"गुनहगार कौन?"
"गुनहगार कौन?"


कल इंडिया टीवी देख रहे थे। तो एक खबर सुनकर चौंक गये कि इन्सान इतनी घिनौनी हरकत भी कर सकता है क्या ? मानव की वेदना इतनी अर्थहीन नज़र आयी कि सोचकर ही मनुष्य जाति से घृणा होने लग गयी। जो महिला अग्नि के सात - फेरें लेकर, तुम्हारीं जीवन - संगिनी बनकर, अपने सब रिश्तें - नातों को छोड़कर, तुम्हारें भरोसें नए घर में प्रवेश करती है और जिसके साथ तुम सात - जन्मों का साथ निभाने का दम भरते हो, उसको तुम मरने की स्तिथि में कैसे छोड़ सकते हो ? ये तो उससे भी बदतर स्तिथि है कि धोबी के कहने पर राम ने सीता को बनवास दिया या सीता ने राम की मर्यादा रखने के लिये बनवास लिया।
नायर हॉस्पिटल के डीन डॉक्टर मोहन जोशी जी ने बताया कि एक प्रतिष्ठित परिवार की महिला गर्भवती थी। उसे प्रसव के लिये प्राइवेट हॉस्पिटल में दाखिल करवाया गया। डिलीवरी होने पर जब टेस्ट हुआ तो महिला और उसका बच्चा दोनों कोरोना संक्रमित पाये गये। परिवार वालों ने अपने हाथ झाड़ लियेे और वह उन्हें उसी हालत में छोड़कर चलें गये। यहाँ तक की उसके पति ने भी उनके पास रहना गँवारा नहीं समझा। प्राइवेट हॉस्पिटल ने उस महिला से पल्ला झाड़ते हुए, रात के डेढ़ बजे, वार्डबॉय और एम्बुलेंस के ड्राइवर के साथ, नायर हॉस्पिटल के गेट पर छोड़ दिया। वह एक दिन की जच्चा बच्चें के साथ, सड़क पर ठोकरें खाने को मजबूर थी। जबकि एक दिन की जच्चा की स्तिथि क्या होती है, आप सब जानते हैं। वह चलना तो दूर, उठने के काबिल भी नहीं होती है।
नायर हॉस्पिटल वालों ने इन्सानियत की मिसाल कायम की। उन्होंने न केवल उसको आश्रय दिया बल्कि जच्चा और बच्चें का इलाज करते हुए दोनों की जान बचायी। उनका वहाँ सही तरीके से ईलाज शुरू हुआ, और दोनों चार - पाँच दिन में नेगेटिव थे। अब जैसे ही रिपोर्ट नेगेटिव आयी, परिवार वालें दोनों को लेने हॉस्पिटल पहुँच गये। यह है एक भारतीय नारी, जिसने परिवार वालों की इज़्ज़त रखी और उनके साथ ख़ुशी - ख़ुशी चली गयी।
मैं सोचने पर मजबूर हूँ कि सिर्फ कोरोना संक्रमित होने पर ही एक परिवार अपने दायित्व से कैसे मुँह मोड़ सकता है ? जबकि बार - बार यही कहा जा रहा है कि बिमारी से दूरी बनायें, बिमार से नहीं। और हम सब इतने स्वार्थी हो गये हैं कि हम अपने खून को भी बेमानी समझने लग गये हैं।
उन्होंने एक और उदाहरण भी दिया कि तीन महिलायें कोरोना संक्रमित थी। उन्हें नायर हॉस्पिटल में दाखिल करवा दिया गया। लेकिन कोई फिर उन्हें न देखने आया और न लेने। और जब हॉस्पिटल का वार्डबॉय और एम्बुलेंस चालक उस जगह, जहाँ वह रहती थी, लेकर गया तो वहाँ उन्हें घुसने नहीं दिया गया और उनके साथ मारपीट और पत्थरबाजी की। क्या हो गया हमारी संवेदनाओं को ? हमने तो जानवरों को भी मात दे दी। एक कुत्ते को देखो, वह अपने मालिक के लिये कितना वफ़ादार होता है और हम इंसान कितने नासुक्रे हैं।
अगर कोई कोरोना संक्रमित है, तो उसका कोई कसूर नहीं है। हमें उसका साथ देना चाहिये, न की उसको मझदार में छोड़ दें। अगर हम अकेले ज़िंदा रह भी गये तो, कौन सा तीर मार लेंगे। अकेला रहना हमारें लिये ज्यादा दुखदायी होगा। जब वह कोरोना संक्रमित ठीक होकर घर वापस आयेंगे, तो उनसे हम नज़रें नहीं मिला पायेंगे। बिमारी आयी है तो जायेगी भी। हर काली रात के बाद सवेरा होता है। अँधेरा जब ज्यादा बढ़ जाता है, तो "शकुन" रोशनी सामने ही होती है।