसमें निपुण हो और जिसमे जानकार तथा जिस पद के योग्य हो उसको वही पद देना चाहिए।अगर ब्राह्मण को व्यापार अच्छा आये तो वह व्यापार करे और बनिया को पढ़ाना आये तो वह मास्टरी।"
इतना सुनकर तो रामू चाचा गुस्से में तिलमिला गए और बोले,"तो तुम्ही बडके ऋषि महात्मा हो जो हमारे शुरू से चली आ रही व्यवस्था है वो गलत और तुम चार अक्षर पढ़ लिए तो बड़े ज्ञानी हो"।
अब कौन समझाए काका को की पुरानी व्यवस्था बदल जाती है तभी तो उसकी जगह नई चीज़े आती है।
जरूरी तो नहीं पुरानी हर व्यवस्था सही ही हो गलत भी हो सकती ।हां आज की पीढ़ी यह बेहतर ढंग से समझ रही है और इसका परिणाम हम समाज मे बढ़ते इस छुआछूत और जाति व्यवस्था के घटते प्रभाव में देख सकते । ये जाति के विचार ही हमें हमेशा आगे बढ़ने से रोकने वाले है अतः इनका त्याग कर ही हम सब युवाओं को आगे बढ़ना होगा जिससे हमारा समाज अधिक मजबूत और विकसित हो सके।