संयुक्त परिवार की सार्थकता
संयुक्त परिवार की सार्थकता
आज से लगभग दस वर्ष पूर्व जब एक बच्चा जो संयुक्त परिवार में रहता था तो वह बड़े होने तक अपनी संस्कृति व नैतिक मूल्यों से परिचित हो जाता है था। कहाँ बोलना है, कब बोलना है, कितना बोलना है, बच्चे के व्यवहार में स्वत: ही शामिल हो जाता था। बड़ों का सम्मान व छोटों के नेह स्नेह से अभिभूत हो वह सदैव प्रसन्नचित रहता था। समय से सोना, समय पर उठना, समय पर भोजन अर्थात परिवार के सभी सदस्यों को अनुशासन पालन करने की आदत हो जाती थी। बच्चों में तहज़ीब , मर्यादा का अनुपालन वह अपने परिवार में देख- देख कर ही सीख जाता। अपने माता-पिता को दादा-दादी, ताऊ- ताई , बुआ -फूफा आदि रिश्तों में सम्मान की भावना देखकर उसे भी एहसास हो जाता है कि ये सभी संस्कार आवश्यक है। अच्छा व खुशहाल जीवन के लिए रिश्तों में लगाव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। समय समय पर परिवार में होने वाले मांगलिक वह सांस्कृतिक कार्यक्रम उसे अपनी संस्कृति का ज्ञानार्जन करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जिंदगी के कठिन मोड़ पर हमारे संस्कार ही हमारे सच्चे मित्र सिद्ध होते हैं। संयुक्त परिवार में पलने वाला बच्चा अधिक आत्मविश्वासी, डटकर मुकाबला करने वाला, आत्मसंयित वह धैर्यवान होता है।
वहीं दूसरी ओर एकल परिवार में रहने वाला बच्चा अकेलेपन के कारण उदासीन होने लगता है। उसे ज्ञान देने वाले दोस्त सिर्फ टेलिविज़न, गेम फिल्मी दुनिया ही बनकर रह जाते हैं। वह दादी-नानी की कहानियों व ऐतिहासिक घटनाओं से अनभिज्ञ सा रह जाता है और सदैव किसी साथ को ढूँढता ही रहता है। केवल माता-पिता व टेलिविज़न की दुनिया में रहकर वह क्रोधी स्वभाव का बन जाता है। कितने ही उदाहरण है संयुक्त परिवार में रहने वाले बच्चे खुशनुमा माहौल में रहने के कारण दूसरों की खुशियों का कारण भी बनते हैं समाज कल्याणकारी भी सिद्ध होते हैं। बड़े होकर सलाह मशवरे से जिंदगी के सभी फैसले लेते हैं। वहीं दूसरी ओर एकल परिवार का बच्चे अपनी संवेदनाओं पर नियंत्रण न रखने के कारण कई बार आवेश में ग़लत फैसले कर बैठते हैं। क्रोध आने पर उत्तेजना वश ग़लत धारणाओं की रूख कर जाते हैं।
सर्वे से संज्ञान में आया है कि अधिकांशतः एकल परिवार के कारण ही बच्चे डिप्रेशन , बी. पी., मधुमेह जैसे रोगों का शिकार होते जा रहे हैं। देर से सोना देर से उठना उनकी दिनचर्या में शामिल हो गया है। परिवार में कोई रोकने-टोकने वाले न होने के कारण बच्चे अधिक मनमौजी होते जा रहे हैं। देखा जाए तो अब "मौज़राम मस्ती में, आग लगे बस्ती में" आज के नौजवानों का मंत्र सा बन गया है। सोचिए ...फिर हमारे समाज कैसा बनेगा? पहले और आज के माता-पिता बच्चों को लालन-पालन में ही व्यस्त रहते थे और रहते हैं। लेकिन संयुक्त परिवार के बच्चों में नैतिक मूल्यों को समावेश करने का दायित्व दादा-दादी, नाना-नानी व अन्य बड़े निभाते हैं। वहीं एकल परिवार के बच्चों में यह आवश्यक कोना रिक्त ही जाता है जो उदासीन जीवनशैली का महत्वपूर्ण सबब बनता है। अत: यदि हमें एक मजबूत, सुन्दर व खुशहाल जिंदगी के लिए पुनः संयुक्त परिवारों की ओर बिना किसी शर्त के कदम बढ़ाने की आवश्यकता है। इसमें कोई संशय नहीं है।