जाति प्रथा एक श्राप तो नही
जाति प्रथा एक श्राप तो नही
देखा जाए तो समाज में जाति प्रथा एक श्राप तो नहीं है लेकिन है क्या ? इस जाति प्रथा के अनगिनत किस्से समाज में प्रचलित है। यह बात सही सही पता नहींं की जा सकती के जाति व्यवस्था किसने और क्यों बनाई। वेदों की उत्पत्ति का सच उस लेखक या संत को आकाशवाणी की आधार पर या कोई दृष्टांत पर लिखने की प्रेरणा मिली होगी और उन्होंने सारी जातिया संप्रदाय, निश्चित किए हो सकता है।
कहते हैं आदि काल में द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण ने राज्य कार्यभार संभाला तो उन्हें बड़ी अड़चने आई थी तभी उन्होंने अपने सभा मंडल से विचार-विमर्श किया तथा सुचारू रूप से कामकाज करने हेतु सभी की अनुमति से हर व्यक्ति को उनका काम समझाया गया और समाज को अलग-अलग कार्यभार संभालने की जिम्मेदारी दी, तब से यह जाति प्रथाका उदय हुआ हो सकता है। यह कोई ठोस आधार नहींं जाति प्रथा के बारे में कहानी कुछ और भी हो सकती है।
भारत में जनजातियों की जनसंख्या -: 1991 की जनगणना के अनुसार 6,77,58,380 भारत में जनजातियों की जनसंख्या है। जातियां या उपजातियां लगभग 4000 पाई जाती हैं, यह विविध जातिया, गोत्र तथा वंश परंपराएं महाभारत तथा रामायण के आदि कालसे ही प्रचलित है। यह हिन्दू धर्म और प्राचीन हिन्दू धर्मग्रन्थों के प्रति हमारे विश्वास को बनाए रखता है। गौतम बुद्ध ने भी जाति-प्रथा के विरुद्ध अवाज उठाई थी, परन्तु हिन्दुओं को उनकी शास्त्र विरुद्ध नीति अस्वीकार्य थी।हिन्दुत्व को एक व्यापक धार्मिक आधार देने की और प्राचीन रूपरेखा को कार्यरत रखना जरूरी था।
जाति प्रथा धार्मिक पहलुओं को दर्शाता है और अपनी पहचान बनाने के लिए उपयोग में लाया जाने वाला कवच बनाया गया है। अगर यह जाति व्यवस्था ना होती तो एक विशिष्ट जाति व्यवस्था को बांधकर रखना मुश्किल कार्य था।आर्थिक, सामाजिक मर्यादा को बंधन नहींं होता तो यह समाज बरगला गया होता। यह विशिष्ट जाति व्यवस्था सामाजिकरण दीवारों की तरह तटस्थ और कट्टर है इसे श्रद्धासे प्रेरीत करके संरचना की गई ताकि संघ संगठनाए बनाकर देश की कार्यप्रणाली को मूर्त रूप दिया जा सके। अगर जातीय पेशा आर्थिक स्थिति को उस नजर से देखा जाए तो जाति व्यवस्था में हड़बड़ाहट काफी बढ़ गई है।
वैसे ही देखा जाए तो एक जाति से विविध जातीया समाज में रूढ़ हो गई है। कई कई श्रृंखलाएं बनाई गई है। एक पंथ के तेरापंथ बन गए हैं। हर एक समाज में साड़े बारह 12:30 जाति का उल्लेख आता है। हर 25 से 30 किलोमीटर पर जातियां और उपजातियां देखने को मिलती है। इस जाति के पेड़ को अनगिनत शाखाएँ होती है। वह अपने हिसाब से अपने जाति के अनुसार धर्म के अनुसार जीवन यापन करने के लिए पर्याप्त मनोबल बनाकर रहते है।
कहते है सबसे पहले गोत्र सप्तर्षियों के नाम से प्रचलन में आए। सप्तर्षियों मे गिने जाने वाले ऋषियों के नामों में पुराने ग्रथों में कुछ अंतर है इसलिए कुल नाम- गौतम, भरद्वाज, जमदग्नि, वशिष्ठ ,विश्वामित्र, कश्यप, अत्रि, अंगिरा, पुलस्ति, पुलह, क्रतु इनके नाम से गोत्र बनाए गए थे और जानवरों और वृक्षों आदि से जुड़े हुए थे। इनमें से कुछ नाम आज तक भी बने रह गए। जैसे मत्स्य, मीना, उदुंबर, गर्ग (सांड़), गोतम (सांड़), ऋषभ (वृषभ), अज (बकरा), काक (कौआ), बाघ, पैप्पलाद (शुक), तित्तिर, कठ, अलि (भ्रमर) आदिके भी नाम जाति में रचब स गए थे।
सामाजिक व्यवस्था में श्रमजीवी संबंधी जीवन के सभी अंगों में और आर्थिक तथा धार्मिक कार्यों में इन्हीं आनुवंशिक समूहों से बनता है। यह जातीय समूह एक ओर तो अपने आंतरिक संगठन स्वयं संचालित होकर काम करता है और दूसरी ओर उत्पादन सेवाओं के आदान प्रदान और वस्तुओं के विनिमय द्वारा परस्पर संबद्ध बनाता हैं। समाज परंपरागत पेशे में सम समान धार्मिकता और विश्वात्मकता को सामाजिक प्रतीक और ठोस प्रथाएँ निभाते हुए देखा जा सकता है।
उच्च तथा निम्न स्थर का एक क्रम होता है जो विशेष रूप से शादी विवाह संबंधों में देखा जाता है। विवाह संबंध में ऊँची पतवाले नीची पतवालों की लड़की से विवाह कर सकते हैं लेकिन अपनी नीची जाति के लड़कीसे विवाह नामंजूर करते हैं।
जमींदार तथा ऊँची-जातियों के ठेकेदार स्त्रियों पर बलात्कार करके अलग हो जाते है और वही बलात्कार पीड़ित को कसूरवार ठहरा कर भरी सभा में पंचायत में जाति से बहिष्कृत कर देते हे। यह ऐसी विकृति है कि सभ्य इंसान को शर्म से पानी पानी कर देती है। पता नहींं जाति व्यवस्था के नाम पर यह विडंबना समाज के साथ कब तक होती रहेगी।
जाति प्रथा के जाल में उत्तर और पश्चमी भारत का मध्यभाग भयंकर अत्याचार को सदियों से झेलता आ रहा है। एक कदम गलत चल जाता है तो या समूह के हिसाब से नहींं चलता और वह जाति प्रथा से विरोधी कार्य करता है उसे जाति से ही बहिष्कृत कर देते हैं। उसे जात बाहर का नाम देकर उन्हें अलग-थलग कर दिया जाता है। ना कोई उन्हें बुलाता हैं ना उनके घर कोई जाता है। बहुत तकलीफें झेलनी पड़ती है। उनके बच्चों से कोई विवाह नहींं करना चाहता। वहां मन मसोसकर रह जाते हैं।जाति की मार झेलने के बाद वह जाति में आना चाहते हैं। कुछ काल बाद अगर वहां जाति में आना चाहता है तो उन्हें तरह-तरह के प्रायश्चित करने होते हैं। मांस मदिरा की पार्टियां देनी होती है।
वैदिक ग्रंथों में वर्ग, रंग, जाति, जनजाति, प्रजातियां कई प्रकार की है। गुणवत्ता के आधार पर यह जाति समाज में प्रचलित होनी चाहिए थी लेकिन ऐसा नहींं है। शुद्धता-अशुद्धता पर ही अटके हुए दिखाई देते हैं।
इन 4 वर्ण से चरित्र ,नैतिकता को बढ़ा चढ़ाकर शर्तों पर दिखाया गया शायद इसी तरह से समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ानेकी कोशिष की गई और समाज हित में कुछ अच्छाइयां साबित करने की कोशिश की गई है। पाप-पुण्य का डर बनाकर जाति धर्म को रक्षा कवच बनाया गया अंतःइन सब जाति व्यवस्था से कोई विशेष नुकसान देखाई नहीं देता।
आखिर हमे ज्ञान और अज्ञानतामे श्रेष्ठ कौन है यह समझ में आता है। स्वच्छता शुद्धता के हेतु छुआछूत का उल्लेख सराहनीय है। राजा ने राजा जैसा ही रहना चाहिए, वहां भिखारी की तरह नहींं रह सकते कुछ कुछ बातें जाति व्यवस्था में बहुत अच्छी साबित हुई है। वेदों मे कम ज्यादा कुछेक बंधन बहुत ही प्रतिष्ठित है और काबिलियत पर फोकस किया गया है। मांसाहार फलाहार करनेवालोमे भी जमीन आसमान का फर्क है। यह भी एक कारण हो सकता है कि अछूतों को दूर रखा जाए क्योंकि वह बेहिसाब मांसाहार करते हैं। वेदों में कुछ बातें तथ्य के आधार पर अभ्यास पूर्वक सोच समझ कर लीखा गया है इसे हम झुठला नहींं सकते। इसलिए यहां जाति व्यवस्था हमेशा समाज में हास उपहास का कारण बनती है। अच्छोके अच्छे विचार होते हैं इसलिए उन्हें श्रेष्ठ दर्जा देकर उच्चतर जाति में स्थान दिया होगा।
आज के दौर में कोई भी कट्टरपंथी नहींं होना चाहिए ।दया माया करुणा जानकर इंसान को इंसान की तरह अनुकरण करना चाहिए। अनुसूचित जाति और सामान्केय वर्ग के लोग हो समान काम समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। समाज में कोई भूखा वंचित ना रहे कोई पिछड़ा अशिक्षित ना रहे यही संविधान की भी मान्यता होनी चाहिए। जबकि हमारे देश का शासन ही जाति प्रजाति मैं विश्वास करता हैं तो साधारण इंसान क्या कर सकते हैं, कास्मांय सर्गटिफिकट माँगते हैं। कभी उच्च जाति के लोग भी फेसिलिटी के लिए लाइन में लग जाते हैं। यह श्रेणिया जाति प्रथा बंद होनी चाहिए इसी में देश का कल्याण है।
हजारों की तादातमें वंशावली और ऊंची नीची जाति किसने और कैसे तय की होगी, यह एक बहुत ही जटिल प्रश्न है।यह जाति प्रथा समाज को लगने वाली विकृति है।और इस जाति प्रथा की गलत धारणाओं से भारत की नींव हिला कर रख दी है किसी व्यक्ति के गुण और प्रतिभा ही उसकी असली पहचान होनी चाहिए। लेकीन ऐसा नहींं होता है अभी अभी की बात है हनुमान जी कौन से समाज के हैं इस पर से काफी बवाल हुआ है।जाट कहते हैं हमारे समाज के हैं मुसलमान कहते हैं हमारे समाज के हैं।सत्य क्या है यह कोई नहींं जान पाया।
यही उसके जाति के लक्षण हैं। यह जाति कीड़ा कभी खत्म न होने वाला कैंसर है और सामाज को खोखला करने में कोई कसर नहींं छोड़ी है। आज के दौर में जात को लेकर समाज में दुश्मनियाँ हो रही है, किसी को छोटा किसी को बड़ा बनाकर तथाकथित बुराइयों को बढ़ावा देना और समाज बल पर जाति बल पर राजनीति खेलना ऐसे भयंकर खेल खेले जा रहे हैं।
आज के नए दौर में इंसान पहले से ज्यादा सभ्य हो गया है। निडर बन कर खुलकर जाति भेद नष्ट करने में लगे हैं। सरकार भी उन सबकी मदद कर रहा है जो जात बाहर शादी विवाह कर रहे हैं। आज ऐसा कुछ भी नहींं जो की जाति का महत्व ऊंचे आसमान पर है। छुटपुट घटनाएं घटती रही है। मगर आज टेकनिकल लाइफ में जाति भेद नष्ट होता जा रहा है। समाज में जाति विरोध कम हो गया है। यह प्रगति शीलता के लक्षण है।