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Harish Sharma

Drama

0.2  

Harish Sharma

Drama

हजारों ख्वाहिशें ऐसी

हजारों ख्वाहिशें ऐसी

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दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना

जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना। -कुँवर बेचैन

शाम पूरी तरह रात के अंधेरे में लिपट चुकी है। किताब बाजार में अब भी चहल पहल के कुछ अवशेष बाकी हैं। मैं रात का खाना खाकर टहलता हुआ उसकी दुकान की तरफ चक्कर लगाने आ गया हूँ। इस वक्त उसे कुछ फुरसत भी होगी। कई बार उसका फोन आया है पर जा नहीं पाया, वैसे भी कई दिन हो गए हैं अपने उस मित्र को मिले जो एक सफल दुकानदार होते हुए भी लेखक होने की जद्दोजहद कर रहा है। वास्तव में वो लेखक ही तो है।

बाजार के भीड़भाड़ भरे इलाके की चहल पहल के बीच हर किस्म की किताब और पत्रिका अगर मिलती है तो इस दुकान की बड़ी चर्चा है। हर उम्र का आदमी आपको इस दूकान पर अपनी फरमाइश तलाशता मिल जाता है और वो भी इस भरोसे से कि किताब अगर न भी मिली तो दो तीन दिन के भीतर मँगवा दी जाएगी।

किताब बाजार की ये एक ऐसी दुकान है जहाँ हर वो किताब मिलती है जिसकी जरूरत हर किताब खरीदने वाले को है। सब खरीददार इस बात के कायल है कि हमें अपने लिए अपने स्कूल जाते, कोर्स करते बच्चों के लिए उनकी जरूरत की हर किताब यहाँ से हर हाल में मिल जायेगी वरना आर्डर पर अगले ही दिन मँगवा दी जाएगी। हर नौजवान भी यही सोचता है फिर चाहे वो विज्ञान का विद्यार्थी हो, साहित्य का या कोई प्रेमी जिसे शेयरों शायरी की किताब चाहिए। दुकान की एक तरफ तमाम मैगजीन और कुछ नयी किताबें एक लकड़ी के रैक में करीने से सजाई गयी हैं।

हर पेशे और शौक की किताब का इससे उचित ठिकाना दूर दूर तक नहीं था। ऐसा लगता था जैसे इसके मालिक को किताबों की खुश्बू से बहुत प्यार था।

इस बड़ी दुकान के बाहर खड़ा होकर मैं देखता हूँ कि लंबे काउंटर के पीछे दाएं-बाएं दोनों भाई ग्राहकों में व्यस्त हैं। बाएँ वाले को मिलने आया हूँ और दाएँ वाले से बस हाथ मिलाकर औपचारिकता निभाने।

मैं दुकान के भीतर प्रवेश करता हूँ, जहाँ एक सौ अस्सी डिग्री की सीधी रेखा में लगे काउंटर के पीछे दोनों बैठे हैं। उनके पीछे काम करने वाले तीन चार नौकर दौड़ते भागते ग्राहकों की माँग और मालिक की पुकार सुनकर दीवारों के साथ सटी अलमारियों में खो जाते हैं और किसी तरतीब में लगी किताबों में से किताब ढूंढ कर लाते हैं।

दोनों भाइयों के बीच जैसे काम बंटा हुआ है पर ये सिर्फ उन्हें पता है। खरीदने वाले को ज्यादा पता नहीं। मैं दायें वाले के पास जाकर “हेलो “ कहता हूँ और मुस्कुराहट के साथ हाथ मिलाकर दुसरे की तरफ बढ़ जाता हूँ। मैं नहीं चाहता कि वो हर बार की तरह मुझे इस बात में उलझाये कि उसने पाठ्यपुस्तकों के लिए कौन सी नई किताबें मंगवाई है या वो अपने किताबों के धंधे के साथ एक नया कोचिंग सेंटर शुरू करने जा रहा है। वो पूरा व्यापारिक मानसिकता वाला आदमी है और उसे हर वक्त प्रॉफिट और अपने कारोबार को बढ़ने की जिद लगी रहती है। वो बात भी करता है, ग्राहक को भी निपटाता है और एक मोटी सी कॉपी में बड़ी अबूझ सी लिखावट लिखते हुए सारे नगद उधार नोट करता है। उसका पेट लगातार बैठने के कारण इतना बड़ा हो गया है कि उसकी पीठ अंदर की ओर धस गयी है पर उसे छरहरे बदन से ज्यादा व्यापार बढ़ाने का जूनून है। सहनशक्ति ऐसी कि ग्राहक की भीड़ जितनी मर्जी हो, माँगने खरीदने वाला जितनी मर्जी देर तक अपनी बात दुहराता रहे वो उसकी फरमाइश तभी पूरी करेगा जब उससे पहले वाले को निपटा देगा, उसका हिसाब कर देगा।

उसे इस बात का यकीन है कि ग्राहक जितनी मर्जी खीज ले पर उसे उसकी कमजोरी और जरूरत यही खड़ा करके रखेगी क्योंकि पूरे शहर में और किसी किताब की दुकान में वो दम नहीं कि हर माँग को उसकी तरह पूरा कर सके। पैसे गिनना और साथ-साथ में एक काप में जोड़ घटाव करते हुए वो क्या लिखता उसे आज तक उसके सिवा शायद ही कोई पढ़ सका हो।

बायीं तरफ बैठा दूसरा मित्र जिसे मैं और जो मुझे मिलना चाहता है, विराजमान है और जिसे मैं दिल से लेखक मानता हूँ, शरीर से चाहे वो दुकानदार लगता हो। इसी बीच वो मुझे अपना काम करते हुए अचानक देख लेता है और मुस्कुराता है।

“वाह, क्या हाल है जनाब के। मैं दो दिन से याद कर रहा था कि कई दिन हुए आपसे मुलाकात ही नहीं हुई।”

उसने मुस्कुराते हुए कहा है- कितना अपनापन और पवित्रता से भरी लगती है उसकी मुस्कुराहट।

“आइये यहाँ बैठिये मेरे पास .....अरे लड़के जरा एक कुर्सी लगाना यहाँ।” वह अपने एक नौकर को हुक्म देता हुआ मुझे बुलाता है। मैं काउंटर के बीच में बने रास्ते से अंदर उसकी तरफ चला जाता हूँ। उसका नौकर एक कुर्सी उसकी बगल में मेरे लिए रख गया है।

वो बड़े प्यार से बैठे-बैठे मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपने पास बिठाता है।

“और सुनाइए कैसे चल रहा है, बड़े दिन हुए इधर नहीं आये।“ वो पूछता है तभी एक ग्राहक उसके पास आकर किसी किताब की माँग करता है।

“अरे जरा ये किताब लाकर देना।” वो अपने नौकर को एक स्लिप पर माँगी गयी किताब का नाम लिखकर देता है।”

वो फिर मेरी और देखता है मुस्कुराहट से भरा चेहरा लिए हुए।

“हाँ, मैं भी कल आपके बारे में सोच ही रहा था कुछ पढ़ते हुए। आज इधर पास की बाजार में कुछ काम था तो सोचा मिलता चलूँ। अब देखिये दिल को दिल से राह होती है।” मैं कहता हूँ-

“हाँ हाँ बिलकुल वरना आजकल बात करने लायक आदमी ही कहाँ मिलते हैं।” वो अपनी बात पूरी करे इससे पहले उसकी नौकर माँगी हुई किताब उसके सामने लाकर रख देता है और वो किताब के पैसे बट्टा हुआ फिर ग्राहक का हिसाब करने लगता है।

“क्या मैं ये किताब पढकर वापिस कर सकता हूँ ...कोई एडजस्टमेंट हो सकती है बाद में। “ ग्राहक एक युवा है ,वो किताब को उलटते पुलटते पूछता है।

“कोई बात नहीं, अभी आप ले जाओ, बाद में देख लेंगे।” वो जैसे ग्राहक को जल्दी निपटाना चाहता है। इसी बीच दो और ख़रीददार उस ग्राहक के बराबर खड़े होकर कुछ सामान माँगते हैं। वो फिर उनमें व्यस्त हो जाता है और उन्हें जल्दी से निपटा कर मेरी तरफ देखकर कहता है।

“मैंने अभी एक कहानी लिखी थी ...कल रात ही पूरी की है ...असल में एक प्रेम कविता ने मुझे बड़ा विचलित किया तो मुझे लगा मैं भी कुछ लिखूँ।” जैसे वो बहुत सारी बातें करना चाहता हो। तभी काउंटर की एक तरफ बैठा, खरीददारों को निपटाता उसका भाई उसे आवाज देकर कहता है, ”बड़े भाई कल वाला हिसाब जरा अच्छी तरह देख लेना, उसमें कुछ हिसाब का फर्क था ...और हाँ वो एक नया पैकेट आया है आप एक बार खुलवा कर नौकर से गिनती करवा लेना किताबों की।”

वो मेरी कुर्सी के पीछे खड़े नौकर को एक पैकेट खोलते हुए देखता है और उस पर थोड़ा चिल्लाता है, यार तुम लोगों को दूकान में इतना टाइम हो गया काम करते ...जरा आराम और प्यार से खोलो पैकेट। कागज न मुड़ जाय, बहुत पतली जिल्द है किताबों की .....अरे यार ...समझ नहीं आ रहा क्या ?..आराम से बंडल गिन कर बांधों ...तुम तो ऐसे रख रहे हो जैसे कोई चारे का गट्ठर हो।”

“और फिर कोई नयी ताज़ी ......।” वो फिर अपने चेहरे के हावभाव को संयत करते हुए मेरी तरह देखकर पूछता है। उसकी नजर नौकर की तरफ भी है।

“बस ठीकठाक....नयी ताज़ी तो जब आप लोगों से मिलता हूँ तभी कोई बनती है वरना परिवार और नौकरी में तो वही सुबह और वही शाम। आप किसी कविता की बात कर रहे थे ...” मैंने उसे जैसे याद करवाया हो।

“हाँ वो ...बड़ी कमाल की कविता थी, प्रेम कविता का शिखर, कवि अपनी उस प्रेमिका के लिए लिख रहा है जो उसे बहुत पहले छोड़ कर कही और शादी कर के चली गयी। वो कहता है-

‘जब तुम बूढ़ी हो जाओगी और सर्दियों की रात में

आग तापती हुई कुर्सी पर उनींदी बैठी होगी ......”

(इसी बीच एक और खरीददार आ जाता है और काउंटर पर उँगलियों से ठक ठक करता हुआ उसका ध्यान अपनी और खींचता है)

“ भाई साहब ये देखना जरा, इस राइटर की किताब होगी आपके पास।“ खरीददार एक कागज उसके आगे कर देता है।”

वो फिर एक मुस्कान के साथ ग्राहक से कागज लेकर उसे पढ़ता है और ‘जी बिलकुल मिलेगी ‘ कहकर कागज एक नौकर को दे देता है। फिर अपने भाई की तरफ भी नजर उठा कर देखता है। वो भी कुछ ग्राहक निपटा रहा है। फोन पर भी किसी से बात कर रहा है, ‘टोटल प्रोफेशनल’। मैं भी उसे देख रहा हूँ और अपने मित्र की परेशानी महसूस कर रहा हूँ। आज उसके पास जैसे कहने के लिए बहुत कुछ है।

रात के साढ़े आठ बज चुके है। नौ बजे तो दुकान बंद करनी होती है। वो घड़ी की तरफ देखकर कुछ सोचता है और फिर अपने व्यस्त भाई की तरफ जाकर कुछ मिन्नत सी करता है।

“आइये दो घड़ी पीछे केबिन में चलते हैं, वहाँ बैठकर इत्मीनान से बातें करेंगे।” वो मुझे मुस्कुराते हुए कहता है और अपने साथ दुकान के भीतरी कोने में बने केबिन में ले जाता है।

पूरी तरह वातानुकूलित केबिन, कुसियाँ और एक बड़ी मेज लगी हुई है। दीवारों में लगी शीशे की अलमारी में से झांकती अनगिनत अंग्रेजी हिंदी का साहित्य की किताबें। मेज पर पड़े ए फोर साइज़ के स्टेपल किये और टाइप किये हुए पन्ने।

“दुकानदारी भी अहम जरूरत है पर रूह की खुराक न मिले तो सब कुछ अधूरा सा लगता है। युनिववर्सिटी के दिनों मे गुलाम अली, जगजीत और मेहँदी हसन के सब कैसेट सुनते और खूब किताबें पढ़ा करते। यायावरी का शौंक था। शहर में पराठे वाला बड़ा मशहूर था। एक बार रात बारह बजे तक दोस्तों की खूब महफ़िल जमी। हॉस्टल की मेस बंद हो चुकी थी। सब पराठे वाले के पास जा पहुँचे। दिसम्बर का महीना और सब मोटर साइकिल दौड़ाए जा रहे हैं बिलकुल बेफिक्र। पढ़ाई ख़त्म हुई तो जैसे सब कुछ पीछे छूट गया। गजलों की एक कैसेट न बची, सब यार दोस्तों के पास रह गयी।” वो अब खुल के बता रहा था।

“हाँ यार सब दिन एक जैसे कहाँ रहते हैं ..तो फिर ये किताबों का बिजनेस पढ़ाई के बाद शुरू किया होगा।” मैंने पूछा-

उसने पास पड़ी फ्रिज से एक बीयर निकाल कर दो गिलास भर लिए और एक मेरी तरफ बढ़ाकर अपने गिलास से चीयर्स किया।

“यार तब न बिजनेस दिमाग में था और न ही बिजनेस के झंझट ......वो मैं तुम्हें बता रहा था न प्रेम कविता के बारे में कि जब तुम बूढ़ी हो जाओगी ...और सर्द रातों में अपने कमरे की आराम कुर्सी पर उनींदी बैठी अंगीठी की आग तपते रही होगी .....तब मेरी कोई किताब पढ़ते हुए तुम्हें याद आएगा .....कि वो सच्चा महबूब तो कवि ही था जिसने कभी मुझे इतनी शिद्दत से चाहा होगा .....पर अब उसके पास सिवाय पछताने के कुछ बाकी न होगा ...क्योंकि कवि तो कब का मर कर दूर रात के अँधेरे आकाश में एक चमकता तारा बन चुका होगा। बस आजकल अपनी हालत उस बूढ़ी हो चुकी प्रेमिका जैसी है।”

उसकी मुस्कुराहट में जैसे एक गहरी टीस थी। उसने अपनी सारी बीयर अपने हलक में उतार दी।

“बड़ा दर्द है यार कविता में ....वैसे बहुतों का सच ऐसा ही है। हम जैसा चाहते हैं वैसा सब कुछ कहाँ हो पाता है।” मैंने उसकी बात का अहसास रखा।

“घर वाले नौकरी वौकरी में ज्यादा इंटरेस्ट नहीं लेते थे। पिता जी का अपना अच्छा ख़ासा पब्लिकेशन का बिजनेस था। एक जगह अपने अफसर रिश्तेदार ने एक बड़े सरकारी महकमें पैसे के दम पर बढ़िया नौकरी दिलवाने का भी प्रस्ताव भी दिया पर बस किस्मत को जो मंजूर था। वो नौकरी ज्वाइन की होती तो उसी महकमे का सबसे बड़ा अफसर होता और आराम से बैठकर कविता कहानी लिखता। बस .....बिजनेस में न जाने कब आ गया पता ही नहीं चला ...शादी हो गयी ,बच्चे और घर में ऐसा उलझा कि सब लेखन वेखन का शौक पीछे छूट गया ...पर उस शौक ने मेरा साए की तरह पीछा न छोड़ा। डायरी मैं अब भी लिखता हूँ। कविता, कहानी जो मन करता है, लिखता हूँ पर फिर भी न जाने क्यों ......कुछ है ....जो टीसता रहता है।”

वो कहता शून्य में देखता हुआ कुछ सोचने लगता है। तभी केबिन का दरवाजा खुलता है।

“साहब वो शाम को जो सामान आया था उसके बिल भाई साहब को चाहिए।” दुकान के एक नौकर ने आकर कहा-

“अरे यार वह मेरे काउंटर के दूसरे दराज में जो फाइल पड़ी है उसी में हैं, निकाल कर दे दो।” वो संयम से कहता है पर अपने चेहरे पर आई खीझ को छुपा नहीं पाता।

अपने मोबाइल से नम्बर डायल करता है, ”हाँ वो फाइल दे रहा है ...तुम चले जाना घर ..मैं थोडा लेट हो जाऊँगा ....हाँ ठीक है ....ठीक है सब ताले चैक करवा लूँगा।” शायद उसने अपने भाई से बात की है।

मेरा बीयर का गिलास अभी आधा ही ख़त्म हुआ है। उसने अपने गिलास में थोड़ी विह्स्की उड़ेल ली है और फ्रिज से ठंडा पानी डाल लिया है।

“खैर कई बार सोचता हूँ कि सरकारी मुलाजिम ही बन जाता तो अच्छा था, कुछ फुर्सत तो होती ...कुछ लिखता कुछ गुनगुनाता।”

अब उस पर थोड़ा-थोड़ा नशा छाने लगा है वरना उसने पहले कभी ये नौकरी वाली बात नहीं की थी। अब शायद बढ़ती उम्र और अधूरी ख्वाहिशें उसके मन में टीस की तरह उठा करती थी।

उसकी सेहत भी अभी महीना पहले एक बड़े झटके से उबरी थी।

दूकान से घर पहुँचा ही था कि हार्ट अटैक आ गया ....हफ्ता अस्पताल में रहा। बोलने लगता तो हकलाने लगता या एक ही शब्द पर अटक जाता।

घर वाले बार-बार उसकी यादाश्त चैक करते।

उसकी बेटी उसे जन्म दिन पर जानबूझ कर ‘हैप्पी मैरिज एनिवर्सरी ‘ कहती। वो थोड़ी देर कुछ सोचता और कहता कि आज तो उसका जन्म दिन है। वो मुस्कुराकर कहता कि इतनी फ़िक्र मत करो मेरी यादाश्त बहुत मजबूत है। रात में जाग जाग कर पूरा तोलस्ताय पढ़ा है मैंने। अब भी बता सकता हूँ कि कौन सा पात्र किस उपन्यास का है।

कई बार लगता है कि उसका जन्म ही पढ़ने लिखने के लिए हुआ है, वो कहा इस बिजनेस के पचड़े में फँसा है।

“पीकर ही बहकना है तो मत पी हलाल चीज को इस तरह हराम न कर‘

तुम्हें पता है मैंने इस हलाल जिन्दगी को हराम कर डाला है अपनी दूसरों की खातिर। बच्चे अपनी जिन्दगी में सैटल है ...बीवी घर के काम काज में खुश है ...मुझे बहुत प्यार करती है ..पर शायद मैं खुद को प्यार करना भूल बैठा हूँ।” वो बहका हुआ सा कहता है, वो लगातार मेरी तरफ अपलक देखता हुआ मुझसे जाने क्या क्या सुनना चाहता हो जैसे।

मुझे भी लगता है कि वो ये बाते किसी और के साथ नहीं कर सकता और जबसे वो अपनी दिल की बीमारी से गुजरा है अक्सर मुझे फोन करता है और मिलने की बात कहता है। मैं अपनी व्यस्तताओं के चलते अक्सर नहीं जा पाता पर फिर भी जाने की कोशिश करता रहता हूँ।

“शायद हमें बहुत देर बाद समझ आता है कि हम जिन्दगी में चाहते क्या है और बेवजह इधर उधर भगा दौड़ा करते हैं..काश हम दौड़ने की बजाय सफर करना सीख पाते ...जैसे किसी अपने के साथ या अपने किसी अजीज दोस्त के साथ किये गए सफर कितना कुछ यादगार दे जाते हैं और उन यादगार पलों को हम जब भी दोहराते है या सोचते हैं तो हमें लगता है कि हमने जिन्दगी को भरपूर जिया है, गँवाया नहीं है ...बिलकुल वैसे जैसे तुम्हें अपने यूनिवर्सिटी के दिन ही याद करने लायक लगता है और तुम्हें उनके बारे में सोचकर सुकून मिलता है क्योंकि असल में तुम बिलकुल वैसे ही जीना चाहते थे। मैं फिर भी कहूँगा कि तुम खुश किस्मत हो ....वो प्रेमिका खुशकिस्मत है जो अलाव के पास बैठी अपने प्रेमी की कविता पढ़ती हुई उसे याद कर रही है ....उसके पास कुछ तो है जो याद करने लायक है।” सुरूर ने जैसे मुझे भी कुछ भावुक कर दिया था।

“हाँ यार, तेरी ये बात ठीक है, जब तुम ऐसी बातें करते हो तो जैसे मेरे तपते दिल पर कोई ठंडी पट्टी रख देता है ...जियो दोस्त ...तुम न मिलो तो शायद ...जिन्दगी कोल्हू का बैल हो जाये।” वो मुस्कुराकर मेरे कंधे पर थपकी सी देता है।

रात की गहन शांति में हम दोनों अपनी फुर्सत का आनन्द लेते घर की ओर बढ़ जाते हैं।।


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