हमदर्द

हमदर्द

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शगुन देख रही थी, सरला जी के सुर इस बार बदले हुए थे। गिन्नी के होने में आई थी। तब कैसे घमंड से गर्दन तनी रहती थी, हमेशा विश्वास के आगे-पीछे डोलती रहती थी और विश्वास भी मम्मीजी-मम्मीजी कर के सास की हाँ में हाँ मिलाता। अक्सर सास के सामने माँ की अनदेखी कर जाता। शगुन का जी कट कर रह जाता...पर वो भरी आँखें और भरा गला विश्वास कभी नहीं देख पाया।

पर इस बार.....वो शगुन की तरफदारी कर रही थी, नहीं बेटा, माँ है तुम्हारी...,ऐसे नहीं बोलते..पहले माँ को बुलाओ......पहले माँ को दो...।

शगुन की आँखों के प्रश्न सरला ने पढ़ लिये थे, इसलिये एक दिन खुद ही बोली, "पहले वंश कुँवारा था....पिछले महीने उसकी सास आई थी....। अपनी बेटी की डिलीवरी के लिये...।


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