होली के रंग
होली के रंग


"बसंती अरे ओ बसंती, चल इधर आ, लाख बार बोला है नीचे कि कोठरी में रह, अब इधर- उधर गयी तो बेंत से पीटुंगी" दादी चिल्लायी।
13 साल का उसका बाल मन ये समझ ना पा रहा था आखिर उसके साथ ऐसा व्यवहार क्यों, नाम तो उसका बसंती था पर उसके जीवन के बसंत को नजर लग गयी थी किसी कि, उसको दुसरे बच्चों जैसै खेलने कि आजादी क्यों नहीं थी, क्यों सब पकवान खाते और वो सादा भोजन वो भी केले के पत्ते पर, यहाँ तक कि दुसरे बच्चो जैसे उसके सर पर बाल भी नहीं छोडा था इन्होने, सब रंगीन कपडे पहनते वो उजली साडी में लिपटी रहती थी, आखिर क्या गुनाह था उसका?
"मम्मी मैं होली खेलने जाऊं", बसंती बार बार बाहर कि होली देख कर माँ से पूछ रही थी।
"बोला ना नहीं", माँ झिडकी।
"पर क्यों मां मैं सब बच्चों से अलग क्यों हुं आज तुमको बताना पडेगा, तुमको मेरी कसम", बसंती ने रोते हुये माँ से पुछा।
" क्योंकि तु विधवा है", माँ ने रोते हुये कहा।
"विधवा क्या होता है माँ", बसंती ने पुछा।
"जिसका पति मर जाये", माँ बोली।
" कैसे मरा मेरा पति ?, बसंती ने पुछा।
"वो शादी के पहले से बीमार था, झूठ बोल के शादी कि थी", माँ बोली।
" तो इसमें मेरा क्या दोष माँ, मैंने तो नहीं मारा उसे, मैं ऐसी जिंदगी क्यों जीऊँ ", बसंती ने कहा।
" क्योंकि तु स्त्री है बेटी, पुरुष नहीं ", माँ ने रोते हुये कहा।
बसंती समझ गयी क्योंकि बचपन से उसके भाई हरिया को सब मिलता था और उसे ये कह कर चुप करा दिया जाता कि तु अपने शौक पति के यहाँ पुरी करना, पर अब तो इस बेचारी का पति भी नहीं था।
बसंती समझ गयी उसके जीवन में होली के रंग अब कभी नहीं थे।
5 साल बीत गये इस बात को सुबह तड़के उठ के बसंती, नंगे पांव जा के नहर से पानी लाती, फिर घर आ कर नहा के, फिर फुल चुन के मंदिर जाती।
वरना किसी ने उसका चेहरा देख लिया सुबह-सुबह तो लाख ताने देता था।
इधर इसको रघु नाम का लड़का हरदम देखा करता था बसंती को छुप-छुप के ,कई बार बसंती ने उसे देख लिया था, देखते हुये पर वो अंजान बन जाता था।
इधर कई दिनों से बसंती नहर पर नहीं आई रघु को चिंता हुआ, उसने मंदिर के पुजारी से पुछा तो वो बोला, "अकेली औरत खुली तिजोरी होती है बेटा, किसी ने उससे दुष्कर्म कि कोशिश कि थी, सो अब वो घर पर ही रहती है"।
फिर होली आयी, इधर रघु कि बेचैनी बढती जा रही थी क्योंकि वो बचपन से बसंती को पसंद करता था।
सब बच्चे रंग खेल रहे थे, बसंती छुप के खिडकी से देख रही थी।
अचानक रघु आया हाथों में गुलाबी, पीले, हरे रंग लेकर, और बोला" बसंती रंग खेलोगी"।
बसंती डर कर माँ के पीछे छुप गयी।
उधर से दादी चिल्लायी, "यही गुल खिलाने जाती थी ये बाहर करमजली, हमें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोडेगी"।
"बसंती को मत बोलो इसमें उसका कोई दोष नहीं है, ये बेचारी तो जानती भी नहीं है मुझे", रघु बोला।
"तुमको पता है ये रंग इसके लिये जहर है, ये एक विधवा है", बसंती कि माँ बोली।
" क्या ये रंग इसके लिये तब भी जहर रहेगा, जब मैं इससे शादी कर लुंगा", रघु बोला।
"होश में है तु छोरे, शादी वो भी विधवा से, तुझे भी मरना है क्या? बसंती कि दादी बोली।
"मैं ऐसे भी तो मर सकता हुं, तो शादी के बाद मर गया तो बसंती का क्या दोष", रघु बोला।
"तुम्हारे माँ- पिता मान गये", बसंती कि माँ बोली।
"पिता हैं नहीं और माँ को सब पता है ,मै बसंती को प्यार करता हूँ, उनको बसंती पसंद है, आखिर लडका जो हुं, सब मान जायेंगे", रघु बोला।
बसंती कि दादी चिल्लाने ही वाली थी ,कि उसकी माँ हाथ जोड़ते हुये बोली" चुप किजीए आप मै अपनी बेटी को ऐसे घुटते हुये नहीं देख सकती, बेटा तुम बसंती को भगा ले जाओ और मेरी बेटी के जिंदगी में फिर से रंग भर दो"।
रघु बोला, "भगा के मेरे प्यार का अपमान होगा, मैं इसी समाज में सबके सामने इससे शादी करूँगा, कहते हुये रघु बसंती के पास गया और उसी होली के रंग से उसकी मांग भर दी।
बसंती कि आंखें बंद थी और आंसू बह रहे थे।