होली का सांस्कृतिक महत्व
होली का सांस्कृतिक महत्व
होली का त्योहार मेल मिलाप का त्योहार है। यह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। दो दिन के इस त्योहार के बारे एक पौराणिक कथा प्रचलित है कि राजा हिरण्यकश्यप अपने आप को भगवान मानने लगा था। उसके राज्य में किसी को भी भगवान का नाम लेने की आज्ञा नहीं थी। लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद ईश्वर का परम भक्त था। क्रोधित होकर कई बार अपने आज्ञा की अवहेलना करने पर राजा हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को मृत्यु दण्ड दिया, लेकिन वह ईश्वर की अनुकम्पा से हर बार बच जाता था। एक बार राजा ने अपनी बहन होलिका को प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठने की आज्ञा दी। होलिका को आग में न जलने वरदान प्राप्त था। लेकिन अग्नि में होलिका जल गई और ईश्वर की सच्ची भक्ति के कारण प्रह्लाद सुरक्षित बच गया। तभी से यह त्योहार होलिका दहन के रूप मनाया जाता है।
प्रातःकाल से ही स्त्रियाँ माँ शीतला का उपवास रखकर अपने बच्चों के लिए मंगल कामना करती हैं तथा पूजा अर्चना करती हैं। घर-घर में पकवान बनाए जाते हैं। शाम को शुभ मुहूर्त में गेहूँ की नव कोंपलों को अग्नि में भूना जाता है तथा प्रसाद स्वरूप सभी को बाँटा जाता है। छोटे बड़ों को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। विश्वास के अनुसार सभी अत्याचारों व अन्यायों को अग्नि में भस्म करने की परिकल्पना की जाती है। अगले दिन बड़ी होली को धुलैंडी के नाम से जाना जाता है। सभी गुलाल चंदन, गेसु के फूलों के रंगों से होली मिलन का त्योहार मनाते हैं। गुझियों की मिठाई का विशेष महत्व होता है। बरसाने व मथुरा की लठमार होली पूरे देश में प्रसिद्ध है।
अतः होली आपसी भाईचारे व सौहार्द का त्योहार है, जिसे हमें पूरे हर्षोल्लास व सावधानीपूर्वक मनाना चाहिए । अपनी खुशियों के साथ- साथ सभी की खुशियों का भी ध्यान रखना चाहिए।