ईमानदारी का मार्ग
ईमानदारी का मार्ग
ईमानदारी और सच्चाई के रास्ते पर चलने में जो आनंद है मिलता है, उसका एहसास मुझे अब हो रहा है, जब मैं पूरे छत्तीस बरस का हो गया हूँ। आज के व्यस्ततापूर्ण जीवन में जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो कहीं-न-कहीं माता-पिता की प्रेरणा को ही सामने पाता हूँ।
बचपन की तो मुझे अधिक याद नहीं। बस इतना याद है कि जब पहले दिन मुझे गाँव के आंगनबाड़ी केन्द्र में पढ़ने के लिए भेजा गया, तो वहाँ मुझे एक शरारती बच्चे ने धक्का देकर बाल्टी में डुबो दिया। दूसरे दिन दादाजी ने मुझे वहाँ से निकालकर गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ने भेज दिया। स्कूल में मैंने क्या पढ़ा, यह तो मुझे ध्यान नहीं लेकिन मुझे अक्षर ज्ञान कराने का श्रेय मेरी माता जी को जाता है। उन्होंने ही मुझे घर पर हिंदी पढ़ना-लिखना सिखाया यानि माँ ही मेरी पहली शिक्षिका रही है।
आज मैंने जब शिक्षा विभाग में सहायक प्राध्यापक जैसा महत्वपूर्ण पद हासिल किया है, उसकी नींव बचपन में माँ ने ही डाली थी। बाद में पिताजी ने अपने मार्गदर्शन से उसको और अधिक मजबूत किया। एक बार जब मैं आर्मी में भर्ती होने की कोशिश कर रहा था, तब आर्मी के ही एक कर्मचारी ने मुझसे बीस लाख की मांग की और कहा कि बीस लाख जमा कर दे, और नौकरी अपनी पक्की समझ ले। यह बात मैंने अपने पिताजी को बताई तो, उन्होंने कहा- "बेटा, बीस लाख तो मैं तुझे दे दूँगा, लेकिन गलत तरीके से नौकरी प्राप्त करके क्या तू सुकून से जी पायेगा ? भ्रष्टाचार से प्राप्त की गई नौकरी से ईमानदारी की भीख अच्छी है। अभी तुम्हारे आगे पूरा जीवन पड़ा है, इसलिए सही रास्ते पर चलते रहो। मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन तुम्हें सफलता ज़रूर मिलेगी।"
उस वक्त पिताजी की बातें मुझे अच्छी नहीं लगीं। सोचा, उपदेश दे रहे हैं और अपने पैसे बचा रहे हैं। मैं भर्ती तो नहीं हो पाया, लेकिन अध्ययन करता रहा, जिसका परिणाम यह हुआ कि मैंने इतिहास विषय से नेट उत्तीर्ण किया और शहर के डिग्री कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर बन गया। यह सब माता-पिता के मार्गदर्शन से ही संभव हो पाया। वास्तव में ईमानदारी के दो कमरों के मकान में जो सुकून मिलता है, वह भ्रष्टाचार से प्राप्त किये आलीशान बंगलों में कभी मिल ही नहीं सकता। ईमानदारी का मार्ग ही श्रेष्ठ मार्ग है।